यूपी में मुसलमान जाएं तो किधर जाएं

वीरेंद्र नाथ भट्ट ।

उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव अब निकट है। सभी दलों के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न है। मुस्लिम यादव वोट बैंक के सहारे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भरोसा है कि वह ही 2017 में दोबारा सरकार बनाएंगे। लेकिन मुस्लिम नेता सपा को 2012 के चुनाव पूर्व किये वादों की याद दिला रहे हैं तो अखिलेश मौलानाओं से समाजवादी पार्टी के गौरवशाली धर्मनिरपेक्ष इतिहास की दुहाई दे रहे हैं।

मायावती को विश्वास है कि केवल उनकी पार्टी ही उत्तर प्रदेश की जनता को सपा के गुंडाराज से मुक्ति दिलवा सकती है। कांग्रेस ने अपनी परंपरा के खिलाफ जाकर मुख्यमंत्री पद के उमीदवार तक की घोषणा कर दी है तो मुसलमानों के छोटे छोटे दल मोर्चा बना कर समाजवादी पार्टी के लिए संकट बढ़ा रहे हैं।

स्वामी प्रसाद मौर्य और आर के चौधरी जैसे कद्दावर नेताओं के पार्टी के खिलाफ बगावत करने और भाजपा के भूतपूर्व नेता दया शंकर सिंह के मायावती के खिलाफ विवादास्पद बयान से उपजे विवाद से बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ गिरने से भी सपा में चिंता है। सपा के सूत्रों के अनुसार 2017 के चुनाव में यदि बसपा का वोट प्रतिशत 25 प्रतिशत से नीचे गया तो बीजेपी को उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने से रोकना मुश्किल ही नहीं असंभव हो जाएगा। 2012 के विधान सभा चुनाव में सपा और बसपा का कुल वोट 54 फीसदी था जबकि 2014 के लोक सभा चुनाव में बसपा 15 फीसदी वोट पर सिमट गयी और सपा 22 प्रतिशत पर यानी कुल 37 प्रतिशत। लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली और सपा को एक ही परिवार की पांच सीटों से संतोष करना पड़ा। भाजपा का वोट शेयर 42 फीसदी से अधिक रहा और उसको 71 सीटों पर विजय हासिल हुई जबकि दो सीटें उसके सहयोगी दल अपना दल को मिलीं। समाजवादी पार्टी को 2017 के चुनाव में 2014 के चुनाव की पुनरावृत्ति का डर सता रहा है।

उत्तर प्रदेश के विधानसभा के 1952 से लेकर 2012 के बीच के साठ साल के इतिहास में सबसे कम वोट 29.9 प्रतिशत वोट पाकर विधानसभा में 224 सीट जीत कर बहुमत हासिल कर समाजवादी पार्टी ने कीर्तिमान बनाया था। 2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 30 प्रतिशत वोट मिले थे और 206 सीटों पर जीत हासिल की थी। समाजवादी पार्टी ने 2012 में बसपा के रिकॉर्ड को तोड़ दिया और एक प्रतिशत कम वोट पाकर भी अधिक सीटें जीतीं। लेकिन समाजवादी पार्टी का हौसला इतना बुलंद है कि सरकार के लम्बे चौड़े विज्ञापनों में दावा किया गया है कि ‘बन रहा है आज और संवर रहा है कल’। लोगों को समझ में नहीं आ रहा सपा नेताओं का आज और कल तो पहले भी ठीक था और पांच साल की सरकार में और ठीक हो गया। सपा के कुछ नेता तो इतनी तेजी से अपना कल सुरक्षित करने में लगे हैं कि सपा के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को बार बार चेतावनी देनी पड़ रही है यदि 2017 में सत्ता में वापस आना है तो जमीनों पर अवैध कब्जा करना बंद करो, यदि पैसा ही कमाना है तो राजनीति छोड़ कर कोई व्यापर कर लो।

2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को मुसलमानों का एकतरफा समर्थन मिला था। तब मुस्लिम बहुल देवबंद में राजेंद्र राणा और मुजफ्फरनगर में चितरंजन स्वरूप ने भारी जीत दर्ज कर सपा का परचम लहरा दिया था। मुसलमानों का आभार जताने के लिए सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने इन दोनों नेताओं को मंत्री की कुर्सी दी। लेकिन चार सालों में हालत इतने बदल गए कि 2016 के शुरू में दोनों सीटों पर हुए उपचुनावों में सपा दोनों सीटें हार गई। देवबंद कांग्रेस ने झटक ली तो मुजफ्फनगर में भाजपा ने अपना परचम लहरा दिया।
राणा और स्वरूप की असामयिक मृत्यु के बाद फरवरी में देवबंद और मुजफ्फरनगर विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हुए। सपा ने जनता की सहानुभूति को ‘कैश’ कराने के लिए राणा की पत्नी मीना राणा को देवबंद से और स्वरूप के बेटे गौरव स्वरूप को मुजफ्फरनगर से चुनाव मैदान में उतारा। लेकिन 16 फरवरी को जब उपचुनाव के नतीजे आए तो तस्वीर कुछ बदली नजर आई। सपा ये दोनों विधानसभा सीटें दोबारा नहीं जीत सकी। इस हार ने यह बता दिया कि मुसलमानों के बीच सपा की पकड़ ढीली हो चुकी है।

