कश्मीर में महबूबा की अग्निपरीक्षा

कश्मीर घाटी में पिछले दो महीने का घटनाक्रम धीरे-धीरे एक ऐसे संकट में तब्दील हो रहा है, जिसका हल तत्काल किसी को समझ में नहीं आ रहा है। कहा यह भी जा रहा है कि मौजूदा समस्या 2010 के संकट से भिन्न है। सवाल है कि इस संकट का कारण क्या है?
कश्मीर के मौजूदा संकट की बात करें तो उसका मुख्य कारण मुख्यधारा के राजनीतिक दलों और युवा पीढ़ी के बीच बढ़ती संवादहीनता है जिसने एक बड़ी दरार का रूप ले लिया है। और जब भी कोई बड़ी घटना होती है कश्मीर में, जैसे ज्यादती या स्त्रियों से बदसलूकी आदि का आरोप लगाया जाता है, तब यह संवादहीनता और भी गहरी नजर आती है। पिछले कई वर्षों में यह बात कई बार जाहिर हुई है। इस संवादहीनता के बढ़ने के खतरे ये हैं कि जब जब ऐसा होता है तो कुछ निहित स्वार्थी तत्व बीच में आ जाते हैं। वे इस स्थिति का लाभ उठाते हुए अपनी रोटियां सेंकने लगते हैं। अलगाववादी तत्व जो पहले से ही काफी सक्रिय रहते हैं उन्हें भी ऐसी स्थिति में अपना वजूद दिखाने का मौका मिल जाता है। दरअसल अलगाववादियों का तो मकसद ही यह होता है कि सरकार और भारत के खिलाफ अगर कोई घटना होती है तो वे उसका भरपूर लाभ उठाएं। पाकिस्तान भी इस दौड़ में पीछे नहीं रहता। वर्तमान में कश्मीर में जो स्थिति है उसे लेकर भी ऐसा ही हो रहा है। राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान खूब शोर शराबा कर रहा है। कश्मीर की स्थिति को अपने निहित स्वार्थों के मद्देनजर गलत ढंग से और बढ़ा चढ़ाकर पेश कर रहा है।
लेकिन अगर हम लोग अपना घर ठीक रखें तो इस तरह की स्थिति नहीं उभरेगी। इसके लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि कश्मीर के स्थानीय लोगों पर प्रभाव रखने वाले प्रमुख राजनीतिक दलों पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और नेशनल कांफ्रेंस मुख्य भूमिका में उतरकर लोगों के बीच जाएं, उनसे संवाद कायम करें और उन्हें मुख्यधारा में जोड़ें। इनमें भी पीडीपी को इस दिशा में अधिक सक्रियता दिखानी होगी क्योंकि वह सत्ता में है और इस समय जो क्षेत्र गड़बड़ी वाले बने हुए हैं उसके बड़े हिस्से में उसका काफी प्रभाव है।
घाटी में युवाओं को, जो आज सड़कों पर उतर रहे हैं, उनका ‘पोलिटिकल मोबिलाइजेशन’ करने में दोनों दलों को जुटना चाहिए। फिलहाल जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को इस बात का श्रेय जाता है कि वे मैदान में डटी हुई हैं। यह अलग बात है कि ऐसी स्थिति में उनकी पार्टी को जिस तरह से भूमिका निभानी चाहिए थी शायद वे उसे उस स्तर पर नहीं कर पार्इं, जैसे लोगों के साथ बैठकें करतीं और उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिशें की जातीं।
कश्मीर में इसी प्रकार की स्थिति 2010 में भी बनी थी लेकिन तब के मुकाबले इस बार मामला काफी लंबा खिंच गया है। हालांकि 2008 में तो मामला और भी बिगड़ गया था और ऐसा लग रहा था कि जम्मू और कश्मीर दोनों अलग हो जाएंगे। उस समय जम्मू में भी काफी तनाव हो गया था। 2008 में ही घाटी में पहली बार पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन लश्कर ए तैयबा के समर्थन में नारे सुनाई दिए थे। लेकिन यह बात जरूर अचम्भे में डालने वाली है कि उसी साल जब जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनाव हुए तो भारी मतदान हुआ। लोगों ने पूरे उत्साह से वोट डाले। जून में भारी तनाव और नवंबर में भारी मतदान, ऐसा हुआ था घाटी में।
