मायावती- अब अस्तित्व की लड़ाई

वीरेंद्र नाथ भट्ट

पीवी नरसिंह राव, 11 जून 1995 को फ्रांस की राजकीय यात्रा पर पेरिस पहुंचे। एयरपोर्ट पर उनसे पहला सवाल किया गया कि एक अछूत जाति की महिला मायावती उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री कैसे बन गर्इं। राव ने कहा कि यह भारतीय लोकतंत्र का चमत्कार है। 2 जून को लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस कांड में बाल बाल बची मायावती को 3 जून 1995 को तत्कालीन राज्यपाल मोती लाल वोरा ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित मायावती की सरकार में संसदीय कार्य मंत्री थे और मायावती उन्हें मास्टरजी कहती थीं। शपथ समारोह के बाद मुख्यमंत्री आवास में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष और मायावती के राजनीतिक गुरु कांशीराम ने कहा, ‘मैंने मुलायम सिंह पर तरस खाकर इससे गठबंधन किया था क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की गुंडागर्दी बहुत बढ़ गई थी लेकिन मुलायम तो पेशेवर नेता साबित हुआ।’ कांशीराम ने कहा, ‘मुलायम जैसे नेताओं की किसी राजनीतिक सामाजिक मूल्य पर कोई आस्था नहीं है और वे गठबंधन बनाने और तोड़ने व किसी भी तरह सत्ता पर कब्जा करने का खेल खेलने के आदी हैं। जब चुनाव आता है तो ये लोग अपना झोला झंडा लेकर दिल्ली चल देते हैं और हर नेता और दल के दरवाजे पर दस्तक देते हैं- चुनाव आ गया है हम अलायन्स अलायन्स का खेल खेलें।’ कांशीराम ने कहा कि ‘मुलायम सिंह यादव ने बहुजन समाज पार्टी के साथ भी वही सलूक किया जो इस जैसे नेता जनता पार्टी और जनता दल में रहते हुए करने के आदी थे। मुलायम सिंह को यह ख्याल नहीं रहा कि बहुजन समाज पार्टी के लिए राजनीति खेल नहीं है। हम समाज में व्याप्त जाति आधारित असमानता और दलित समाज को गुलामी के अंधेरे से बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और सत्ता हमारा एकमात्र लक्ष्य नहीं है बल्कि लोकतान्त्रिक राजनीति के माध्यम से बहुजन समाज को सत्ता पर काबिज कराना है।’

आज मायावती चार बार मुख्यमंत्री, लोकसभा और राज्यसभा की कई बार सदस्य रहने के बाद अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बसपा ने 403 में 207 सीटों पर जीत दर्ज कर अपने बल पर पहली बार सरकार बनाई, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में यह दल केवल 19 सीटों पर सिमट गया। चुनाव के तुरंत बाद मायावती ने वोटिंग मशीन में गड़बड़ी का आरोप लगाने के साथ भाजापा को रोकने के लिए समान सोच वाले दलों के साथ गठजोड़ की भी वकालत की। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का रुख भी सकारात्मक था। लेकिन कुछ ही दिनों बाद बसपा में नेताओं का पार्टी छोड़ कर जाने का सिलसिला फिर शुरू हो गया। 2017 के विधान सभा चुनाव से पूर्व स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान आदि नेता पार्टी छोड़ चुके थे। पार्टी के फंड पर विवाद के कारण मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पार्टी से निकाल दिया तो बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष इन्द्रजीत सरोज और आरके चौधरी सपा में शामिल हो गए।

सेंटर फॉर स्टडी आॅफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक डॉ. एके वर्मा कहते हैं, ‘मायावती के सामने अब बड़ी चुनौती थी कि इस भगदड़ को कैसे रोका जाय। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्र का उपचुनाव मायावती के लिए एक बड़ा अवसर लेकर आया और उन्होंने एकतरफा समाजवादी पार्टी को समर्थन देने की घोषणा कर दी। उन्हें इसका तत्काल लाभ भी हुआ और भगदड़ थम गई। इसके बाद कैराना लोकसभा क्षेत्र और नूरपुर विधानसभा क्षेत्र उपचुनाव में भी बसपा ने अपना उम्मीदवार नहीं खड़ा किया और दोनों सीटों पर सपा ने जीत का परचम फहरा दिया जिससे गठबंधन को मजबूती मिली।’

मायावती सपा के साथ गठबंधन के लिए इस कदर बेकरार हैं कि वो अब स्टेट गेस्ट हाउस कांड को भी झुठला रही हैं। इसी साल 23 मार्च को हुए राज्यसभा चुनाव के बाद मायावती ने कहा कि स्टेट गेस्ट हाउस कांड के लिए अखिलेश यादव को जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता क्योंकि तब तो वो राजनीति में ही नहीं थे और उनका इस घटना से कुछ भी लेना देना नहीं है। लेकिन सपा में गठबंधन को लेकर बेचैनी है क्योंकि 28 मई को कैराना लोकसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद चुप्पी साध रखी है। अखिलेश यादव ने यहां तक कहा कि वो गठबंधन की खातिर कुछ अधिक सीटें बसपा के लिए छोड़ने को तैयार हैं। सपा और बसपा में भले ही कोई नेता स्पष्ट बोलने को तैयार नहीं है लेकिन भाजपा में 2019 लोकसभा चुनाव में गठबंधन से होने वाली संभावित चुनौती से निपटने के लिए जोरदार तैयारी चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में चार जनसभा करने वाले हैं और भाजपा दलित वर्ग से एक नेता को उप मुख्यमंत्री बनाने की भी सोच रही है।

प्रसिद्ध दलित विचारक और जेएनयू के प्रोफेसर तुलसीराम ने 2015 में निधन से कुछ समय पूर्व एक इंटरव्यू में मायावती के बारे में कहा था, ‘मायावती चार बार मुख्यमंत्री बनीं दलित-सत्ता के नाम पर, लेकिन सामाजिक आंदोलनों को उन्होंने एकदम नष्ट कर दिया। वह एक भी जुलूस-प्रदर्शन नहीं निकलने देती हैं और न ही कभी जाति-व्यवस्था के खिलाफ बोलने देती हैं। क्योंकि वह ब्राह्मणों को लेकर सत्ता में आना चाहती थीं। इस तरह की राजनीति को अपनाकर मायावती ने सीधे-सीधे वर्ण-व्यवस्था के स्तंभों को मजबूत किया। वह हर जाति का अलग-अलग सम्मेलन बुलवाती हैं- ब्राह्मण सम्मेलन, क्षत्रिय सम्मेलन, वैश्य सम्मेलन। दलित जातियों में चमार सम्मेलन अलग, जाटव सम्मेलन अलग, खटिक सम्मेलन अलग, पासियों का सम्मेलन अलग। इस तरह वह सम्मेलन बुलाती हैं और हर जाति के जातीय गौरव को उत्तेजित करती हैं कि लोग जातियों में बंट कर अपनी-अपनी जाति पर गर्व करें, ताकि जाति-व्यवस्था बनी रहे। इस तरह दलित-मुक्ति का आंदोलन या मैं कहूं कि जातीय भेदभाव खत्म करने का आंदोलन बहुत पीछे चला गया। सैकड़ों साल पीछे चला गया। अम्बेडकर ने जो सब कुछ किया था, उनके नाम पर मायावती ने उन्हें एकदम मटियामेट कर दिया।’

कुछ राजनीतिक विश्लेषक मायावती की राजनीति को खत्म मान रहे हैं। कुछ कह रहे हैं कि उन्हें अपने और अपनी पार्टी के अस्तित्व को बचाने के लिए समाजवादी पार्टी के साथ मिल जाना चाहिए। यह सब अपनी जगह है, लेकिन मायावती को ठहर कर अपने इस पराभव और पतन पर सोचना चाहिए। इसकी सलाह उन्हें कौन देगा? एक दलित विचारक के कहा कि ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों की गड़बड़ियों में कुछ संदेह है, लेकिन आपकी गड़बड़ियों में बिल्कुल नहीं मायावती जी।’

बसपा सुप्रीमो मायावती के अंबेडकरनगर या बिजनौर से लोकसभा चुनाव लड़ने की अटकलें हैं। 2004 में अंबेडकरनगर से लोकसभा चुनाव जीत चुकी हैं मायावती। यह क्षेत्र बसपा का गढ़ माना जाता रहा है। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव पहले ही कन्नौज लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं।

2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में बसपा का सूपड़ा साफ हो गया। रामपुर, सहारनपुर, मुरादाबाद, अमरोहा, बरेली, आजमगढ़, मऊ, शाहजहांपुर, शामली, मुजफ्फरनगर, मेरठ और अलीगढ़ जैसे जिलों में मुस्लिम आबादी ज्यादा है। यहां की कुल 77 सीटों में से सिर्फ पांच पर ही बसपा जीत पाई है। रामपुर में करीब 52 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, मगर यहां की पांच में से एक भी सीट पर बसपा नहीं जीत सकी। पार्टी का यही हाल सहारनपुर और मुरादाबाद में भी रहा। सहारनपुर की सातों और मुरादाबाद की सभी नौ सीटों पर बसपा साफ हो गई। मुरादाबाद में ज्यादातर सीटों पर वह तीसरे नंबर पर रही। अमरोहा में भी बसपा चार में से एक भी सीट नहीं जीत सकी और यहां भी वह ज्यादातर तीसरे स्थान पर ही रही। बरेली की नौ सीटों में से सभी में बसपा को करारी हार का सामना करना पड़ा। शाहजहांपुर की सभी छह सीटों पर बसपा तीसरे स्थान पर रही। यहां तक कि देवबंद जैसी खालिस मुस्लिम सीट पर भी बसपा के पक्ष में मौलानाओं की अपील का किसी ने नोटिस नहीं लिया।

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