सत्यदेव त्रिपाठी

कनु पटेल (कन्हैया लाल फकीरचन्द पटेल) का नाम आज देश की पहली पंक्ति के चित्रकारों में शुमार है। अपने तीस से अधिक सालों की नितांत सक्रिय चित्र-यात्रा में लन्दन, सिंगापुर, दुबई, जकार्ता, इण्डोनेशिया देशों के साथ मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई जैसे अपने महानगरों व बेंगलुरु, भोपाल, जयपुर, जोधपुर जैसे नामचीन शहरों में एकाधिक बार से होते हुए अहमदाबाद, वडोदरा, सूरत आदि स्थानीय नगरों में कई-कई बार को मिलाकर अब तक लगभग 70-75 सामूहिक एवं 50 से अधिक एकल प्रदर्शनियों के माध्यम से देश-विदेश में अपनी कला का परचम लहरा चुके हैं… और यह शृंखला आगामी 8 से 16 अप्रैल तक ‘जहांगीर आर्ट गैलरी’ में जारी रहेगी। कनु अपनी उत्कृष्ट चित्रकला के लिए ढेरों सम्मान व पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं- गुजरात कला प्रतिष्ठान का मुरारी बापू के हाथों ‘भारत कला रत्न’ (2016), गुजरात ललित कला अकादमी का ‘गौरव सम्मान’ (2010-11), चित्र-कला के जरिए राष्ट्रीय विकास में अमूल्य योगदान के लिए तीन बार, जिसमें एक बार 2004 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों सम्मानित और चार बार सर्वोत्कृष्ट चित्र के लिए पुरस्कृत हो चुके हैं।

गुजरात में वल्लभ विद्यानगर स्थित उनके पुराने और फिर आज वाले घर से लेकर म्युनिसिपल बाजार के बड़े आॅफिस के बड़े कमरे में भिन्न-भिन्न मूड्स एवं स्थितियों में कनु की कला-कल्पना को रूप-ग्रहण करते हुए मैंने पिछले बीस सालों से कभी औचक, तो प्राय: तल्लीनता से खूब-खूब देखा व जज्ब किया है। मुम्बई की उसकी कला-प्रदर्शनियों में दिन-दिन भर रहकर कला-प्रेमियों व पारखियों के साथ बात-विमर्श किया-सुना है।

फिर बीस सालों के कनु के साथ की इस पूंजी के अलावा कनु पर लिखने के मेरे दुस्साहस का एक आधार यह भी है कि कनु सिनेमा और थियेटर भी करते हैं, जिन पर मैं कुछ गूं-गा कर लेता हूं। और उसका मानना है कि ‘चित्र की वृत्ति और उससे उपजी समझ ने उसके नाट्य व सिने अभिनय को दिशा दी है एवं अभिनय ने उसकी चित्र-कला को समृद्ध किया है’। नाट्य और सिने कला को भी रंगों की जरूरत होती है, तो संगठन व पेशेवराना ब्योरे चित्रकला के लिए मददगार सिद्ध होते हैं। कल्पना जब भी अभिव्यक्त होती है, बिम्ब में होती है, जो चित्र ही है। आकार का अनुकरण ही आकार का सृजन है। इस तरह यह रास्ता उभयमुखी है। और क्यों न हो, आखिर दोनो ही प्रदर्शनपरक कला के ही तो रूप हैं, जिसमें सबकी पूंछ और सिर एक दूसरे से चुमकारी लिया करते हैं। तो फिर मेरे लिखने में भी यह चुमकारी होनी ही चाहिए।

