अनिल कुमार सिंह

किसी भी समाज के निर्माण में सामान्यजनों की केंद्रीय भूमिका हुआ करती है और धर्म इनका पवित्र सरोकार होता है। सामान्य आदमी का जीवन जातीय स्मृतियों, मिथकीय एवं पौराणिक कथाओं और आख्यानों, पारम्परिक अनुष्ठानों तथा रीति-रिवाजों, विश्वासों-अन्धविश्वासों आदि का समुच्चय होता है, जिसका अतिक्रमण सामान्यत: सम्भव नहीं है। इससे ही उस समाज का ‘सामान्य बोध’ या ‘कॉमन सेंस’ बनता है। इसे उस समाज के अलग-अलग वर्गांे के लोग अपने-अपने ढंग से पल्लवित एवं पोषित करते हैं। इसी ‘कॉमन सेंस’ के दायरे में समाज संचालित होता है। यह समाज की सर्वाधिक संगठित अभिव्यक्ति है। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियां होती हैं। राम और कृष्ण हिन्दू समाज के कॉमन सेंस के सर्वाधिक सुगठित प्रतीक हैं। ये हिन्दू अस्मिता के प्रतीक क्यों और कैसे बन गये, इसे जानने के लिए हमें भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक चरणों की तरफ लौटना पड़ेगा।
आर्य-अनार्य संघर्ष के समय के समाज के प्रमुख चरित्रों का विशेष वर्णन हमें महाकाव्यों में नहीं मिलता। सर्प उपासक अनार्य नाग जाति का सदा के लिए ध्वंस कर देने वाले जनमेजय को इतिहास में कोई विशेष गौरव प्राप्त नहीं हुआ। इसके विपरीत जिन्होंने अनार्यांे के साथ आर्यांे का मिलन कराने का सफल प्रयास किया वे हमारे देश में सदा से ही पूज्य रहे हैं।
आरम्भिक आर्यांे के दस कबीलों की चर्चा ऋग्वेद में है। ये कबीले अनार्यांे से तो लड़ते ही रहे, लेकिन इनमें परस्पर संघर्ष भी होता रहता था। इनमें सर्वाधिक उद्धरणीय लड़ाई दिवोदास की है, जिसमें उसके पुरोहित वशिष्ठ ने उसे धोखा दिया था और वह लड़ाई हार गया। उसके पुत्र सुदास ने उस ब्राह्मण परिवार के कई सदस्यों को हवन कुण्ड में झोंक कर मार डाला। तब से उस ब्राह्मण परिवार ने दिवोदाससुदास परिवार को शापित किया और डॉ. अम्बेडकर के अनुसार, ‘यह परिवार ज्ञान रिक्त होकर धीरे-धीरे धन रिक्त और शस्त्र रिक्त हुआ और अन्तत: अछूत बना।’ डॉ. अम्बेडकर दिवोदास-सुदास को राम की चालीसवीं पीढ़ी में मानते हैं। खैर, यह बात तो प्रसंगात उठी। मैं चर्चा करना चाहता हूं भारत में जाति और वर्ण के उद्भव की।
दरअसल, भारत में यह मान-सा लिया गया है कि यहां पहले वर्ण बने और फिर उसके बाद जातियां बनीं। लेकिन मेरी समझ से यह सही नहीं है। वर्ण है क्या? मेरी समझ से यह जातियों का ही सजग बंटवारा है। अगर जातियां न होतीं तो वर्ण बनाने का सवाल ही नहीं उठता। अत: मेरी समझ यह कहती है कि पहले अपने कर्मांे के आधार पर जातियां, उपजातियां बनी होंगी और इनको सुगठित करने के प्रयास में धीरे-धीरे वर्ण-व्यवस्था विकसित हुई होगी। जातियों, उपजातियों के कार्य तो निश्चित थे। ये किसी न किसी खास व्यवसाय में लगे होते थे। लेकिन जब समाज इससे सम्हलने लायक नहीं रहा तो वर्णों का आविष्कार हुआ और यह समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चार वर्णों में बंटा। पहले इस वर्ण-व्यवस्था में परस्पर