कश्मीर में 2010 में भी काफी तनावपूर्ण स्थिति रही, सौ के करीब लोग मारे गए थे। लेकिन तब मामला इतना लंबा नहीं खिंचा था। इसीलिए हमने देखा कि 2010 में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे उमर अब्दुल्ला ने जो अब विपक्ष में हैं, वह बार-बार कह रहे हैं कि मेरी गलतियों से भी महबूबा ने कोई सबक नहीं सीखा। उमर कह रहे हैं कि महबूबा मेरी गलतियों से सबक सीखें। बार बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, ऐसा न हो इसके उपाय किए जाने चाहिए। विपक्ष का धर्म निभाते हुए उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की आलोचना तो कर रहे हैं, लेकिन उनके इस्तीफे की मांग उन्होंने नहीं की है। इसका कारण यह है कि वह खुद भी इस स्थिति से रूबरू हो चुके हैं।
महबूबा के लिए एक बात यह भी है कि वह जुम्मा जुम्मा चार दिन पहले ही जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री बनी थीं। अभी चुनाव जीता ही था, कि यह सारा तनाव शुरू हो गया। हो सकता है कि अभी उनको उतना परिपक्व प्रशासनिक अनुभव न हो लेकिन इस परिस्थिति को संभालने में वह बड़ी हिम्मत से काम कर रही हैं। वह बिल्कुल थकी नहीं हैं। वह पीड़ित परिवारों से मिलने खुद गई हैं जिनका कोई व्यक्ति मारा गया या घायल है। कुर्बानी देने वाले पुलिस वालों को भी उन्होंने श्रद्धांजलि दी है। यह स्थिति महबूबा के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई है।
इसके अलावा पुलिस का ढांचा कई जिलों में चरमरा गया है। तो इसको भी उन्हें फिर से खड़ा करना पड़ेगा जो बड़ी जिम्मेदारी का काम है। लेकिन यह कम बड़ी बात नहीं है कि कुर्सी संभालते ही इतनी बड़ी चुनौती सामने आने पर भी वह जीवट के साथ खड़ी हैं। विपक्ष भी इस बात को महसूस कर रहा है। इसलिए सरकार की आलोचना तो हो रही है लेकिन विपक्ष कोई बहुत तीखा हमला करने से बच रहा है।
सरकार तो अपनी तरफ से जो कर सकती है उसमें लगी ही है। लेकिन विपक्षी दलों के लिए भी यह जरूरी है कि वे अलगाववाद की राजनीति करने वाले, हिंसा फैलाने वाले तत्वों के खिलाफ लड़ें और लोगों को मुख्यधारा में लाने की कोशिशों में जुटें। इनमें नेशनल कांफ्रेंस तो है ही, कांग्रेस को भी आगे आना चाहिए। कांग्रेस का भी घाटी के कुछ हिस्सों में थोड़ा बहुत प्रभाव रहा है। वे नौजवान जो आक्रोश में हैं उनसे बात कर उन्हें मुख्यधारा में लाना और देश के सरोकारों के साथ जोड़ना तो यहां सक्रिय राजनीतिक दलों का काम है ही। फिर चाहे वे दल सत्ता में हों या विपक्ष में उन्हें अपनी सक्रिय भूमिका निभाने के लिए आगे आना ही चाहिए।
जहां तक भाजपा का सवाल है तो उसका घाटी में कोई दमखम नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि वह महबूबा मुफ्ती को पूरा समर्थन दे रही है। यही इस वक्त उसकी सही अप्रोच है।
केंद्र सरकार का यह कहना कि वह अलगाववादियों से कोई बातचीत नहीं करेगी, यह बहुत परिपक्व सोच का परिचय नहीं लगता है। अगर केंद्र में कोई ऐसा नेता होता जो स्थानीय लोगों से सीधे बात कर पाता, खासकर उन नौजवानों से जो गलियों में हैं, इस वक्त गुस्से में हैं, फिर तो उनकी इस बात में काफी दम होता कि हम अलगाववादियों से बात ही नहीं करेंगे। इसलिए यह मुझे कोई बहुत सही तरीका नहीं लगता। यह माहौल ऐसा है कि उन्हें सबसे बात करनी चाहिए।
अलगाववादियों के साथ केंद्र बात करता रहा है। खुद भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने भी की है। एनडीए सरकार में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई और उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की तो अलगाववादियों एक बड़े धड़े के साथ तमाम मुद्दों पर काफी खुलकर बातचीत हुई थी। आडवाणी के साथ तो बातचीत के कई दौर हुए हैं। इसीलिए मेरा मानना है कि मौजूदा केंद्र सरकार को भी बातचीत तो करनी चाहिए और सबसे करनी चाहिए। लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत उन नौजवानों से बातचीत करने की है जो इस वक्त गुस्से में हैं। इसमें पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि इन दोनों दलों का कश्मीर में असर है। हालांकि वे अभी इस काम में ज्यादा सफल नहीं हो पाए हैं लेकिन उन्होंने अपने प्रयास जारी रखे हैं।