2017 के चुनाव से पहले मुसलमान बहुल सीटों पर मिली हार ने मुलायम सिंह यादव की चुनौती को और बढ़ा दिया। यह चुनौती कई और मोर्चांे से भी मिल रही है। बीएसपी ने सपा समर्थक मुसलमान वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। ‘आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन’ (एआईएमआईएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की यूपी में चुनावी दस्तक ने भी सपा के कान खड़े कर दिए हैं।

मुलायम सिंह के सामने 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के लिए मुसलमान वोटों पर चुनाव जिताऊ समीकरण तैयार कर पाने की बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई है। मुसलमान बहुल सीटों पर उपचुनाव में मिली हार के फौरन बाद मुलायम सिंह ने 2012 के चुनाव में हारी हुई सीटों पर सपा उम्मीदवार घोषित करने की कवायद शुरू कर दी। समाजवादी पार्टी ने 142 उम्मीदवारों की सूची जारी कर विधानसभा चुनाव की जंग का आगाज कर दिया। इस सूची में सबसे ज्यादा 28 मुसलमान उम्मीदवारों को जगह देकर मुलायम सिंह ने अपना चिरपरिचित दांव खेल दिया है।

2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने स्वर्णिम प्रदर्शन करते हुए बहुमत हासिल किया था। इसमें पहली बार सपा के सर्वाधिक मुसलमान, यादव और दलित उम्मीदवार विजयी हुए थे। अगले चुनाव में इस प्रदर्शन के करीब पहुंचने के लिए मुलायम सिंह यादव ने मुसलमान-ठाकुर-यादव (एमटीवाई) की सोशल इंजीनिरिंग शुरू की है। ठाकुर मतदाताओं को बीजेपी की तरफ झुकने से रोकने के लिए मुलायम अमर सिंह को साथ लाए हैं। लखनऊ यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर डॉ. प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘आरक्षित सीटों पर सवर्ण मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। वर्तमान राजनीतिक हालात में ब्राह्मणों का झुकाव बीजेपी की तरफ दिख रहा है, इसलिए सपा ने ठाकुरों पर ध्यान लगाया है।’ सपा ने विधानसभा चुनाव के उम्मीदवारों की पहली सूची में 23 दलित, 19 यादव और 16 ठाकुर प्रत्याशी उतारे हैं।

2017 के विधानसभा चुनाव में विपक्षी पार्टियों की काट के लिए मुलायम कुछ वैसा ही ताना-बाना बुन रहे हैं, जैसा बीजेपी नेता अमित शाह और नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने पिछले लोकसभा चुनाव में बुना था। शाह के हिंदुत्व और मोदी के विकास एजेंडे की जुगलबंदी ने बीजेपी को भारी जीत दिलाई थी। लिहाजा, अगले विधानसभा चुनाव में अखिलेश-मुलायम की जोड़ी विकास एजेंडा और मुसलमान-यादव मतदाताओं को एक साथ साधेगी।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव वोट बैंक की राजनीति से दूर रहते हुए खुद को विकास पुरुष के रूप में पेश कर रहे हैं। वे अपने भाषणों में मुसलमानों या किसी अन्य जाति या धर्म का अलग से कोई उल्लेख नहीं करते। पिछले दिनों जिला पंचायत अध्यक्ष और एमएलसी चुनाव में दो दर्जन युवाओं को टिकट दिया गया, जिसमें एक भी मुसलमान नहीं था। वहीं दूसरी ओर सपा सरकार के चार वर्ष पूरे होने के मौके पर जारी किताब में भी सिर्फ अखिलेश यादव की विकास योजनाओं का बखान किया गया है। मुसलमानों का जिक्र केवल अल्पसंख्यक विभाग की योजनाओं में ही आया है। वहीं दूसरी ओर मुलायम सिंह यादव सपा के कोर वोट बैंक मुसलमान और यादव पर पूरा ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

