सत्यदेव त्रिपाठी
परदेसियों से ना अंखियां मिलाना, परदेसियों को है एक दिन जाना…’ जैसा सुपर हिट गीत परदे पर गाने वाले नायक शशि कपूर के जाने का वो ‘एक दिन’ आ गया – चार दिसम्बर 2017 को, जब उन्होंने अपने तमाम चाहने वालों के लिए खुद को ‘परदेशी’ सिद्ध कर दिया। यह सुपर हिट गीत 1965 में आयी फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ का है, जिससे शशि कपूर के अभिनय को वो पहचान मिली, जो उनकी सिने पेशेवरी (फिल्म कैरियर) के लाजमी उठान का मुकाम बनी। वरना ऐसे तो बतौर नायक उनकी पहली फिल्म थी बी.आर. चोपडा की ‘धर्मपुत्र’ (1961)। लेकिन शशिजी के जीवन की पहली फिल्म थी आर.के. बैनर की ‘आग’, जिसमें उन्होंने महज दस साल की उम्र में बतौर बाल कलाकार अपने बडे भाई राजकपूर के बचपन की भूमिका की थी। ‘संग्राम’ (1950) में अशोक कुमार के बचपन के बाद बाल कलाकार के रूप में आखिरी फिल्म पुन: राजजी के ही बचपन वाली रही ‘आवारा’ (1951)।

लेकिन जब पेशे के तौर पर सिनेमा करने आये तो ‘जब जब फूल खिले’ के पहले बी. आर. चोपड़ा (धर्मपुत्र) व विमल रॉय (प्रेम पत्र) जैसे निर्देशकों के बावजूद फिल्में चलीं नहीं और पांच साल बड़ी गर्दिश के रहे। इस दौरान चारदीवारी, मेंहदी रंग लायेगी, जब से तुम्हें देखा, ये दिल किसको दूं, बेनजीर… आदि फिल्मों के असफल (फ्लॉप) होने की दहशत का हाल यह रहा कि …जब किसी फिल्म के लिए 5000 रुपये की अग्रिम राशि मिली, तो उसे पत्नी ने बहुत दिनों तक खर्च न किया कि जाने कब निर्माता वापस मांगने आ जाये! लेकिन इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। प्यार का मौसम, प्यार किये जा, शर्मीली, नींद हमारी ख़्वाब तुम्हारे, हसीना मान जायेगी, आ गले लग जा, चोर मचाये शोर, फकीरा आदि ढेरों सफल (हिट) के साथ बनी, बनकर अप्रदर्शित रह गयी, अधबनी, घोषित… आदि सब मिलाकर कुल लगभग पौने दो सौ फिल्मों में काम किया। इस योगदान के लिए उन्हें 2011 में ‘पद्म भूषण’, 2014 में ‘दादा साहेब फाल्के’ और 2015 में ‘जागरण’ के ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड’ से सम्मानित किया गया। फिल्म ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के लिए 1985 में ‘सर्वोत्तम अभिनेता’ तथा 1994 में ‘मुहाफिज’ के लिए स्पेशल ज्यूरी से भी पुरस्कृत हुए। उनकी बनायी फिल्म ‘जुनून’ को 1979 की ‘सर्वोत्तम फिल्म’ के रूप में पुरस्कृत किया गया। यह सब उनके किये काम के उचित मूल्यांकन होने व उनके प्रदेय को वाजिब श्रेय देने के सही सुबूत हैं, लेकिन उन्हें कभी यह मुगालता नहीं रहा कि उनकी सारी फिल्में बेहतरीन हैं, बल्कि पता था कि ये फिल्में बहुत अच्छी, अच्छी, ठीकठाक, खराब व बहुत खराब भी रहीं।

शशि कपूर की ज्यादा नामचीन फिल्में हुई बहुनायकों वाली (मल्टीस्टारर) और किसी भी नायक के सामने काम करने से उन्हें कभी गुरेज न रहा (जो कि दिलीप साहेब तक को था), जो इनके आत्मविश्वास का प्रबल प्रमाण है। वक़्त, दीवार, त्रिशूल, नमक हलाल, कभी कभी, रोटी कपड़ा और मकान, शान, सिलसिला, काला पत्थर आदि इसके बेहतरीन उदाहरण हैं। इस रौ में सबसे अच्छा रसायन (केमिस्ट्री) उनका बना अमिताभ बच्चन के साथ, जिनसे उनकी दोस्ती के भी कई रंग व आयाम हैं… यहां सिर्फ इतना कि कभी जयाजी ने अमितजी के साथ बातचीत में बहुत सारा समय ले लेने के लिए शशिजी को मजाक में अपनी सौत भी कह दिया था। लेकिन पर्दे पर नन्दा व शर्मिला जैसी नायिकाओं के साथ काफी सफल रसायन के बावजूद पर्दे के बाहर किसी को लेकर किसी तरह का विवाद तो क्या, उल्लेख तक न हुआ, जोकि इस क्षेत्र में अधिकांश का होता है। इसके कारण को पूरी पृष्ठभूमि के साथ जानना ही कर्म व भाव के प्रति निष्ठा से बने उनके असली व्यक्तित्त्व को जानना होगा।

और वह निहित है उसी थियेटर-कर्म में, जिससे शशिजी ने शुरुआत की थी। डॉनबास्को से दो क्लासें छोड़कर अपने सहपाठी फारुख इंजीनियर के क्रिक्रेट खेलने जाने की तरह रंगकर्म सीखने जाने का उल्लेख भी मिलता है। और अन्य उल्लेखों के अनुसार ‘आवारा’ की लोकप्रियता के नशे ने ही बालक शशि को पढ़ाई से दूर किया। उसने पिता से ‘कैंटीन (डॉन बास्को स्कूल) में बैठकर उनके पैसे न बर्बाद करने की बात कही। वे पढ़ने में अच्छे न थे। हाईस्कूल में फेल होने पर किसी ने कुछ न कहा था। पिता ने अपने थियेटर में 75 रुपये महीने पर नौकरी दे दी थी।

इसी में काम के दौरान उनके जीवन का निर्णायक मोड़ भी आया, जब कलकत्ते में पिताजी के मशहूर नाटक ‘दीवार’ में छोटी सी भूमिका करते किशोर शशिजी की मुलकात जेनिफरजी से हुई, जो अपने पिता जेओफे्र कैंडलर के ‘शेक्सपियराना’ थियेटर की मुख्य अदाकारा थीं और शशिजी से तीन साल बड़ी थीं व उस वक़्त उनका तीनगुना वेतन पाती थीं। मुलाकात जल्दी ही नजदीकियों में बदली एवं दोनो परिणय-सूत्र में बंध गये। ‘पृथ्वी थियेटर्स’ का निर्माण इन्हीं जेनिफरजी की सम्मति और देखरेख में हुआ। कहा जा सकता है कि शशि कपूर का ‘पृथ्वी थियेटर’ न होता, यदि जेनिफरजी न होतीं… उन्होंने शशि कपूर के पूरे जीवन को ऐसे सलीके से संचालित किया कि असमय ही मोटापे से ग्रस्त हो जाने वाले कपूर परिवार में अकेले शशिजी ही उनके रहने तक छरहरे व फिट बने रहे। लेकिन कैंसर से उनके चले जाने (1984) के बाद न अधिक दिन काम कर सके, न तन को संभाल पाये।

लेकिन जिस थियेटर ने जीवन की समझ दी, जीवनसंगिनी दी, अपने सक्रिय दिनों में चाहकर भी वे उसमें काम न कर पाये। कारण के रूप में बताते हुए तबस्सुम के हिट कार्यक्रम ‘फूल खिले हैं गुलशन गुलशन’ में उन्होंने उक्त ढेरों फिल्मों की आमद के बावजूद पैसों की दुर्निवार जरूरत का उल्लेख किया था। तब पता लगाने पर दो वजहें मालूम हुईं। पहली है- पूरे विश्व में अपनी नाट्यमयता के लिए मशहूर ‘पृथ्वी’ जैसा खांटी नाट्यानुकूल थियेटर अकेलेदम बनवाना, जिसमें दोनों बड़े स्टार बड़े भाइयों ने कोई मदद न की। उधर जुहू तट जैसे इलाके में बजाज परिवार से महंगी जमीन खरीदनी पड़ी, क्योंकि पिता के रंगकर्म की यादें वहीं से जुड़ी थीं। और नाटक के लिए नितांत नामाकूल हिन्दी जगत के बीच हिन्दी नाटक करना व चलाना था… तो व्यावसायिक फिल्में करते रहना उनकी विवशता थी। लेकिन यह कितनी बड़ी सरोकार चेतना और प्रतिबद्धता की बात है। दूसरी वजह रही फिल्मों के निर्माण की, जो पुन: ऐसी ही गहन सरोकार से जुड़ी थी। वे काम चाहे जैसी फिल्मों में करते रहे हों, लेकिन जो फिल्में बनायीं, वे मील की पत्थर साबित हुई हैं- जुनून, विजेता, 36 चौरंगी लेन, अजूबा और उत्सव। उन पर लिखी असीम छाबरा की किताब ‘शशि कपूर : द हाउस होल्ड कस्टम’ के अनुसार इन फिल्मों का घाटा लगभग छह करोड़ था, जिसमें अजूबा के ही साढेÞ तीन करोड़ और उत्सव के डेढ़ करोड़ शामिल हैं। लेकिन जो समझ व प्रतिबद्धता पिता व थियेटर के चलते शशि व जेनिफरजी में आयी थी, उसके लिए ये नुकसान कुबूल थे, पर इन्हें न करके जीना कुबूल न था। और ‘पृथ्वी थियेटर’ तथा ये पांचों फिल्में ऐसे कालजयी कला-कर्म हैं कि आने वाला समय शशि कपूर (व जेनिफर) को इसके लिए याद किये बिना रह न पायेगा- वे पौने दो सौ फिल्में भले भुला दी जाएं।

इसके साथ पिता के उस सेवा-कर्म को भी निभाते रहे शशिजी, जिसमें सैकड़ों विधवाओं के जीवन-यापन के लिए बड़ी रकम सालाना खर्च होती है। सो, ऐसी गजब की दृढ़ता व धैर्य कि इन सारी भावात्मक व सामाजिक प्रतिबद्धताओं को बखूबी निभाते रहे और इतने प्रगतिशील भी कि कपूर खानदान की लड़कियां फिल्मों में काम न करती रहीं, पर बेटी संजना को यह छूट देकर उन्होंने नयी रवायत कायम की। उनका जाना कपूर परिवार की उस पीढ़ी के आखिरी कपूर का जाना भी सिद्ध हुआ है।

79 साल के शशिजी बीमार तो बहुत पहले से थे। मुख्य बीमारी किडनी की थी। रहते इसी ‘पृथ्वी थियेटर’ परिसर के ‘पृथ्वी हाउस’ में थे। और नितांत अशक्त होने के पहले हर शाम नाटक देखने आते थे। उस दौरान नाट्य समीक्षा के चलते मेरी शामें भी प्राय: वहीं बीतती थीं। सो, मुझे याद है, तीसरी घंटी के ठीक पहले सफेद कुर्त्ते-पाजामें में उनका चुपचाप आना और हॉल की गद्देदार सीट के बदले प्रवेश द्वार के ठीक सामने अपने लिए फैला कर रखी गयी एक फोल्डिंग कुर्सी पर बैठ जाना। यह देखते हुए मुझे लगता कि सक्रिय जीवन में चाहकर भी नाटक न कर पाने का अभाव कुछ तो भरा रहा होगा- ‘जो होंठ चुम्बन से महरूम रह गये, गाने लगे’ की मानिन्द। और नाटक पूरा होने या कभी-कभी तबियत के चलते मध्यांतर में ही चुपचाप चले जाते। रुकते, तो मध्यांतर में लोगों के अभिवादन का शालीनता से जवाब देते- नाटक करने वालों को शाबाशी व कभी-कभार हल्की सी सलाह भी- कभी कुछ टिप्पणी भी करते सुने जाते। नाट्य समीक्षा लिखने की मेरी बात पर चुटकी ली थी- हिन्दी में नाट्य-समीक्षा भी होती है!

हाजिरजवाबी व विनोद-प्रियता उनके स्वभाव के अभिन्न अंग रहे। दोनों के एक-एक उदाहरण। वे विनोद में अपने को ‘फ्लूक चाइल्ड’ कहते और समझाते कि दो बडेÞ भाइयों और एक बड़ी बहन (उर्मिला) के बाद मेरी क्या जरूरत थी? तो मां ने सीढ़ियों से गिरने व कुनैन खाने तक के सारे उपाय आजमाये, पर मैं अड़ा रहा। ये अलग बात है कि ये सबके इतने चहेते रहे कि मां-पिता-भाई सभी के लिए इनके अलग-अलग नाम थे और सुन्दरता को सार्थक करता ‘मिस्टर हैंडसम’ तो था ही। और हाजिरजवाबी में ‘मेरे पास मां है’ जैसे लिखे हुए संवाद फिल्मों में ही नहीं थे, मुझे याद है कि तबस्सुम ने जब प्रोग्राम खत्म करने की अदा में अचानक कहा- तो अब मैं धन्यवाद दे दूं? तो तपाक से शशिजी बोल पडेÞ- आप क्यों देंगी? मैं दे देता हूं- धन्यवाद, शुक्रिया, थैंक यू… ऐसा लाजवाब शख़्स भला परदेसी कैसे हो सकता है? वह भले कह गया हो ‘परदेसियों से न अंखियां मिलाना…’ पर ऐसे परदेसी से ‘अंखिया मिलाना’ -मिलाये रहना भला कभी कैसे छूट पायेगा। बारम्बार सलाम परदेसी!