क्या मंजर था जब 21 साल की मायावती ने मंच पर जाकर जनता पार्टी के दिग्गज नेता और केंद्रीय मंत्री राज नारायण की धज्जियां उड़ा दी थीं। सितंबर 1977… दिल्ली का कांस्टीट्यूशन क्लब। जनता पार्टी ने तीन दिन की कांफ्रेंस बुलाई। मुद्दा- जाति का दंश कैसे खत्म किया जाए समाज से। कांफ्रेंस में बोलने आए प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई की कैबिनेट के एक मंत्री राज नारायण। राज नारायण उन दिनों के सबसे बड़े हीरो थे। समाजवादी नेता जिन्होंने इंदिरा गांधी को हराया। 1971 में राज नारायण रायबरेली से चुनाव लड़े। जब डब्बा खुला और वोट गिने गए, तो इंदिरा के हिस्से आए 1 लाख 83 हजार वोट। और राज नारायण रह गए 71 हजार पर। मगर इस बनारसी ने लड़ाई खत्म नहीं मान ली। पहुंच गए कोर्ट। बोले, प्रधानमंत्री ने सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया है। 1975 में जस्टिस सिन्हा ने सुनाया फैसला। इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध हो गया। कुछ ही दिनों में इमरजेंसी लग गई। जब हटी तो फिर चुनाव हुए। साल था 1977। फिर रायबरेली की सीट पर दोनों ताल ठोंक रहे थे। इस बार जनता ने नया फैसला सुनाया। डब्बे खुले। इंदिरा गांधी को मिले 1 लाख 22 हजार वोट। और राज नारायण को 1 लाख 77 हजार।
कभी बेबाक तो कभी बेतुके बयानों के लिए मशहूर राज नारायण उन दिनों खूब चर्चा में थे। वह कांफ्रेंस के मंच पर दलित हितों की तमाम बातें करते रहे। मगर एक गलती कर गए। कांग्रेसियों की तरह वह भी दलितों के लिए गांधी का दिया शब्द हरिजन इस्तेमाल करते रहे अपने भाषण के दौरान। सामने एक लड़की बैठी थी। 21 साल की। दिल्ली यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई कर रही थी। पहला साल था। उसे ये बर्दाश्त नहीं हुआ। उसकी बारी आई बोलने की। उसने राज नारायण, जनता पार्टी और कांग्रेस, सबको कोसा। बोली, ‘गांधी ने हमारी बेइज्जती करने के लिए ये शब्द बनाया। हरिजन। ईश्वर का बच्चा। अगर हम हरिजन हैं तो देवदासियों के बच्चों का क्या। जो ईश्वर की गुलाम मानी जाती हैं। और फिर पंडों के नाजायज बच्चे जनती हैं। वे भी तो हरिजन हुए न- शब्दों के हिसाब से।’
मायावती यहीं नहीं रुकीं। बोलीं, ‘हमारे भगवान बाबा साहेब अंबेडकर हैं। उन्होंने कभी हरिजन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। संविधान बनाया तो लिखा- अनुसूचित जाति। तो फिर गांधी के चमचे, सब सवर्ण हमें बार बार हरिजन क्यों बोलते हैं।’
मायावती के इस तेजाबी भाषण के बाद वहां मौजूद दलित समाज उत्तेजित हो गया। राज नारायण मुर्दाबाद और जनता पार्टी मुर्दाबाद के नारे लगने लगे। वहां मौजूद समाज के तमाम प्रतिनिधि इस लड़की को बधाई देने पहुंचे। उनमें एक नए बने संगठन के लोग भी थे। इस संगठन का नाम था बामसेफ। यानी बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज इंप्लाइज फेडरेशन। इसे एक साल पहले एक पंजाबी दलित ने शुरू किया था। उनका नाम था कांशीराम।
कांशीराम पूरे देश में घूम घूमकर दलित समाज के सरकारी कर्मचारियों को संगठित कर रहे थे। ऐसे ही एक दौरे के बाद वह दिल्ली लौटे तो उन्हें बामसेफ के लोगों ने मायावती के बारे में बताया। और तब कांशीराम सर्दियों की एक शाम इंदरपुरी के उस घर में पहुंच गए, जहां प्रभु दास की बेटी मायावती अपने परिवार के साथ रहती थी। मायावती पढ़ाई कर रही थीं आईएएस की परीक्षा के लिए।
कांशीराम ने कहा, ‘क्यों बनना चाहती हो आईएएस?’ मायावती बोलीं, ‘दलित समाज की सेवा के लिए।’ कांशीराम ने समझाया, ‘अधिकारी तो बहुत बन गए। कितने बदले हालत। नेता बनो। सत्ता में आओ। अधिकारियों को भी सत्ताधारी नेताओं की ही सुननी होती है।’ और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास बन गया। मायावती कांशीराम के साथ जुड़ीं। 1984 में बीएसपी बनी। वह चुनाव लड़ीं यूपी के कैराना से। पहले ही चुनाव में बिना संसाधनों वाली बीएसपी को कैराना में 44 हजार वोट मिले। फिर 1985 में कांशीराम ने मायावती को बिजनौर लोकसभा उपचुनाव में लड़वाया। वह फिर हारीं। 1987 में हरिद्वार से लोकसभा का उपचुनाव लड़ीं। वह हारीं, मगर 1 लाख से भी ज्यादा वोट पाए। और 1989 में मायावती ने अपने सपने को हकीकत में बदलने वाली पहली सीढ़ी चढ़ने में कामयाबी पा ली। उन्होंने लोकसभा चुनावों में बिजनौर सीट जीत ली 9 हजार वोटों से। जबकि पूरे प्रदेश में जनता दल की लहर थी। फिर मायावती, कांशीराम और बीएसपी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पर इतिहास लिखने वाले जब भी मुड़कर देखेंगे, उस शाम को जरूर देखेंगे। जब एक लड़की ने एक भाषण दिया। और फिर उसकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई।