महेंद्र पाण्डेय

हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित इंटरनेशनल सोलर अलायंस समिट को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने कहा था- ‘हम पूरी दुनिया में सौर ऊर्जा की क्रांति लाना चाहते हैं। सोलर एनर्जी मानव सभ्यता के लिए बुनियादी जरूरत है। ऐसे तमाम देश हैं, जहां साल भर सूरज चमकता है, लेकिन संसाधनों की कमी से सोलर एनर्जी नहीं बन पाती। भारत ने सूर्य को जीवन के लिए पोषक माना है। वेदों ने इसे दुनिया की आत्मा करार दिया है। हवा की तरह हर जगह फैली सौर ऊर्जा का हमें इस्तेमाल करना चाहिए।’ इस मौके पर पीएम मोदी ने सोलर टेक्नॉलजी मिशन का आह्वान किया और कहा कि सौर ऊर्जा से विकास को एक नई गति मिलेगी। 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी और फ्रांस के पूर्व प्रेसीडेंट फ्रांस्वा ओलांद द्वारा स्थापित इस संगठन के समिट में 10 देशों के मंत्रियों समेत 121 देशों के प्रतिनिधि हिस्सा ले रहे थे।

पीएम मोदी ने इंटरनेशनल सोलर अलायंस के समिट में जिन ऐक्शन पॉइंट्स की बात की वे इस प्रकार हैं-
4 बेहतर और सस्ती सोलर पॉइंट सबके लिए सुलभ हो।
4 अपनी ऊर्जा जरूरतों में सोलर का अनुपात बढ़ाना होगा।
4 इनोवेशन में इजाफा करना होगा।
4 सोलर प्रॉजेक्टर के लिए वित्त की व्यवस्था करनी होगी।
4 सोलर एनर्जी की जरूरत को विकास की समग्रता से देखें।
4 आईएसए को मजबूत बनाना होगा।
4 सोलर टेक्नॉलजी मिशन शुरू करेंगे; और
4 सौर ऊर्जा को बढ़ाने के लिए टेक्नॉलजी जरूरी है।
स्पष्ट है कि भारत समेत विश्व के सभी देश वर्तमान में अक्षय ऊर्जा को बढ़ावा दे रहे हैं। हमारे देश में भी अक्षय ऊर्जा स्रोतों से वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट विद्युत के उत्पादन का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है। इसमें सौर ऊर्जा का योगदान 100 गीगावाट होगा। वर्तमान में 20 गीगावाट के संयंत्र स्थापित किये जा चुके हैं। देश के कई हिस्सों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा पर आधारित बिजलीघर स्थापित किए जा रहे हैं।
सौर ऊर्जा से जगमगाते शहर
इंग्लैंड की एक संस्था सीडीपी वर्ल्डवाइड ने दुनिया के 570 देशों के ऊर्जा स्रोतों का अध्ययन कर बताया कि इस समय कुल 101 शहरों में ऊर्जा की कुल मांग में से 70 प्रतिशत से अधिक अक्षय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त किया जा रहा है। इसमें भारत का एक भी शहर नहीं है। वर्ष 2015 में ऐसे शहरों की संख्या मात्र 42 थी। इसका मतलब यह है कि 2015 से 2017 के बीच ऐसे शहरों की संख्या दोगुनी से अधिक हो गई। सीडीपी वर्ल्डवाइड की जलवायु परिवर्तन मामलों की निदेशक निकोलेट बार्टलेट के अनुसार शहरों की संख्या से इतना तो पता चलता है कि शहर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किस तेजी से अक्षय ऊर्जा संसाधनों की तरफ भाग रहे हैं और यह एक अच्छी खबर है।
