लोकतंत्र का महापर्व जारी है, सियासत दां गला फाडक़र आम जन के लिए ‘दरियादिली’ की नुमाइश कर रहे हैं. हर तरफ नित नए ऐलान देखकर जनता भौचक है. लेकिन, किसानों-कामगारों का दर्द अभी तक तारी है, किसी ने उनके जख्मों पर मरहम लगाने की जहमत नहीं उठाई. सवाल सिर्फ यही है कि अगले पांच सालों के लिए देश का अगुवा तय करने वाले आम चुनाव 2019 में वे किसान-कामगार आखिर किस मुकाम पर हैं, जो इस धरती को अपने खून-पसीने से सींचते हैं?
देश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों यानी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र देखिए, किसी में भी किसानों को राहत पहुंचाने वाला कोई ऐलान नहीं है. भाजपा के ‘संकल्पित भारत-सशक्त भारत’ में सिर्फ इतना कहा गया है कि किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये लिया गया एक लाख रुपये तक का कर्ज ब्याज मुक्त रहेगा और सभी किसानों को ‘पीएम किसान सम्मान निधि’ के तहत सालाना छह हजार रुपये की आर्थिक सहायता मिलेगी. कांग्रेस ने ‘हम निभाएंगे’ शीर्षक तले जारी अपने घोषणा पत्र में कहा है कि वह अलग से किसान बजट लाएगी और बैंक का कर्ज न चुका पाने की स्थिति में आपराधिक सजा खत्म करेगी, मामला सिर्फ दीवानी के रूप में दर्ज होगा. दोनों दलों के घोषणा पत्रों में खेतिहर मजदूरों एवं असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बारे में एक भी शब्द अंकित नहीं है. यानी उन्हें उनकी किस्मत के भरोसे छोड़ दिया गया है.
सडक़ पर उतरने की मजबूरी
यह विडंबना नहीं, तो और क्या है कि जिस देश ने अपने खेत-खलिहानों, गांव-किसानों के बलबूते पूरी दुनिया में पहचान-प्रतिष्ठा हासिल की, उसी धरती पर अन्नदाता यानी किसान को अपने पसीने का मोल पाने और हुक्मरानों को उनकी कुंभकर्णी नींद से जगाने के लिए संसद के रास्तों की पैमाइश करनी पड़ती है. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली पिछले साल तीन किसान मार्च-रैलियों की गवाह बनी, पांच सितंबर, दो अक्टूबर और फिर 29-30 नवंबर. लेकिन अफसोस, केंद्र सरकार का कोई नुमाइंदा किसानों की खोज-खबर लेने के लिए सामने नहीं आया. अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के प्रदर्शन के दौरान बुंदेलखंड से आए सामाजिक कार्यकर्ता आशीष सागर ने दो टूक टिप्पणी की थी, सरकार ने अगर अपना रवैया समय रहते नहीं बदला, तो हम उसे सबक सिखा देंगे. किसान शिव नारायण सिंह का कहना था, सरकार हमें हल्के में लेना छोड़ दे, यही उसके लिए हितकर रहेगा. साल 2018 की शुरुआत से लेकर अब तक देश के विभिन्न हिस्सों में कई किसान आंदोलन हो चुके हैं. महाराष्ट्र के किसानों ने नासिक से मुंबई तक रैली के जरिये अपना दर्द बयां किया, तो तमिलनाडु, तेलंगाना एवं कर्नाटक के किसानों का आंदोलन भी खासा चर्चित रहा. जून २०१८ में ‘गांव बंद’ आंदोलन के जरिये किसानों ने अपनी समस्याओं के प्रति सरकार का ध्यान आकर्षित किया था. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों में कर्ज माफी और उपज के उचित मूल्य की मांग को लेकर किसानों ने शहरों को दूध, साग-सब्जियों की आपूर्ति बंद कर दी थी. उन्होंने हजारों लीटर दूध, बड़े पैमाने पर साग-सब्जियां सडक़ पर फेंक कर अपनी उपेक्षा के विरोध में आक्रोश जताया था. नतीजतन, आम लोग दूध, साग-सब्जी के लिए तरस गए और उन्हें मनमाने दाम देने पड़े. कहीं-कहीं तो आलम यह रहा कि पुलिस को अपनी निगरानी में साग-सब्जी बिकवानी पड़ी. यही हाल दिल्ली में भी देखने को मिला था. आंकड़े गवाह हैं कि पिछले एक दशक के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में फसल की बर्बादी और कर्ज से तंग आकर बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या कर ली. जून 2017 में मध्य प्रदेश के मंदसौर में सत्ता मद में बौराई तत्कालीन राज्य सरकार ने किसानों पर गोलियां चलवा दीं, नतीजतन छह किसान मारे गए थे.