मुलायम सिंह यादव ने हाल में एक रैली में कहा कि, ‘अखिलेश मुख्यमंत्री हैं, इसलिए वे आईएएस अधिकारियों से क्रिकेट मैच जीत जाते हैं। जबकि उन्हें अधिकारियों पर लगाम लगाकर काम कराना चाहिए। कुछ अधिकारी ऐसे हैं, जो मेरी बातों की अनदेखी कर मुख्यमंत्री से पूछने चले जाते हैं।’

पश्चिम उत्तर प्रदेश पर फोकस

अगले विधानसभा चुनाव में पिछला प्रदर्शन दोहराने की आस में सपा ने दंगा पीड़ित पश्चिम यूपी पर फोकस किया है। हारी हुई सीटों पर घोषित सपा उम्मीदवारों की सूची में पार्टी की इस रणनीति की झलक साफ दिखाई देती है। पार्टी ने बिजनौर की चार हारी हुई सामान्य सीटों पर मुसलमान उम्मीदवार उतारे हैं। इसी प्रकार बुलंदशहर की तीन सीटों पर भी मुसलमान उम्मीदवारों पर दांव लगाया गया है। सपा ने अपनी पहली सूची में कुल 28 मुसलमान उम्मीदवारों को जगह दी है। उनमें से 18 पश्चिमी यूपी से हैं। मेरठ कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मनोज सिवाच कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव के बाद पश्चिमी यूपी में बीएसपी की सक्रियता ने मुसलमान मतदाताओं का सपा से मोहभंग किया है। विधानसभा उपचुनाव के नतीजे इसकी तसदीक करते हैं। मुसलमानों के बदले रुख से सकते में आई सपा अब डैमेज कंट्रोल में जुटी है।’

मुलायम सिंह यादव के घर पर हाल में हुई मौलानाओं की एक बैठक में शामिल दारुल उलूम देवबंद से जुड़े एक मौलाना ने कहा कि ‘मुलायम कुछ ऐसे मुसलमान नेताओं से घिर गए हैं, जिनका अपने इलाके में कोई जनाधार नहीं है। यही कारण है कि मुसलमानों की असल समस्याएं उन तक नहीं पहुंच पा रही हैं।’

इसके अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की नाराजगी देवबंद को जिला बनाने, वहां हज हाउस की स्थापना करने जैसे सपा के वादों के अब तक पूरा न हो पाने को लेकर भी है। मुसलमान धर्मगुरुओं की नाराजगी चुनावी साल में सपा को भारी पड़ सकती है। जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी का समर्थन पाने के लिए सपा ने उनके दामाद और विधान परिषद सदस्य उमर अली खान को बेहट से टिकट दिया है। उधर लखनऊ के शिया समुदाय के नेता, इमाम-ए-जुमा मौलाना कल्बे जव्वाद और बरेलवी सुन्नी मुस्लिम नेता और इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौकीर राजा खान की ओवैसी से हुई मुलाकात ने भी सपा विरोधी मुस्लिम सियासत को हवा दे दी है।

उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों के लिए जहां बड़ी पार्टियां कार्यकताओं को इकट्ठा कर उन्‍हें प्रचार का तरीका समझा रही हैं। वहीं राज्‍य की स्‍थानीय पार्टियों ने मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने के लिए एक साझा मंच इत्तेहाद फ्रंट बना लिया है। इस कवायद के केंद्र में हैं महाराष्‍ट्र के कारोबारी इस्‍माइल बाटलीवाला, जो कि आॅल इंडिया मुस्लिम महाज के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष और पॉलिटिकल यूनिटी कैम्‍पेन के संयोजक हैं। बाटलीवाला राज्‍य की उन सभी राजनीतिक पार्टियों को एक साथ लाना चाहते हैं जो मुस्लिमों की पैरोकारी का दावा करती हैं। फ्रंट को और मजबूत करने के लिए हैदराबाद के सांसद असदउद्दीन ओवैसी से भी बात की जा रही है, ताकि उनकी पार्टी को भी गठबंधन में शामिल कराया जा सके। मुस्लिम दलों का नया गठबंधन सपा के लिए बड़ा सिरदर्द बन सकता है क्योंकि पार्टी का बड़ा वोटबैंक मुस्लिम समुदाय से आता है। सपा के नेता मुस्लिमों के नए गठजोड़ को खारिज करते हुए कहते हैं कि हर चुनाव के पहले अनेकों दल एक मंच पर आते हैं और चुनाव बाद बिखर जाते हैं।

फिलहाल इस कुनबे में आठ पार्टियां (पीस पार्टी, राष्‍ट्रीय उलेमा काउंसिल, परचम पार्टी, मुस्लिम मजलिस, सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी आॅफ इंडिया, वेलफेयर पार्टी आॅफ इंडिया और नेशनल लीग) शामिल हुई हैं।

मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावारत के सेक्रेटरी जनरल मुहम्मद खालिद कहते हैं कि इत्तेहाद फ्रंट की 1 मई और 24 मई को दो मीटिंग हो चुकी हैं। उनके अनुसार चुनावों के दौरान मुस्लिम वोटों का बिखराव आपस में होने से बचाने के लिए समीकरणों के हिसाब से प्रत्‍याशी उतारे जाएंगे। इस गठबंधन में सीटों का बंटवारा पार्टी की सियासी ताकत के आधार पर किया जाएगा। क्षेत्रीय पार्टियों के इस पैंतरे से राज्‍य में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ सकता है। पिछले कई चुनाव में परंपरागत मुस्लिम वोट मुलायम सिंह यादव की पार्टी के साथ रहा है। असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी के इस गठजोड़ का हिस्‍सा बनने पर उत्तर प्रदेश चुनाव में मुस्लिम वोटरों को लुभाने के लिए समाजवादी पार्टी को खासी मशक्‍कत करनी होगी।

पूर्वांचल में मुस्लिम राजनीति
पूर्वांचल में मुस्लिम राजनीति में सपा, बसपा जैसे दलों की वैसी धमक नहीं सुनाई दे रही है जैसी कि पश्चिमी यूपी में है। पूर्वांचल में सपा का मुसलमान चेहरा आंबेडकर नगर से आने वाले कैबिनेट मंत्री अहमद हसन हैं तो बीएसपी ने कभी पश्चिमी यूपी में पार्टी की मुसलमान राजनीति को परवान चढ़ाने वाले मुनकाद अली को पूर्वी जिलों की कमान सौंपी है। हकीकत यह है कि अहमद हसन और मुनकाद अली पूर्वांचल के मुसलमानों में अपनी पैठ नहीं बना पाए हैं और इसी ने यहां छोटे दलों को पांव पसारने का मौका दिया है। पूर्वांचल में बुनकरों की बेहतरी के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी अरशद मंसूरी बताते हैं, ‘पूर्वी जिलों में मुसलमानों का पिछड़ापन मुख्य मुद्दा है। यूपी में सक्रिय बड़े सियासी दल मुसलमानों से संवाद स्थापित करने में फिलहाल नाकाम साबित हुए हैं। इसी खालीपन ने छोटे मुस्लिम दलों के लिए जगह बनाई है।’ एमआईएम ने इसी जगह को भरने के लिए पूर्वांचल में पूरी ताकत झोंक दी है। फरवरी में हुए बीकापुर, फैजाबाद के विधानसभा उपचुनाव में 12,000 से ज्यादा वोट बटोरने वाली एमआईएम को राजनीतिक विश्लेषक ‘वोट कटवा’ के रूप में देख रहे हैं, जो बड़े दलों का खेल बिगाड़ सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की कई सीटों पर सपा के साथ नजदीकी मुकाबले में बीएसपी को पीस पार्टी की उपस्थिति अखर गई थी। इसी तरह अगले विधानसभा चुनाव में सपा को ओवैसी की पार्टी नुकसान पहुंचा सकती है।

मुस्लिम मतों की दावेदारी
यूपी में मुसलमान मतों की दावेदार दो सबसे बड़ी पार्टियां 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले अपने बुनियादी जातीय समीकरण सहेजने में ऐसी उलझी हैं कि वे राज्यसभा चुनाव में एक अदद मुसलमान उम्मीदवार के लिए जगह नहीं बना सकीं। 2012 के विधानसभा चुनाव में पहली बार यूपी में सर्वाधिक 64 मुसलमान विधायक बने। लेकिन उसके दो साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में कोई भी मुसलमान उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत सका। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद यूपी की 21 राज्यसभा सीटों पर हुए चुनाव में जीतने वाले मुसलमान उम्मीदवारों की संख्या दो ही रहेगी (जो नवंबर 2014 में सपा से जीते थे)। जाहिर है कि बराबरी का दावा करने वाली सियासी पार्टियां यूपी की कुल आबादी में 19.3 फीसदी हिस्सेदारी वाले मुसलमानों को उचित प्रतिनिधित्व देने में नाकाम साबित हुई हैं। मुसलमान मतदाताओं के मुद्दे और पहचान को लेकर उपजे संकट के बीच उनके वोटों की सियासत दोराहे पर आ खड़ी हुई है। इससे असम के विधानसभा चुनाव की तरह यूपी में भी मुसलमान वोटों में बंटवारे की पटकथा तैयार होती दिखती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *