तमिल राजनीति अब दोराहे पर…

डॉ. ए के वर्मा ।

तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की अचानक मृत्यु ने प्रदेश की राजनीति में एक शून्य पैदा कर दिया है। यद्यपि पन्नीरसेल्वम ने मुख्यमंत्री का कार्यभार ले लिया है लेकिन शशिकला ने जयललिता के आवास में डेरा डाल कर स्वयं को उनके प्रमुख वारिस के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है। पर अभी पार्टी को उनका वास्तविक उत्तराधिकारी चयन करना बाकी है। विगत अट्ठाइस वर्षांे से जयललिता अन्नाद्रमुक की एकमात्र नेता रही हैं और पार्टी में किसी को भी उनके उत्तराधिकारी का दर्जा प्राप्त नहीं था। इसलिए उनके बाद पार्टी में नेतृत्व के लिए घमासान होना स्वाभाविक है।

तमिल राजनीति में शुरू से ही केवल दो प्रकार का नेतृत्व रहा है। या तो विद्रोह कर के उसे प्राप्त किया गया है या पार्टी के सर्वोच्च नेता ने स्वयं अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया है। स्वतंत्रता के बाद सबसे पहले 17 सितम्बर 1949 को सीएन अन्नादुरई ने करुणानिधि और कुछ अन्य साथियों के साथ ई वी स्वामी नायकर (पेरियार) के नेतृत्व वाली जस्टिस-पार्टी से अलग होकर ‘द्रमुक’ की स्थापना की। उसके पीछे कारण पेरियार का एक नवयुवती से विवाह करना और उसे ही अपना उत्तराधिकारी बनाना था। तमिल सिनेमा के लोकप्रिय नायक एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) ने 1953 में द्रमुक ज्वाइन किया। द्रमुक ने पहला चुनाव 1957 में लड़ा। उसके 18 वर्षों के बाद द्रमुक ने अन्नादुरई के नेतृत्व में 1967 में कांग्रेस से राज्य की सत्ता छीन ली और राज्य में द्रविड़ वर्चस्व की स्थापना की। तब से आज तक कांग्रेस राज्य में सत्ता में आ नहीं पाई।

1969 में अन्नादुरई की मृत्यु हो गई और पार्टी में उत्तराधिकार के लिए हुए संघर्ष में एम करुणानिधि को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया और उनको मुख्यमंत्री भी चुना गया। लेकिन शीघ्र ही उनका एमजीआर से विवाद हो गया। 1972 में एमजीआर ने द्रमुक से अलग होकर ‘अन्नाद्रमुक’ की स्थापना कर डाली। आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनावों में एमजीआर के नेतृत्व में ‘अन्नाद्रमुक’ ने भारी सफलता प्राप्त की और अपनी सरकार बनाई। एमजीआर की मृत्यु 1987 में हुई और वे तब तक मुख्यमंत्री के पद पर आसीन रहे।

एमजीआर ने तमिल फिल्मों में अपने साथ काम करने वाली हीरोइन जयललिता को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्रोजेक्ट कर दिया था। जयललिता को उन्होंने अपना प्रोपेगेंडा मैनेजर बनाया और जनता के सामने उनको एक ‘शक्ति’ के रूप में पेश किया जो ‘बुराई’ अर्थात करुणानिधि को समाप्त करने में सक्षम हैं। 19 जनवरी 1989 को दिए अपने भाषण में जयललिता ने भी अपने को एमजीआर के वारिस के रूप में प्रस्तुत किया, ‘क्रांतिकारी नेता एमजीआर ने मुझे राजनीति के लिए तैयार किया। उन्होंने मुझे उस शख्सियत के रूप में चिन्हित किया जिसमें करुणानिधि जैसे दुष्ट को नष्ट करने की शक्ति है।’ चूंकि जयललिता 1984 से 1989 तक राज्यसभा की सदस्य रहीं, इसलिए एमजीआर की मृत्यु के तुरंत बाद उनकी पत्नी ‘जानकी’ कुछ समय से लिए मुख्यमंत्री बन गर्इं। लेकिन जयललिता ने इसका प्रबल विरोध किया और उसके लिए वे प्रतिमान प्रयोग किये जिसे तमिल सिनेमा में अन्नादुरई और एमजीआर ने लोकप्रिय बनाया था। इन दोनों ने विवाहित तमिल महिलाओं के लिए एक-विवाह और नारी-पवित्रता के मूल्यों को तमिल सिनेमा में प्रसारित किया था। उसके आधार पर जयललिता ने एमजीआर की पत्नी जानकी के राजनीति में प्रवेश पर घोर आपत्ति की और कहा कि जब तक एमजीआर जीवित थे उन्होंने जानकी को घर के बाहर कदम भी नहीं रखने दिया और अब ऐसा करके वे अपने पति की अवज्ञा और अवमानना कर रहीं हैं जो स्त्री-धर्म के विरुद्ध है। चंूकि जयललिता अविवाहित थीं इसलिए उन पर विवाहित स्त्री-धर्म के प्रतिमान लागू नहीं होते थे। इस प्रकार अपने सिनेमा जीवन के अनुभवों का उन्होंने राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने में बड़ी चतुराई से प्रयोग किया और जो राजनीतिक संस्कृति तमिल सिनेमा में व्यक्त की जा रही थी उसके सटीक प्रयोग से एमजीआर की पत्नी को धराशाई कर स्वयं अन्नाद्रमुक की सर्वेसर्वा बन बैठीं और जीवन-पर्यन्त किसी को अपने आस-पास भी नहीं फटकने दिया। तमिल राजनीति में द्रमुक और अन्नाद्रमुक के ऐसे एकाधिकार वाले नेतृत्व-क्षमता का कोई सानी नहीं।