वर्षांे के अपने साथ के साक्ष्य पर मैं जानता हूं कि प्रिय कनु का पहला और लरिकइंवा का प्यार चित्रकला ही है। उसके शब्दों में भी ‘मेरे नन्हें से दिमाग व उंगलियों की शायद यही (चित्र कला) पहली पसन्द रही होगी। बचपन की धुंधली यादें मुझे अब तक बहुत कुरेदती हैं। तब के ढेरों दृश्य व घटनाएं मुझे लगातार चित्र बनाने के लिए उकसाती रहती हैं। वैसे तो साहित्य और अभिनय से भी जुड़ा हूं, जो मुझे बहुत पसन्द भी हैं, पर जब जिन्दगी के रंग मेरी जेहन में बोलते हैं, तो उन्हें कैनवस तक ले जाने में मैं ज्यादा सुकून महसूस करता हूं। जितना रंगों में मैं उजागर हो पाता हूं, उतना किसी अन्य में नहीं… शायद इसलिए भी कि अभिनय एक समूह-कर्म भी है, जिससे पर-निर्भरता आती है और मुक्त स्वानन्द बाधित होता है… कल्पनातीत सौन्दर्यबोध के लिए चित्रकला ज्यादा अच्छा माध्यम है’। और उन नन्हीं उंगलियों की धुंधली यादों वाला कनु का बचपन विसनगर (मोदीजी के वडनगर से 13 किमी. पर स्थित) में बीता, तो उस गांव की प्रकृति और परिवेश ‘खेती-बाड़ी आदि सब कुछ आकर्षित करता है। उन आकारों में सौन्दर्यबोध खोजता हूं, वही प्रेरणा, संतोष व आनन्द देते हैं’। वह अकूत वैभव कनु की जेहन में पैठा है, जो ‘जस खरचे, तस बढ़ै सवायो’ बनकर उसकी कला में उतरता और उतरता रहता है, पर अक्षय निधि की तरह चुकने का नाम नहीं लेता। इस पूरे सम्भार को कनु ने ‘अतीत राग’ के रूप में खास तौर पर संजोया और प्रस्तुत किया है, जो वैसा ही विश्रुत व आदृत भी हुआ है- कनु की कला का एक अक्षय पात्र।

लेकिन कनु के बचपन की नन्हीं उंगलियों का चित्र-कर्म शायद रांठ (रॉ) ही बनकर रह जाता, यदि अपनी इस प्रकृति-प्रदत्त निधि को फाइन आर्ट्स के उच्च अध्ययन (1988) से संवारने-निखारने वह विद्यानगर न आ गया होता। तभी से इस विद्यानगर में बसना ही हो गया और अब तो यह कनु के अलावा प्राप्ति (गायिका) वगैरह कुछ अन्यों के कारण ‘कलानगर’ भी हो गया है। कनु ने यहां के कला महाविद्यालय में 5-6 सालों अध्यापन व अभी कुछ सालों पहले यहीं के सीवीएम ललित कला महाविद्यालय में चार सालों प्राचार्य के रूप में कार्य किया। इस दौरान कॉलेज के कलाविषयक अध्ययन को स्तरीय पाठ्यक्रम देकर तथा उपयोगी सेमिनारों, प्रदर्शनियों, प्रकल्पों, अतिथि व्याख्यानों आदि के जरिए समृद्ध करते सही ढंग से स्थापित व निर्देशित किया, जिससे संस्थान को तो अपेक्षित दिशाएं मिलीं ही, जिस पर वह अग्रसर हो रहा है, उससे ‘व्यये कृते वर्धत एव नित्यं’ की मानिन्द कनु की कला के भी नये क्षितिज खुले हैं।

उक्त ‘अतीत राग’ यानी ‘भारतीय गांव की विरासत’ की शृंखला तो कनु की चित्र-कला की रीढ़ रज्जु है, पर ऐसी दर्जन भर चित्र शृंखलाएं हैं, जिनसे कनु के चित्रकार का पूरा व्यक्तित्व बनता है- तीन पुराण कथाएं- अपनी औरतें, अपने वृक्ष और अपने रंग (थ्री लीजेण्ड्स- माइ वूमन. माइ ट्रीज एंड माइ कलर्स), अंतस के सतरंगी समुद्र (सेवेन कलर्स आॅफ माइ सी), वर्षा चित्रमाला (रेन स्केप), ऊर्जा और उत्साह : प्रकृति और पुरुष ( जिंग एंड जॉप- यिन एंड यॉन), मुखौटा शृंखला (मास्क सीरीज), रवीन्द्रायन शृंखला (टैगोर जी के काम पर आधारित) और कला की खोज- पूरब और पश्चिम (क्वेस्ट आॅफ आर्ट- ईस्ट एंड वेस्ट)। काश, यहां अवकाश होता इन समस्त शृंखलाओं के जरूरी व वांच्छित विवेचन का। ये सभी शृंखलाएं समान भाव से अपने आप में अत्यंत मानीखेज, कलात्मक व लोकप्रिय हुई हैं, जिनसे कनु का नाम चित्र-कला की दुनिया में ऐसे मुकाम पर स्थापित हुआ, जहां पहुंचना किसी भी कला और कलाकार का श्रेय-प्रेय होता है। सबके महत्त्व का दर्जा ‘को बड़ छोट कहत अपराधू’ जैसा है, लेकिन मुखौटा शृंखला सर्वाधिक पसन्द की गई और कनु के अनुसार भी यह सबसे सफल व उत्तम बनी और मानी गई है। इसने भारतीय दर्शन को उकेरने का काम किया है, जो भारतीय कला में मुखौटा की समृद्ध परम्परा के चलते सहज सम्भव एवं सम्प्रेषणीय व ग्राह्य हो सका है। ‘कला की खोज’ बरक्स पूरब-पश्चिम के सिलसिले में कनु को मिला टूटा-फूटा इतिहास, जिसने यह चिंता-चिंतन भी दिया कि जिस देश के इतिहास में हजार सालों के दौरान इतने-इतने विध्वंस हुए, उसके बाद भी जो बचा रह गया, उसकी गरिमा व जीवंतता कितनी स्पृहणीय होगी! उसके मुताबिक इसके सबसे पुख्ता उर्वर व उपादेय रूप रामायण और महाभारत है, जो आधुनिक भारतीय साहित्य के सबसे बड़े उपजीव्य सिद्ध हुए हैं। तुलसी और हनुमान हैं, जो आस्था और ऊर्जा के प्रतीक हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि और जीवट के परिणाम हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि पश्चिम के तमाम देश ऐसी विरासत से महरूम हैं और उनकी कलमी विरासत का अनुकरण ही आज की हमारी पीढ़ी को अपनी उपलब्धि लगता है! ऐसी सच्चाइयों को खोलना और कदर्थ के पीछे भागते अपने समाज को उनसे परिचित कराके अन्धाधुन्ध प्रवाह को मोड़ना हर कलाकार का दायित्व है, जिसे कनु पटेल बखूबी पूरा करते हैं। ‘रवीन्द्रायन’ शृंखला भी इसी विरासत के आधुनिक रूप की सशक्त कड़ी और इसी मकसद की हामी है। इस मौजूं सोच व सक्रियता के साथ कनु का मानना है कि ऐसे उदात्त व उच्च्तम शिखरों को छूती हुई कला ही आज के बाजारवाद व भूमण्डलीकरण आदि का जवाब भी है। ऐसा न कर पाने वाले कलाकार भी आज कला के व्यवसायीकरण के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। आज के घनघोर व्यावसायिक युग में, जब व्यावसायिकता ही एक मूल्य बनती जा रही है, कनु इस तथ्य पर रोशनी डालते हैं कि क्या कोई भी इनकार कर सकता है कि सर्जन के विशिष्ट क्षणों की सुखानुभूति का कोई मूल्य नहीं होता। इसलिए सारे बाजार व व्यवसाय के बाद भी कला का बुनियादी और वरेण्य मूल्य तो आनन्द ही है। लेकिन आनन्द के साथ कनु के लिए कला में यह भी उतना ही अनिवार्य है कि वह जीवन को परिभाषित करे, बेहतरी की तरफ ले जाए- ‘जब मैं कूची-रंग लेकर कैनवस से रूबरू होता हूं, तो गोया जीवन से बातचीत, उसी की व्याख्या करता हूं, क्योंकि कला का उपादेय रूप मूलत: उसकी समाज-सापेक्ष्यता में ही निहित है।’

और इस आनन्द व समाजसापेक्ष्यता के साथ कनु के लिए कला की पूर्णकामता का मामला और मकसद जगत और ब्रह्माण्ड तक पहुंचता है- यानी कला का दार्शनिक व चिंतनपरक आयाम, जिसमें भारतीय प्राचीन दर्शन उनका इष्ट है। कनु जानता है कि कला के रूप एक तरफ तो नियत हैं, लेकिन दूसरी तरफ अनंत सम्भावनाओं से भरे भी हैं। इसलिए सीमित होकर भी असीम हैं। इन तमाम बहुमार्गी चौक-चौराहों से गुजरता कला का मार्ग आगामी पीढ़ी के लिए और भी कठिन तथा चुनौतियों से भरा होगा, पर उसके समक्ष प्रतिभाएं भी कम न होंगी। कनु का यकीन सच ही है कि कला ऐसी चिरंतन ऊर्जा से संवलित होती है कि हर युग में अपनी राह निकाल लेती है।