राजस्थान के नागौर में एक रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की बदहाली का ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हुए कहा था, अगर सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते, तो किसान बहुत सुखी होते. बकौल मोदी, स्वामीनाथन आयोग ने दस साल पहले तत्कालीन यूपीए सरकार को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अगर लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य-एमएसपी मिलेगा, तो किसानों को मुसीबतों से छुटकारा मिल जाएगा और यह काम हमने किया है. सवाल यह है कि अगर ऐसा वास्तव में हुआ होता, तो कोई किसान अपने टमाटर, आलू, प्याज अथवा अन्य उपज को सडक़ों-फुटपाथों पर फेंकता क्यों? बिहार का भूमिहीन किसान सालाना नकदी किराये पर खेत लेकर फूलगोभी उगाने के बाद उसे दो रुपये प्रति की दर से बेचने को मजबूर क्यों हुआ? महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले की रहाटा तहसील अंतर्गत सकूरी गांव निवासी किसान राजेंद्र बावाके ने दो एकड़ जमीन में बैंगन बोए. सिंचाई, बीज, खाद एवं कीटनाशक आदि पर खर्च आया तकरीबन दो लाख रुपये, मेहनत अलग से. जब फसल तैयार हुई, तो उसके दो-तिहाई हिस्से के बदले हाथ लगे सिर्फ 65 हजार रुपये. बैंगन बिका 20 पैसे प्रति किलोग्राम. निराश राजेंद्र ने शेष एक तिहाई फसल खेत में ही अपने हाथों से नष्ट कर दी. नासिक की निफाड तहसील निवासी किसान संजय सेठ ने 1,064 रुपये की धनराशि प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष को दान स्वरूप भेजी. उक्त रकम उन्हें साढ़े सात कुंतल प्याज बेचने के एवज में मिली थी. बकौल संजय, फसल जब तैयार हुई, तो उन्हें एक रुपये प्रति किलोग्राम की दर से सौदे का प्रस्ताव मिला. मोलभाव के बाद किसी तरह एक रुपये चालीस पैसे प्रति किलोग्राम की दर से प्याज बिका. चार माह की मेहनत का यह नतीजा देखने के बाद उन्होंने तय किया कि इस रकम की सही जगह प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष है.
गौरतलब है कि संजय सेठ देश के प्रगतिशील किसानों में शुमार हैं और उन्हें साल 2010 में भारत दौरे पर आए तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिलने का मौका मिला था. उत्तर प्रदेश में कुछ किसानों ने कोल्ड स्टोरेज से अपने आलू इस गरज से निकाले कि बाजार में अब उनकी सही कीमत मिलेगी, कोल्ड स्टोरेज का बकाया अदा करने के बाद कुछ रकम उनके हाथ में बच जाएगी. लेकिन, हुआ यह कि बाजार पहुंचने पर आलू के जो दाम लगे, उससे ज्यादा कोल्ड स्टोरेज का बकाया था. नतीजतन, किसान अपने आलू लेकर बैरंग लौट पड़े और उन्हें रास्ते में बिखेरते चले गए. नरेंद्र दामोदर भाई मोदी का एमएसपी यहां पर मौन दिखा. किसानों के बीच से एक अहम सवाल यह भी उठा कि उनके पसीने की कीमत कोई और क्यों तय करे, यह हक उन्हें मिलना चाहिए. एक युवा किसान का कहना था, कार निर्माता कंपनी अपने उत्पाद का दाम खुद तय करती है, टेलीविजन निर्माता कंपनी हो या मोबाइल निर्माता कंपनी, सब अपनी बनाई चीजों के दाम खुद तय करती हैं. होटल-ढाबे वाले भोजन का रेट खुद तय करते हैं, चाय-नाश्ते वाले और हलवाई अपने माल का दाम खुद तय करते हैं, वकील-डॉक्टर-स्कूल अपनी फीस खुद तय करते हैं, तो हमारी उपज का दाम सरकार किस हक से तय करती है? मत दीजिए सब्सिडी, मत माफ करिए कर्ज, सिर्फ यह तय करने का हक दे दीजिए कि हम अपने पसीने की क्या कीमत लगाएं. हम मेहनतकश हैं, भिखारी नहीं. उस अद्र्धशिक्षित युवा किसान के तर्क गौर करने लायक थे, लेकिन नक्कारखाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है!
असंगठित क्षेत्र का दर्द
दिहाड़ी मजदूर हों या छोटी निजी कंपनियों के अनियमित कर्मचारी, रिक्शा-ऑटो चालक हों या फुटपाथ पर रेहड़ी लगाने वाले छोटे दुकानदार, बेकारी से ज्यादा बेगारी भुगतने को मजबूर हैं, लेकिन उनकी तरफ किसी का भी ध्यान नहीं जाता. छोटी निजी कंपनियों में ठेकेदारों का बोलबाला है, तो दिहाड़ी मजदूर नित नए मालिक की रहमत के तलबगार बनते हैं. रिक्शा-ऑटो चालक और रेहड़ी दुकानदार सवारी-खरीदारों के साथ-साथ पुलिस एवं इलाकाई असमाजिक तत्वों का कहर झेलते हैं. देश के किसी भी हिस्से पर नजर डालिए, बेरोजगारों की फौज स्थानीय बाजारों में छह-सात हजार रुपये मासिक वेतन पर अपना हाड़ गलाने को मजबूर है. छोटी निजी कंपनियों ने अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए आउटसोर्सिंग-ठेकेदारों को अहमियत दे रखी है. वे अपने स्तर पर कर्मचारियों को नियुक्त करने से परहेज करती हैं. ठेकेदार अपने द्वारा भेजे गए कर्मचारियों की सेवाओं के बदले ऐसी कंपनियों से भुगतान कुछ लेते हैं, लेकिन कर्मचारियों को देते कुछ और हैं. यानी असंगठित कामगारों की कमाई का एक मोटा हिस्सा वे बतौर कमीशन डकार जाते हैं. कामगार करे भी तो क्या करे, वह इसे ही अपनी नियति मानकर चुप्पी साधे हुए है, क्योंकि उसकी सुध न तो सरकार लेती है और न कोई राजनीतिक दल.
जिम्मेदार कौन
किसानों-कामगारों का गुनहगार कोई एक हुक्मरां अथवा सरकार हरगिज नहीं है. सात दशकों की ‘रहनुमाई’ इस अपराध में बराबर की भागीदार है. देश में पिछड़ों, दलितों, अल्पसंख्यकों एवं महिलाओं की समस्याएं देखने-सुनने के लिए अलग-अलग आयोग हैं, लेकिन कृषि क्षेत्र से संबद्ध सत्तर फीसद आबादी के लिए आज तक कोई आयोग गठित नहीं हुआ. श्रम कानूनों का धड़ल्ले से मखौल उड़ता है, न्यूनतम मजदूरी के सरकारी ऐलान की अवहेलना होती है, लेकिन किसी को इसकी परवाह कभी नहीं रही. किसानों-कामगारों के लिए किसी ने सटीक कहा है, धूल है धूप है पसीना है, जिंदगी जेठ का महीना है.