लेकिन जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक के नेतृत्व को लेकर शशिकला और पन्नीरसेल्वम के बीच चल रही खींचतान से 1987-89 में जानकी और जयललिता के मध्य सत्ता-संघर्ष याद आता है। फर्क इतना है कि जहां जयललिता को स्वयं एमजीआर ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित किया था वहीं जयललिता ने किसी को भी अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया। फिर जयललिता एक करिश्माई व्यक्तित्व थीं और वैसा व्यक्तित्व इन दोनों में किसी का भी नहीं है। अब देखना यह होगा कि आगे ये दोनों कैसी चालें चलते हैं।

क्या जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक की विचारधारा में कोई परिवर्तन संभव है? शुरुआती दौर में द्रमुक के नेता अन्नादुरई और करुणानिधि तमिल-अस्मिता पर आधारित तमिल-राष्ट्र की बात करते थे, लेकिन जयललिता ने मजबूत द्रमुक को चुनौती दी और तमिलनाडु को एक ‘संघीय-फ्रेमवर्क’ में सम्मिलित करने का संकेत दिया तथा दोनों राष्ट्रीय दलों से संबंध बनाए। आज तमिल राजनीति में दोनों द्रमुक दलों की विचारधारा में कोई विशेष फर्क नहीं। दोनों ही तमिल अस्मिता, समतामूलक समाज और वामपंथी प्रवृत्तियों पर बल देते हैं। लेकिन अब हिंदी-विरोध, उत्तर-भारतीयों का विरोध और आर्य-विरोध उनके एजेंडे पर नहीं है। गहराई से देखने पर दोनों की विचारधारा में ‘लोक-लुभावनपन’ एक प्रमुख घटक के रूप में मिलता है। अंतर केवल इतना है कि जहां द्रमुक का उद्देश्य लोगों को सत्ता में सहभागिता देकर सशक्त करना है वहीं अन्नाद्रमुक उन्हें संरक्षण प्रदान कर उनका कल्याण करना चाहती है। वास्तव में दोनों ही द्रमुक दल एक ओर राज्य में सत्ता भोगना चाहते हैं वहीं वे केंद्र से भी मधुर संबंध बना कर राज्य के विकास में उसका योगदान चाहते हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण द्रमुक और अन्नाद्रमुक का कांग्रेस और भाजपा दोनों से गठबंधन है। कभी वे एक राष्ट्रीय-दल (कांग्रेस) से तो कभी दूसरे राष्ट्रीय दल (भाजपा) से निकटता बना लेते हैं। वास्तव में विचारधारा और सिद्धांत द्रमुक दलों के लिए महत्वपूर्ण न होकर राज्य के हित और व्यक्तिगत निष्ठाएं महत्वपूर्ण हैं।

लेकिन जयललिता के आगमन के बाद से राज्य में तीन प्रवृत्तियां देखी जा सकती हैं। एक- कांग्रेस का अवसान हुआ जिससे एक राजनीतिक रिक्तता आई। दो- उच्च-जातियां जो पहले कांग्रेस के साथ थीं, वे उसके विकल्प के रूप में एक दूसरी राष्ट्रीय पार्टी की तलाश में हैं जिसे भाजपा पूरा कर सकती है। और तीन-तमिल समाज की धार्मिकता और अंधभक्ति उनको भाजपा की ओर ले जा सकती है। इसमें जयललिता की ब्राह्मण जाति, मंदिरों के प्रति उनका दृष्टिकोण और अयोध्या में मंदिर बनाने को उनका समर्थन आदि कुछ ऐसी बातें हैं जो उनको भाजपा के स्वाभाविक मित्र के रूप में प्रस्तुत करती थीं।

इतना ही नहीं, तमिल राजनीति में द्रमुक दलों को लगभग सत्तर फीसदी और कांग्रेस को बीस फीसदी वोट प्राप्त होते रहे हैं। इससे कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल का तमिल राजनीति में महत्व बढ़ गया था क्योंकि जिस द्रमुक दल को कांग्रेस का सहयोग मिल जाए उसकी स्थिति बेहतर हो जाया करती थी। पर प्रदेश में कांग्रेस के कमजोर होने से वह स्थान छोटे-छोटे तमिल दलों ने लेना शुरू कर दिया। हालांकि द्रमुक दलों का छोटे दलों से समझौता उनको राष्ट्रीय राजनीति में तो कोई स्थान नहीं दे सकता। अत: कांग्रेस के अवसान के बाद भाजपा के अभ्युदय को द्रमुक दल काफी महत्व से देख रहे हैं। क्या भाजपा तमिल राजनीति में कांग्रेस का स्थान ले सकेगी? यदि इसका उत्तर ‘हां’ हो जाए, तो तमिल राजनीति में भाजपा एक सशक्त खिलाड़ी बन सकेगी। कांग्रेस से निकले अनेक नेता तमिलनाडु में अपनी छोटी-छोटी पार्टियां चला रहे हैं और वे भी तमिल अस्मिता पर द्रमुक दलों के प्रतिद्वंद्वी हैं। इसलिए द्रमुक दल कांग्रेस से छिटके नेताओं या कांग्रेस पर उतना विश्वास नहीं कर पा रहे जितना भाजपा पर। इसके चलते तमिलनाडु की भावी राजनीति में भाजपा को महत्वपूर्ण स्थान मिल सकता है। इसका दूसरा कारण यह भी है कि मोदी सरकार का सहयोग तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के सत्ता हस्तांतरण और राज्य के विकास में प्रभावी भूमिका निभा सकता है क्योंकि जयललिता से मोदी के सम्बन्ध ठीक-ठाक रहे हैं और आगे भी भाजपा की सरकार के केंद्र में सत्तारूढ़ रहने की संभावना को देखते हुए अन्नाद्रमुक के लिए भी यह फायदे का सौदा रहेगा। फिर अन्नाद्रमुक-राष्ट्रीय दल गठबंधन को लेकर जो एमजीआर फार्मूला है (जिसमें विधानसभा चुनाव में द्रमुक दल को दो-तिहाई सीटें और लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय दल को दो-तिहाई सीटें आवंटित की जाती हैं) वह भाजपा के लिए फायदे का सौदा है। अत: भाजपा-अन्नाद्रमुक गठबंधन दोनों के लिए ‘विन-विन’ वाली स्थिति है।
तमिलनाडु की राजनीति में 1989 से राज्य की सत्ता द्रमुक और अन्नाद्रमुक के बीच चक्रीय-क्रम में आती-जाती रही है। केवल पिछला विधानसभा चुनाव 2016 इसका अपवाद रहा क्योंकि 2011 और 2016 दोनों बार अन्नाद्रमुक ही जीती और जयललिता ही मुख्यमंत्री बनीं। यह अपने आप में बड़ी विलक्षण बात है और प्रमाणित करती है कि दोनों दलों का कोई बिलकुल पृथक-पृथक जनाधार नहीं। तमिल समाज में 3 फीसदी ब्राह्मण, 67 फीसदी अन्य-पिछड़ा-वर्ग और 19 फीसदी दलित हैं। और ब्राह्मणों को छोड़ कर अन्य सभी जाति समूह दोनों ही द्रमुक दलों को वोट देते रहते हैं। मुस्लिम समाज जरूर द्रमुक को ही वोट करता है क्योंकि उसे लगता है कि अन्नाद्रमुक और जयललिता की हिन्दू प्रतीकों और भाजपा से नजदीकियां हैं। जिस तरह से जयललिता (अम्मा) के मरणोपरांत दर्शनार्थियों का तांता लगा हुआ था उससे तो यही लगता है कि ‘अम्मा’ के नाम पर जो भी अपने को आगे करने की पहल कर लेगा तमिल जनता उसी के पक्ष में खड़ी दिखाई देगी। हालांकि अभी आगामी चुनाव बहुत दूर है लेकिन संभव है जनता में उपजी सहानुभूति के चलते अन्नाद्रमुक का नया नेतृत्व स्वयं को मजबूत करने के लिए मध्यावधि चुनाव करा डाले।