संचरण होता था। जो जिस लायक था वह उस वर्ण में जाने का अधिकारी था। लेकिन धीरे-धीरे यह सांचा व्यक्तिगत और समूहगत स्वार्थों के चलते कसने लगा और तब एक वर्ण का संचरण दूसरे वर्ण में सम्भव नहीं रह गया। धीरे-धीरे उच्च वर्णों में वेस्टेड इन्टरेस्ट पैदा हुआ और मूर्ख ब्राह्मण भी पूज्य बनने का अधिकारी बना। कायर से कायर क्षत्रिय भी क्षत्रिय बना और बुद्धि और बल दोनों में मजबूत शूद्र, शूद्र ही रह गया। यह विसंगति धीरे-धीरे पैदा हुई और इसे ब्राह्मण ग्रंथों ने सामाजिक मर्यादा दी, जो विभिन्न परिस्थितियों में करीब करीब उन्नीसवीं सदी तक यथावत कायम रहा। यही भारतीय समाज के अधोपतन प्रमुख कारण बना।
भारत में इसके विरोध के समानान्तर प्रयास भी हैं। सर्वप्रथम इस विरोध की अनुगूंज हमें शंकराचार्य में मिलती है। वैसे इस प्रथा का विरोध दसवीं-ग्यारहवीं सदियों में नाथ और सिद्ध सम्प्रदायों में घनीभूत है और उसके बाद रामानन्द और रामानुज में। इन दोनों परम्पराओं के मिश्रण हैं कबीर और रैदास। कबीर रामानन्द से दीक्षित हुए। इस तरह जात-पात का विरोध शुरू तो हुआ लेकिन सामूहिक स्तर पर यह विरोध उन्नीसवीं सदी के नवजागरण से ही आरम्भ होता हैऔर उन्नीस सौ पचास के बाद कानूनी हक पाकर प्रभावी बन जाता है। दरअसल कबीर पुन: स्थापित होते हैं बंगाल में रवीन्द्रनाथ टैगोर के माध्यम से, और उसके बाद कबीर व्यक्तित्व हिन्दी समाज में लोकप्रिय होता है हजारी प्रसाद द्विवेदी के माध्यम से। द्विवेदी जी पर रवीन्द्र का प्रभाव विशेष प्रभावी बना।
लेकिन आज समग्र दलित आन्दोलन के प्रेरणा स्रोत हैं- कबीर, रैदास, चोखा मेला। पीछे जाया जाय तो इसके मूल स्रोत ऋग्वेद की मुनि परम्परा के कपिल, कणादि, रैक्व आदि हैं और इनके बाद गौतम बुद्ध हैं। इस तरह जाति और वर्ण विरोधी परम्परा भी लगभग आरम्भ से ही सक्रिय रही है जो अब डॉ. अम्बेडकर के माध्यम से संवैधानिक दर्जा पाकर आज समाज को बदलने में लगी हुई है।
पौराणिक इतिहास के क्रम में व्यक्ति धीरे-धीरे भाव का स्थान ग्रहण कर लेता है- यह एक स्थापित सत्य है। जनक और विश्वामित्र आर्य इतिहास से उत्पन्न एक विशेष भाव के प्रतीक बन गए हैं। ब्रिटिश ग्रंथों में किंग आर्थर इसी तरह के व्यक्ति हैं। भारतवर्ष के पहले दोनों महाकाव्यों का मूल विषय था यही प्राचीन सामाजिक संघर्ष, अर्थात समाज के भीतर पुरातन और नूतन का संघर्ष। रामचंद्र ने नये वर्ग का समर्थन किया। कृषि-विस्तार द्वारा आर्य सभ्यता का विकास इस वर्ग का लक्ष्य था, जिसके उत्प्रेरक थे विश्वामित्र। उन्हीं के प्रयास से रामचंद्र ने जनक की भू-कर्षण-जात कन्या से विवाह किया। पहले पशुपालन ही आर्यांे की उपजीविका का विशेष साधन था। धेनुएं वनों के आश्रमवासियों की प्रधान संपदा थीं, क्योंकि वनभूमि में गोपालन आसान होता है। इस नये वर्ग ने अरण्य-बाधा को दूर किया और तब से पशु-सम्पदा के बदले कृषि-सम्पदा महत्वपूर्ण हो गई। वनवासियों ने कृषि-भूमि तैयार किये जाने का विरोध किया और धीरे-धीरे प्रतिद्वन्द्वी हो गर्इं।
उधर विन्ध्याचल के दक्षिण में वन ज्यों-के-त्यों थे और वहीं द्रविड़ सभ्यता प्रबल होकर आर्यांे की प्रतिद्वंद्वी हो गई। रावण ने आर्य देवताओं को परास्त कर अपने देवता शिव को विजय दिलायी। उसने वैदिक देवताओं के उपासकों का बार-बार पराभव किया। ऐसी स्थिति में आर्यांे के सामने यह प्रश्न उठा कि शिव का ‘हरधनु’ कौन तोड़ेगा, जो उनके उपासकों की शक्ति का प्रतीक और उनका सुरक्षा कवच था। विश्वामित्र रामचंद्र को ‘हरधनु’ भंजन की उसी दु:साध्य परीक्षा में ले गये थे। राम ने जब वन में जा कर अनेक प्रबल शैव वीरों को पराभूत किया तभी वे ‘हरधनु’ तोड़ने की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर सीता के साथ विवाह करने के अधिकारी हुए। विश्वामित्र का संधान रामचंद्र में सार्थक हुआ।
धर्म जब बाहर की वस्तु बन जाता है, लोक जब अपने देवता को विषय-संपत्ति की तरह नितांत स्वकीय समझते हैं, तब मनुष्य-मनुष्य के मन का भेद किसी तरह दूर नहीं होता। जब आर्य-अनार्य का भेद इस दायरे में संकीर्ण हो गया तो संघर्ष को मिटाने का एक ही उपाय था- दोनों पक्षों में से एक का सम्पूर्ण विनाश। लेकिन यह प्रयास अन्तत: निरर्थक था। और तब आर्य-अनार्य के बीच वास्तविक मिलन-सेतु का निर्माण करने खड़े हुए- राम। राम एक चाण्डाल गुहक के सुहृद, वानरों-भल्लूकों के देवता और विभीषण के मित्र थे। उनका गौरव इसमें नहीं है कि उन्होंने शत्रुओं का संहार किया, बल्कि इसमें है कि उन्होंने शत्रु को अपना बनाया। आचारजन्य निषेध और सामाजिक विद्वेष की बाधाओं का उन्होंने अतिक्रमण किया। आर्य-अनार्य के बीच उन्होंने प्रीति-सेतु का निर्माण किया और इसी क्रिया में देवत्व तथा मनुष्यत्व के बीच जो रेखा है उसका अतिक्रमण किया। हनुमान, विभीषण आदि की भक्ति पाकर राम चिरकाल के लिए अवतार रूप में स्थापित हो गए। मिलन की इस प्रकिया में अनार्यांे ने बहुत कुछ दिया। आर्यांे के विशुद्ध तत्वज्ञान तथा द्रविड़ों की रस-प्रवणता और रूपोद्भाविनि शक्ति के मिलन से एक आश्चर्यजनक सामग्री का निर्माण हुआ। यह सामग्री न पूरी तरह आर्य थीं, न पूरी तरह अनार्य- यह हिन्दू थी।
परवर्ती युग के समाज ने ‘उत्तर-काण्ड’ में रामचंद्र को उस युग के सामाजिक आदर्श का अनुगत बताने का प्रयास किया। वहां वे शूद्र तपस्वी को वधदंड देते हैं और सीता का परित्याग करते हैं। यह बात सामने लाई गई कि वे शास्त्रानुमोदित ग्राहस्थ्य के आश्रय और लोकानुमोदित आचार के रक्षक थे। इस स्थापना ने राम के अर्थापन को कालान्तर में आच्छादित कर दिया, उस पर एक आवरण डाल दिया। इस आवरण को हटाने और राम को आम-जन के बीच स्थापित करने का सर्वाधिक सार्थक प्रयास मध्यकाल में आकर किया- गोस्वामी तुलसीदास ने।
किसी भी रचना को देश-काल के सापेक्ष देखा जाना चाहिए अन्यथा उनके अन्तर्विरोधों को ठीक से पहचानना सम्भव नहीं होता। तत्कालीन समाज हर दृष्टि से संक्रमणकालीन था। सामान्य लोगों का जीवन विपन्न और अत्यंत धर्म-भीरु था। निराशा और अवसाद का गहन अंधकार व्याप्त था। ऐसे में भुक्तभोगी यथार्थ खासकर जीवन पीड़ा तुलसी की रचना में अपनी सामान्यता के साथ विशेष हो जाती है। उन्होंने भक्ति का स्फुरण प्रदान कर आमजन को आशा की रोशनी दी। जन-जन तक इस प्रकाश को पहुंचाने के लिए सर्वप्रथम तो उन्होंने लोक-भाषा का प्रयोग किया। उनके द्वारा अवधी में रामचरित मानस की रचना करना एक क्रांतिकारी कदम था। संस्कृत भाषा का आग्रही तत्कालीन विद्वत्समाज उनके इस अभिनव प्रयास को मान्यता देने के लिए कतई तैयार नहीं था। काशी में उनका बहुत विरोध हुआ। तरह-तरह से प्रताड़ित और अपमानित किया गया। फिर भी वे अपनी साधना से तनिक भी विचलित नहीं हुए और रामकथा के लेखन तथा मंचन में लगे रहे।
तुलसी की भक्ति चेतना का केंद्रीय तत्व भाव है और भाव वही है जो एक मनुष्य को शेष सृष्टि के साथ रागात्मक संबंध के दायरे में बांधता है। तुलसी के यहां भक्त मनुष्यता का लक्षण भी है और लक्ष्य भी। उनकी भक्ति वैयक्तिक पूजा-उपासना और श्रद्धा-विश्वास तक सीमित नहीं थी बल्कि बड़ी तेजी के साथ घटित हो रहे सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तनों के बीच भारतीय अस्मिता की रक्षा एवं प्रतिष्ठा का सबसे कारगर माध्यम थी। उनके आराध्य राम वनवासी भी हैं और राजा राम भी हैं। वे लोकनायक भी हैं और लोक-आराध्य भी। रामचरित मानस के पात्र लौकिक पात्र हैं। वे देश-काल, घटनाओं, परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से विकसित होते रहने वाले गत्वर पात्र हैं। उनके कार्य, उनके चरित्र, उनकी भावनाएं, उनके विकार, उनके व्यवहार सब मानवीय हैं। यही कारण है कि वे लोगों के मन में उतर जाते हैं, उन्हें प्रिय लगते हैं और उन पर अपना प्रभाव डालते हैं। तुलसी की दृष्टि में मानव जीवन का महत्व सर्वाधिक है, जिसे वे राम के चरित्र के माध्यम से स्थापित करना चाहते हैं। उनका साहित्य श्रेष्ठ मानवीय उदात्तता की पहचान कराता है, उदात्त भावनाओं को संस्कार बना देने की क्षमता रखता है। ‘रामराज्य’ तुलसी द्वारा कल्पित ऐसा स्वप्नलोक है जो पूर्णत: सुखद है। शूद्र विरोधी, नारी निन्दक और वर्ण व्यवस्था समर्थक कवि कभी कालजयी रचना नहीं कर सकता। तुलसी के राम इस बदले हुए युग के मुक्तिदाता हैं। वह समदर्शी हैं, करुणानिधान हैं। ग्रामीण नर-नारियों, कोल, कीरात, गीध, वानर-भालुओं से उनकी आत्मीयता है। वह नारी सीता का परित्याग नहीं करते, वह शम्बूक का वध नहीं करते। ये गुण वाल्मीकि के राम में नहीं हैं।
नारी को जितने विविध रूपों में तुलसी ने चित्रित किया है और नारी चित्रण करते समय जितनी सहानुभूति तुलसी ने नारी पात्रों को दी है, उतनी शायद ही किसी ने दी हो। सीता और पार्वती को जिस ऊंचे और स्वतंत्र आसन पर उन्होंने बिठाया है, उससे ज्यादा ऊंचा नारी का आसन संसार में कहीं और सम्भव नहीं हुआ। पुरुष-प्रधान द्वारा प्रताड़ित और तिरस्कृत अहल्या गहन अवसाद से ग्रसित हो पाषाणवत हो चुकी हैं। राम उन्हें नारी शक्ति का अहसास कराते हैं, अस्मिता बोध कराते हैं, नई ऊर्जा संचरित करते हैं, गरिमामयी मातृत्व को पुनर्जीवन प्रदान करते हैं। अहल्या एक बार फिर वनवासियों की ममतामयी मां बन कर उनका पोषण करने लगती हैं।