वर्ष 2017 के अंत तक दुनिया में 42 ऐसे शहर थे जिनकी ऊर्जा की पूरी की पूरी मांग अक्षय ऊर्जा से प्राप्त हो रही है। 70 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा वाले 59 शहर और 50 प्रतिशत वाले 22 शहर थे। पूरी तरह अक्षय ऊर्जा पर चलने वाले शहरों में 30 लैटिन अमेरिकी शहर हैं। आॅकलैंड, नैरोबी, ओस्लो और ब्रासिलिया जैसे बड़े शहर भी अक्षय ऊर्जा की तरफ तेजी से बढ़ रहे हैं। अमेरिका में वर्मांट प्रान्त का बर्लिंगटन शहर पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा पर आधारित है। ऐसा करनेवाला अमेरिका का यह एकमात्र शहर है पर एटलांटा और सन डिएगो जैसे शहरों समेत कुल 50 शहरों का लक्ष्य शीघ्र ही पूरी तरह अक्षय ऊर्जा पर निर्भर होने का है। यह इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प लगातार कोयला आधारित बिजलीघरों को बढ़ावा दे रहे हैं और वे जलवायु परिवर्तन के सिद्धांत के प्रबल विरोधी हैं।
ब्रिटेन में वर्ष 2050 तक 84 शहरों को अक्षय ऊर्जा से चलाने का लक्ष्य है। आइसलैंड की राजधानी रिक्जेविक अभी पूरी तरह से अक्षय ऊर्जा पर निर्भर है और वर्ष 2040 तक वहां सभी वाहन भी जीवाष्म र्इंधनों से मुक्त होंगे। जुलाई 2017 तक यूरोप के देश 1.7 अरब डॉलर का निवेश अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर कर चुके थे। लैटिन अमेरिकी शहरों ने इसके लिए 18.3 करोड़ डॉलर का निवेश किया और अफ्रीकी शहरों ने 23.6 करोड़ डॉलर का।
ब्राजील ने अक्षय ऊर्जा को बहुत तेजी से अपनाया है और वहां के 46 छोटे-बड़े शहरों में ऊर्जा की कुल खपत का 70 प्रतिशत या अधिक हिस्सा ऐसे ही स्रोतों से आता है। पुर्तगाल और कनाडा में से प्रत्येक में 5 शहर; अमेरिका, स्विट्जरलैंड और कोलंबिया में से प्रत्येक में 4 शहर; केन्या, नार्वे, न्यूजीलैंड और इटली में से प्रत्येक में 3 इस प्रकार के शहर हैं। आइसलैंड और कैमरून में 2-2 शहर अक्षय ऊर्जा से जगमग हैं।
जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभावों को देखते हुए अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर दुनियाभर में तेजी से काम किया जा रहा है। अक्षय ऊर्जा के स्रोत सूर्य, हवा, जैविक र्इंधन और पानी हैं। इनसे जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन डाईआॅक्साइड गैस का उत्सर्जन बहुत कम होता है। अब तो अनेक शहर शून्य-कार्बन की दिशा में काम कर रहे हैं।

सौर ऊर्जा के पर्यावरणीय प्रभाव
सौर ऊर्जा की तारीफ ही की जाती है और इसके चलते पर्यावरण पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों को हमेशा ही नजरअंदाज किया जाता है। तमिलनाडु के रामनाथापुरम जिले में किसानों ने कुछ महीने पहले पानी की समस्या को लेकर आन्दोलन किया था। यहां के किसान दिल्ली में भी लम्बे समय तक आपनी मांगों को लेकर आन्दोलन करते रहे थे। पानी की समस्या इन मांगों में एक थी। देश के अधिकतर हिस्सों में पानी की कमी है। तमिलनाडु के रामनाथापुरम जिले में पानी की कमी का कारण वहां बड़ी संख्या में सौर पैनल स्थापित हैं। एक स्थान पर ही दो लाख 50 हजार सौर मॉड्यूल स्थापित हैं जिन्हें साफ करने के लिए प्रतिदिन दो लाख लीटर पानी की जरूरत होती है। यह पानी बोरवेल के जरिये निकला जाता है। किसानों के अनुसार, प्रतिदिन इतनी बड़ी मात्रा में पानी निकालने से भूजल का स्तर नीचे जा रहा है और सिंचाई के लिए पानी नहीं मिल पा रहा है।
सोलर मॉड्यूल पर धूल की परत जमने लगती है, जिससे इसकी दक्षता में 25 से 50 प्रतिशत तक कमी आने लगती है। अपने देश के अधिकतर क्षेत्रों में धूल की समस्या गंभीर है। आईआईटी गांधीनगर में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि मॉड्यूल पर एकत्रित होने वाले कुल पदार्थों में 92 प्रतिशत धूल और शेष 8 प्रतिशत कार्बन और मानव-निर्मित आयन होते हैं। मॉड्यूल को कपड़े या इस तरह की दूसरी चीजों से साफ करने पर इसकी सतह पर असर पड़ता हैं और इन्हें क्षति पहुंचती है। इसीलिए इन्हें पानी से साफ करने की सलाह दी जाती है। अध्ययन में पाया गया कि पानी से साफ करने के बाद मॉड्यूल की दक्षता 50 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
वर्तमान में पूरा ध्यान सौर मॉड्यूल को स्थापित करने पर है और इन समस्याओं की तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। पानी की समस्या से सबसे अधिक किसान ही प्रभावित हो रहे हैं और बड़े सौर बिजली घर भी ग्रामीण इलाकों में ही स्थापित किए जा रहे हैं। किसानों की समस्याओं पर कोई भी सरकार ध्यान नहीं दे रही है, पर अब किसान भी आन्दोलन की राह पर हैं। इसीलिए संभव है कि भविष्य में अनेक राज्यों में बड़े सौर बिजली घरों के विरुद्ध किसान एकजुट होकर आन्दोलन करें।

अक्षय ऊर्जा का दौर
जीवाष्म र्इंधनों के इस दौर में पेट्रोलियम उत्पादक देश प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर दुनिया की शक्ति का केंद्र हैं। सभी शक्तिशाली देश इन केंद्रों पर नियंत्रण रखना चाहते हैं और यही नियंत्रण का प्रयास इन देशों को शांति से नहीं रहने देता। ईरान, इराक, लीबिया, कुवैत, वेनेजुएला, अल्जीरिया और नाइजीरिया जैसे देश हमेशा गृहयुद्ध या फिर विदेशी आक्रमण की चपेट में रहते हैं। पर, अब यह माना जाने लगा है कि पेट्रोलियम पदार्थों की अवनति का दौर शुरू हो चुका है और अक्षय ऊर्जा या गैर-परंपरागत ऊर्जा संसाधनों का दौर शुरू हो चुका है।
बीसवीं सदी में ऊर्जा का मतलब कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस था, पर अब अक्षय ऊर्जा संसाधनों का दौर है और इनके लिए आवश्यक संसाधनों की मांग तेजी से बढ़ रही है। सौर ऊर्जा में सिलिकॉन टेक्नोलॉजी का व्यापक उपयोग किया जा रहा है। इसके लिए रॉक क्वार्त्जाइट की जरूरत होती है। बिजली वाले वाहनों की बैटरी के लिए लिथियम की जरूरत है। पवन टरबाइन जेनरेटर के चुम्बक के लिए नियोडामियम जैसी दुर्लभ मृदा धातुओं की और पवन ऊर्जा के संयंत्र में व्यापक तौर पर तांबा की जरूरत पड़ती है।
रॉक क्वार्त्जाइट के सबसे बड़े भंडार चीन, अमेरिका और रूस में हैं। ब्राजील और नार्वे में भी रॉक क्वार्त्जाइट मिलता है। अमेरिका और चीन में तांबे के भंडारों का व्यापक दोहन किया जा रहा है, पर इसका खनन चिली, पेरू, कांगो और इंडोनेशिया में भी किया जा रहा है। लिथियम के सबसे बड़े भंडार चिली में हैं, पर चीन, आॅस्ट्रेलिया और अर्जेंटीना में भी यह उपलब्ध है। बोलीविया और अमेरिका में निम्न गुणवत्ता का लिथियम उपलब्ध है। दुर्लभ मृदा धातुओं के भंडार चीन, रूस, ब्राजील और वियतनाम में हैं।