भारतीय राजनीति में कई ऐसे राज्य हैं जहां दलीय नेता का कोई राजनीतिक वारिस नहीं है। उत्तर प्रदेश में मायावती और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। जयललिता भी उसी श्रेणी में आती थीं। जब भी ऐसे नेताओं का इंतकाल होता है तो पार्टी के सामने नेतृत्व के परिवर्तन की समस्या उठ खड़ी होती है। उसका कारण है कि ऐसे दलों में आतंरिक लोकतंत्रीय व्यवस्था नहीं होती। वैसे तो कुछ राष्ट्रीय दल भी इस प्रवृत्ति के दायरे में आते हैं। लेकिन उनके पास विचारधारा और दूसरी श्रेणी के नेता तो होते हैं, पर अन्नाद्रमुक, बहुजन समाज पार्टी और तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों में नेता तो हैं लेकिन नेतृत्व की कोई दूसरी कतार नहीं है। जाहिर है ऐसी पार्टियों में नीचे के नेताओं में सत्ता हथियाने की जंग होगी। ऐसी पार्टियों में विचारधारा से ज्यादा व्यक्तिगत निष्ठाएं प्रभावी होती हैं। इसलिए नेतृत्व परिवर्तन के समय पार्टी के विधायक और कार्यकर्ता नए नेता से अपने समीकरणों के आधार पर ही उसका समर्थन या विरोध करते हैं। ऐसे नेता करिश्माई व्यक्तित्व के धनी होते हैं इसलिए उनके आभा-मंडल के इर्द-गिर्द रहनेवाले कार्यकर्ता किसी अन्य को तब तक अपना नया नेता स्वीकार नहीं कर पाते जब तक उनको यह एहसास न हो कि नये नेता को उनके करिश्माई नेता का आशीर्वाद प्राप्त था। तमिलनाडु में पन्नीरसेल्वम या शशिकला को इस परीक्षा से गुजरना पड़ेगा। हो सकता है कोई तीसरा इसमें कूद पड़े और अन्नाद्रमुक से बगावत कर जयललिता का राजनीतिक उत्तराधिकारी होने का कोई सैद्धांतिक या बौद्धिक आधार ढूंढ ले।

जयललिता के राजनीतिक उत्तराधिकारी होने का कोई सामान्य अर्थ नहीं। उत्तराधिकारी का चयन करने में पार्टी को कई बातों पर ध्यान देना पड़ेगा। उसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या पार्टी जयललिता की मृत्यु को एक राजनीतिक अवसर में बदल सकती है? इसके लिए क्या वह समाज के किसी वर्ग को विशेष रूप से टारगेट करेगी जो आगे मजबूती से उसके साथ खड़ा रहे? वैसे तो द्रमुक अन्य-पिछड़ा-वर्ग की हिमायती मानी जाती है लेकिन वह वर्ग अन्नाद्रमुक को भी वोट देता रहा है। अत: नेतृत्व का निर्धारण करने में अन्नाद्रमुक अन्य-पिछड़े-वर्ग के बहुसंख्यक थेवर, गौंदर, मुदालियर, वेनिय्यर, चेट्टियार, नाडार आदि जातियों को ध्यान में रखकर कोई निर्णय ले सकती है। लेकिन शशिकला कल्लार जाति की हैं और पन्नीरसेल्वम थेवर जाति के हैं और दोनों ही तमिलनाडु में अन्य-पिछड़े-वर्ग में सम्मिलित हैं। यह जयललिता के उत्तराधिकारी के चयन को और कठिन बना देगा।

जयललिता की अकूत संपत्ति भी एक मुद्दा है। उनको भ्रष्टाचार के मामले में कई बार जेल हुई पर हर बार वे जीत कर आ जाती थीं। 1997 में उनके निवास ‘पोएस-गार्डन’ में छापे के दौरान 28 किलो सोना, 800 किलो चांदी और अकूत सम्पदा मिली। 2014 में एक विशेष अदालत ने उनको चार वर्ष की कैद और सौ करोड़ रुपये जुमार्ना किया पर 2015 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने उनको बेकसूर पाया और सभी आरोपों से बरी कर दिया। 2016 में विधानसभा चुनावों में जयललिता ने अपनी घोषित संपत्ति 113.73 करोड़ बताई थी। उसके अलावा अन्नाद्रमुक के पार्टी फंड में करीब सौ करोड़ रुपये हैं। जयललिता का न कोई परिवार है न ही उन्होंने किसी को अपनी संपत्ति के लिए मनोनीत किया। इसलिए जो भी उनका राजनीतिक वारिस होगा वही इन सबका भी उत्तराधिकारी होगा। देखना यह है कि क्या अन्नाद्रमुक इस परिवर्तन के झंझावात को झेल जाएगी या उसमें विद्रोह के स्वर फूटेंगे जैसी कि तमिल राजनीति में परिपाटी रही है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या जयललिता के बाद नेतृत्व परिवर्तन के प्रयास में सत्ता-संघर्ष से अन्नाद्रमुक में एक और विभाजन होगा?

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी आॅफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स, कानपुर के निदेशक हैं)

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