महबूबा मुफ्ती ने यह बहुत सही बात कही है कि बहुत थोड़े से लोग कश्मीर में स्थिति को बिगाड़ रहे हैं। यह मेरे भी देखने में आया है कि ज्यादतियों के शिकार तो मासूम लोग होते हैं लेकिन माहौल बिगाड़ने के काम बहुत थोड़े लोग ही करते हैं। मेरा ख्याल है कि महबूबा का इशारा उन तत्वों की तरफ है जो अलगाववादी, गड़बड़ी करने वाले और पाकपरस्त हैं।

pellet2अगर कश्मीर के मौजूदा हालात की बात करें तो नौजवानों में जो गुस्सा है वह काफी जगह पर दिखाई पड़ता है। ये गुस्से की लहर आम नौजवानों में ही है। समाज के अन्य तबकों में नहीं है। आम आदमी तो घरों में परेशान बैठा है। आक्रोश केवल युवाओं में है। नौजवान तादात में ज्यादा तो नहीं होते और वैसे किसी भी मूवमेंट में ज्यादा नहीं होते। लेकिन तमाम जगहों पर वे इकट्ठा हो जाते हैं। नौजवानों का यह गुस्सा तमाम जगहों पर फैलता बहुत जल्दी है। हालांकि दिल्ली में हुई घटना बिल्कुल अलग तरह की थी जब निर्भया मामले को लेकर युवा सड़कों पर निकल आए थे। उसमें भी ज्यादातर युवा ही थे। गलियों, सड़कों, इंडिया गेट तक आ गए थे। युवाओं के इकट्ठे होने का यह है। कश्मीर में तमाम जगहों पर नौजवान आक्रोश में हैं यह बात जम्मू कश्मीर में मंत्री और पीपुल्स कांफ्रेंस के चेयरमैन सरदार लोन ने भी कही है।
इधर एक बात यह हुई है कि कश्मीर में बारह साल बाद फिर से बीएसएफ की तैनाती की गई है। ं इसमें कोई नई बात नहीं है। चूंकि राज्य में स्थानीय पुलिस का ढांचा हिल गया है तो संभवत: कानून व्यवस्था को संभालने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया है। थोड़ा पीछे देखें तो 1990 के आसपास कश्मीर में आतंकवाद चरम पर था। तो उस दौरान शायद 1992-93 में घाटी में पुलिस का ढांचा बिल्कुल ही तहस नहस हो चुका था। फिर एक साल के भीतर उसे फिर से खड़ा किया गया। काफी जगहों पर दोबारा से सक्रिय होने के बाद पुलिस अच्छा काम करने लगी थी। लेकिन इस बार कई जगह पुलिस स्टेशनों पर हमले किए गए। एक पुलिस वाले को तो उसके वाहन समेत झेलम में ही फेंक दिया था। इससे पुलिस का मनोबल टूटा। फिर उनके परिवार स्थानीय लोगों के बीच ही रहते हैं तो इसलिए भी आक्रोश के सामने पुलिस कुछ जगहों पर भाग गई। हालांकि ज्यादा जगहों पर ऐसा नहीं हुआ और हालात वैसे नहीं बने जैसे 1990 में थे। पर कुछ जगहों पर पुलिस सिस्टम ‘कोलैप्स’ हो गया। कहीं हमले हुए। कहीं उनके हथियार लूट लिए गए। कहीं उनके परिवार का डर दिखाया गया। कहीं हमले में मारे गए। और इस तरह कुछ जगहों पर पुलिसवाले भाग निकले। इस तरह बीएसएफ की तैनाती को कानून व्यवस्था बनाए रखने के कदम के तौर पर देखा जाना चाहिए।
सवाल यह है कि घाटी में हालात कब ठीक होंगे। मुझे लगता है कि घाटी के हालात ठीक होंगे ही और जल्दी ठीक होंगे। कारण एक तो युवाओं के आक्रोश का यह मामला काफी लंबा खिंच चुका है। दूसरा- इसका नेतृत्व कौन कर रहा है यह अभी पहचान में नहीं आया है। इन युवाओं के इस आक्रोश के पीछे कोई संगठित नेतृत्व या लीडरशिप नहीं है। तमाम जगहों पर यह स्वत:स्फूर्त है। ऐसे में यह बहुत लंबा नहीं खिंच सकता, हालांकि पहले ही बहुत लंबा खिंच चुका है। अभी जो केंद्र सरकार ने कदम उठाए हैं वो कुछ पहले उठाए जाने चाहिए थे। जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जम्मू कश्मीर के विकास और संवाद की बात की है, राजनाथ सिंह जम्मू कश्मीर गए हैं। जो बातें इन्होंने देर से शुरू की हैं या अभी शुरू की हैं, वे सकारात्मक हैं लेकिन उनका असर होते होते कुछ समय तो लगेगा ही। यूं कश्मीर के मामले में टाइम फ्रेम को लेकर कोई सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि वहां कब तक शांति स्थापित हो जाएगी। 2008 का उदाहरण हमारे सामने है जब जून महीने में कश्मीर में भारी अशांति थी और नवम्बर में पता भी नहीं चल रहा था कि वहां ऐसा कुछ हुआ भी है। हम विश्वास कर सकते हैं कि लेकिन ज्यादा समय तक ऐसी स्थिति नहीं रहेगी और हालात ठीक होंगे।