वर्तमान में जीवाष्म र्इंधनों के उत्पादक देशों में अमेरिका, चीन, रूस और कनाडा ऐसे देश हैं जो बिना किसी परेशानी के इन र्इंधनों के बदले अक्षय ऊर्जा का आसानी से उपयोग कर सकते हैं। यह एक अजीब संयोग ही है कि अमेरिका की वर्तमान सरकार सारे संसाधन के बाद भी ऐसे किसी भी परिवर्तन का प्रबल विरोध कर रही है। दूसरी तरफ अनेक देशों का महत्व ऐसे संसाधनों के कारण भविष्य में बढ़ जाएगा।
आॅर्गनाइजेशन आॅफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कन्ट्रीज (ओपेक) 14 देशों का संगठन है जिसके सदस्य विश्व में खर्च होने वाले कुल पेट्रोलियम पदार्थों में से 47 प्रतिशत का उत्पादन करते हैं और इसके 75 प्रतिशत भंडार के मालिक हैं। इसकी स्थापना 1960 में बगदाद में की गई थी और उस समय ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब और वेनेजुएला, ये पांच सदस्य थे। अब इन देशों के साथ-साथ अल्जीरिया, अंगोला, इक्वेडोर, लीबिया, नाइजीरिया, कतर और संयुक्त अरब अमीरात भी सदस्य हैं। ओपेक का मुख्यालय विएना में है और इसके पूरे तेल उत्पादन में से दो-तिहाई मध्य-पूर्व के देशों में होता है। भविष्य में संभव है, ओपेक का महत्व कम हो जाए और इसी की तर्ज पर अक्षय ऊर्जा स्रोतों के संसाधनों वाले देशों का एक नया शक्तिशाली संगठन बन जाए। फिर मध्य-पूर्व जैसा महत्व संभवत: केंद्रीय अफ्रीका और दक्षिण अमेरिकी देशों का हो जाए।
लेकिन यह सब शांतिपूर्ण तरीके से होगा इसमें संदेह है। तेल के भंडार पर नियंत्रण करने को लेकर बीसवीं सदी में प्राय: झगड़े, युद्ध और द्वंद्व होते आए हैं। अक्षय ऊर्जा संसाधनों का नियंत्रण भी ऐसी ही स्थिति पैदा कर सकता है। अमीर देश हमेशा इन देशों को अपने नियंत्रण में रखना चाहेंगे, जिससे इन साधनों तक उनकी पहुंच लगातार बनी रहे। चीन ने इस दिशा में पिछले दशक से ही तैयारी शुरू कर दी है। पिछले दशक में चीन ने अफ्रीका की खदानों में भारी-भरकम निवेश किया था और अब इसी तरह का निवेश पेरू और चिली जैसे दक्षिण अमेरिकी देशों में कर रहा है। कुछ आर्थिक विशेषज्ञ इसे आर्थिक उपनिवेश की नीति बताते हैं।
इन सबके बाद भी पेट्रोलियम पदार्थों और अक्षय ऊर्जा में एक बड़ा अंतर है। पेट्रोलियम पदार्थों की लगातार जरूरत पड़ती है जबकि अक्षय ऊर्जा सूर्य या हवा जैसे संसाधनों पर निर्भर है। बाहर के संसाधनों की जरूरत इसका ढांचा तैयार करने के लिए होती है और एक बार ढांचा तैयार होने पर लंबे समय तक इन पदार्थों की जरूरत नहीं पड़ती। वाहनों की अपेक्षाकृत कम आयु के कारण लिथियम की मांग लगातार होगी पर पुनर्चक्रण से इसे उपयोग में लेने पर इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। कुछ भी हो, इतना तो तय है कि भविष्य में बहुत कुछ बदलने वाला है और इसके लिए तापमान बृद्धि काफी हद तक जिम्मेदार है।