एक अन्य अति महत्वपूर्ण कार्य जो तुलसीदास ने किया, वह है- नाटक के रूप में रामलीला की प्रस्तुति, जिसमें वे स्वयं भाग लिया करते थे। प्रश्न है कि नाटक ही क्यों? ऐसा इसलिए कि नाटक ही वह विधा है जिसमें समूह की और समूह की भावों की आवश्यकता होती है। इसे समूह द्वारा एक ही समय पर एक साथ देखा जाता है, जिसका विश्लेषण और व्याख्या हर कोई अपने मनोनुकूल करता है। इसमें किसी चरित्र के विषय में कल्पना नहीं करनी है; हमें सिर्फ देखना है, उन्हें सुनना है। श्रीराम हमारे सामने प्रत्यक्ष हो जाते हैं। देखने से ही विश्वास होता है और नाटक ही वह स्वरूप है जिसमें हम देखते हैं। आज दुनिया में किसी भी नाटक की इतनी प्रस्तुतियां या दर्शक नहीं हैं, जितने रामलीला के। थोड़े समय के लिए ही सही हम उन पात्रों में खो से जाते हैं। धर्म ही नहीं किसी भी अनुभव का सत्य केवल उसके बाहरी रूपों में उद्घाटित होता है। समाज अपनी परम्पराओं एवं प्रतीकों के माध्यम से ही कुछ सीखता है। इसीलिए धर्म के बाहरी रूप किसी भी आस्थावान व्यक्ति के लिए इतने पवित्र और महत्वपूर्ण होते हैं। संसार का रहस्य उसमें है जो प्रकट है, अप्रकट में नहीं। यह प्रकट (अपीयरेंस) ही हमारे यहां लीला में अवतरित होता है: हम एक पुराने सत्य को अपने समय में दोहराते हैं ताकि हम उसकी पवित्रता में पुन: पैठ सकें। वह व्यक्ति जो राम की भूमिका निभाता है, रामलीला के बाहर अपने को राम कहने का दावा करे तो उसे कोई स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि लीला का पवित्र समय जीवन के सेकुलर समय से अलग हो जाता है। हम धर्म की आदिम स्मृति को लीला देखते समय अपने में जाग्रत करते हैं जो वहां से हटते ही संसारिक समय के आलोक में धूमिल पड़ जाती है। लीला और कुछ नहीं- धर्म के प्रतीकों और संकेतों को एक स्थान में संयोजित कर हमें बार-बार उन्हें याद दिलाते रहने का तंत्र है- प्रक्रिया है। और हमें बार-बार इन माध्यमों का अवलम्बन करके राम, कृष्ण, शिव की ओर लौटते रहना ही पड़ेगा। यह बुद्धिधर्मा का काम हैकि वह हमें किस रूप में लौटाएगा।
तुलसीदास युगद्रष्टा थे और उनके राम युग के ‘जथारथ’ को समझते थे। वे युग के मुक्तिदाता, समदर्शी और करुणानिधान बन कर आते हैं। मानस के अंत में ‘तुलसी-विवेक’ का सार गरुड़-काकभुसुंडी संवाद के माध्यम से व्यक्त हुआ है। सबसे दुर्लभ शरीर किसका है? मनुष्य का। सबसे बड़ा दु:ख क्या है? दरिद्रता। सबसे बड़ा सुख क्या है? संत समागम। अहिंसा और परहित परम धर्म है, परनिंदा सबसे बड़ा पाप। सब रोगों की अचूक औषधि है- ‘रघुपतिभगति’… और रघुपतिभगति है- राम के मर्यादा-बोध, शौर्य और आदर्शों को युग की अपेक्षाओं के अनुरूप अपने जीवन में ढालते रहने का सतत प्रयास। अंत मैं करना चाहूंगा डॉ. पी.एन. सिंह के इस कथन से कि- ‘हर युग अपना राम गढ़ता है। तुलसी ने भी अपना राम गढ़ा था। हमें भी अपना राम गढ़ना चाहिए।’ 