जम्मू कश्मीर की पूरी अर्थव्यवस्था टूरिज्म पर ही टिकी है और लगभग पूरा टूरिज्म सीजन अशांति, तनाव, हिंसा के चलते खत्म हो रहा है जिससे लोग खासे परेशान हैं। आम लोग तो इसी सीजन की कमाई से साल भर के जरूरी खर्चे-पानी का बंदोबस्त करते थे। यहां पर्यटन का सीजन जून से अक्टूबर तक रहता है। अब सितंबर चल रहा है। तो मुझे लगता है कि सिविल सोसाइटी भी आगे आकर शांति के लिए पहल करेगी। पहले भी जब कश्मीर में पर्यटन मौसम के दौरान अलगाववाद ने जोर पकड़ा था और तनाव व अशांति थी तब लोगों ने ही मिलिटेंट्स से कहा था कि हमारा बहुत नुकसान हो रहा है, आप थोड़ा संभल कर चलें। तो कश्मीर के बारे में ऐसा है। आम आदमी को अपनी बात कहने में थोड़ा वक्त लगता है क्योंकि उसके पास तो बंदूक नहीं होती कि अलगाववादियों को उन्हीं भी भाषा में समझा सकें। दूसरा आप देखें कि आतंकवादी भी पर्यटकों को प्राय: बहुत कम ही अपना निशाना बनाते हैं। पर्यटकों को कभी परेशान नहीं किया जाता था। बाकी समय के मुकाबले आम तौर पर टूरिस्ट सीजन के दौरान वहां शांति रहती है। लेकिन इस बार तो पूरा मौसम ही खाली चला गया। काफी बुकिंग कैंसिल हुई हैं। मुझे लगता है कि आम आदमी को राहत पहुंचाने के लिए सरकार को इसके लिए भी कुछ करना पड़ेगा। हालांकि प्रधानमंत्री का पहला पैकेज कुछ अच्छा था लेकिन बहुत संभव है कि बदलते हालात में वह उसमें कुछ तब्दीली लाएं।
दूसरा आम लोग पैलेट के कारण भी दुखी हैं। कई लोगों की आंखें चली गई हैं। बहुत से लोगों को गंभीर चोटें आई हैं। तो इसका असर समाज पर पड़ा है। और समाज को अपने जख्मों से उबरकर सामान्य होने में थोड़ा वक्त लगता है।
कश्मीर के बारे में एक बात यह भी समझ लेने की है कि ठीक इस समय वहां जो आक्रोश है वह युवाओं का है। इस आक्रोश में, अलगाववाद या आतंकवाद में और पाकिस्तान जो कुछ करता रहा है उसमें कोई अंतर्संबंध या इंटरकनेक्शन नहीं है।
एक बात जो खास है वह यह कि कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी संगठन जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के एक गुट ने पहली बार कहा कि हाफिज सईद को इस आंदोलन से अलग थलग कर दिया जाए। उनसे कहा जाए कि वे हमारे मामलों में दखल न दें। सईद की वजह से हमारे मूवमेंट को काफी नुकसान पहुंच रहा है। हाफिज सईद पाकिस्तान में जमात उद दावा के प्रमुख हैं और आतंकवादी संगठन लश्कर ए तैयबा के संस्थापक रहे हैं। वे पाकिस्तान से ही भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के मास्टरमाइंड माने जाते हैं। कनाडा में रह रहे जेकेएलएफ के एक ग्रुप के नेता फारूक सिद्दीकी की फेसबुक के जरिए कही गई इस बात पर गौर करना जरूरी है। हालांकि सिद्दीकी के कहने का यह मतलब नहीं निकाला जा सकता कि वह भारत के साथ हैं। क्योंकि एक और बयान में उन्होंने यह भी कहा है कि कश्मीर घाटी से जितने भी विधायक या सांसद हैं चाहे वह कांग्रेस, पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस किसी के भी हों, सबको इस्तीफा दे देना चाहिए। लेकिन यह बहुत बड़ी बात है कि अलगाववादियों में कहीं से पहली बार ऐसी आवाज सुनने को मिली है कि हाफिज सईद को अलग रखा जाए।
कुल मिलाकर कश्मीर के मौजूदा हालात बहुत जटिल हैं और इसके कई आयाम हैं जिन्हें अलग अलग हल करना होगा।

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