उमेश सिंह

तुलसी और जायसी आज उदास होंगे। अवध के इन दोनों शब्द वंशियों ने अवधी बोली बानी को जन जन में पद प्रतिष्ठा दी। उसे कंठावास जैसी उच्चस्थिति दी। जायसी और तुलसी की प्रिय अवधी में बनी पहली फिल्म ‘फैंटास्टिक दुल्हनिया’ को वितरक तक नहीं मिल रहे हैं। यह फिल्म 23 फरवरी को देश के एकमात्र सिनेमाघर फैजाबाद के पैराडाइज में रिलीज हुई है। फिल्म रिलीज करने के लिए फिल्म निर्माता को पचास हजार रुपये खुद खर्च कर हॉल बुक कराना पड़ा। अवधी के आराधकों-साधकों और बोलने वालों के लिए यह बेहद चिंता का विषय है। भाषा और बोली कंठ में, स्मृति मे, संवाद और संस्कृति में जीवित रहती है। कहीं यह भाषाओं और बोलियों के अकाल मृत्यु का समय तो नहीं है!

संत तुलसीदास की रामचरितमानस लोकप्रियता के शिखर पर है। रामचरितमानस तकरीबन हर हिंदू घर में धार्मिक पुस्तक के रूप में मौजूद है। चौपाई और दोहा लोगों की स्मृति में है, संवाद में है और संस्कृति में है। यानी कि अवधी की लोकप्रियता से इनकार नहीं कर सकते हैं। फिर भी अवधी में बनी पहली फिल्म के लिए निर्माता राजन पांडेय मुंबई और दिल्ली का चक्कर काटते रह गए और अंतत: उन्हें माया नगरी से खाली हाथ ही फैजाबाद वापस लौटना पड़ा।

फैजाबाद के समाजसेवी राजन पांडेय ने अवधी से सम्मोहित हो फैंटास्टिक दुल्हनिया फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म में स्थानीय कलाकारों के साथ बाहर के आर्टिस्ट भी हैं। फिल्मांकन फैजाबाद जिले में ही हुआ है। फिल्म के दृश्य में रामदेव आश्रम है, अयोध्या है, कुमारगंज है, मां कामाख्या भवानी है, सरयू की धारा है। गांव में जब शहर की संस्कृति पहुंचती है तो गांव का मानस किन परिवर्तनों से गुजरता है, इसका चित्र भी बड़ी गहराई से उकेरा गया है। ग्राम और शहर की संस्कृति में संघर्ष दिखाया गया है। एमबीबीएस की डिग्री हासिल कर नायिका स्वाति अग्रवाल यानी स्वीटी जब आधुनिक ‘शरीर दर्शना’ पोशाक में गांव में पहुंचती है तो गांववासी अचंभित निगाहों से उसे देखते हैं। फिलहाल नगर-ग्राम संस्कृति के द्वंद्व से झूलती हुई यह फिल्म आगे बढ़ती जाती है, और अंतत: नगरीय संस्कृति स्वीकार कर ली जाती है। फिल्म में हास्य व्यंग्य भी जोरदार है। अवध का खानपान, लोक व्यवहार, भूमि भवन, बोली-बानी, मुहावरा लोकोक्तियां सभी की अभिव्यक्ति हुई है। देशज संस्कृति का ठाठ के साथ पाठ हुआ है।

फिल्म में कुल नौ गीत हैं जिसमें ‘कजरवा मारे मोला जान हो’ को उदित नारायण जैसे गायक ने स्वर दिया है। एक कव्वाली ‘शाम-ए-अवध का नजारा’ भी है। फिल्म के नायक दिवाकर द्विवेदी के स्वर में ‘जब से हुआ हमको तुमसे प्यार बा, तब से सिर पर सनीचर सवार है’ गीत ज्यादा मजेदार है। अवध का फरुवाही नृत्य राष्ट्रीय महत्व का है। इसे बोलचाल की भाषा में अहिरवा नाच भी कहते हैं। यह नृत्य भी है जिसमें ‘सैयां लाया मोर गवनवा’ गीत चलता है।

फिल्म निर्माता राजन पांडेय ने कहा, ‘मन में साध थी कि अवधी में फिल्म बनाऊं। एक वर्ष में यह फिल्म बनकर पूरी हुई है। अवधी को करोड़ों लोग बोलते हैं। देश के तकरीबन ज्यादातर हिस्सों में अवध क्षेत्र के लोग रहते हैं। फिल्म निर्माण में डेढ़ करोड़ खर्च हो गए। मुंबई दिल्ली दौड़ता रह गया, कोई भी वितरक नहीं मिला। मुंबई से खाली हाथ वापस होना पड़ा है। फिल्म फैजाबाद के पैराडाइज में 23 फरवरी को फिल्म रिलीज कराई। पचास हजार रुपये एडवांस देकर हॉल बुक कराया। यदि दर्शक नहीं आएंगे तो वह भी अपने ही जेब से जाएगा। रिलीजिंग के मौके पर सिर्फ स्थानीय कलाकार ही शामिल हुए। बाहर के कलाकारों को नहीं बुलाया।’

फिल्म के सह निर्माता अंकित पांडेय ने कहा, ‘एक घंटा 42 मिनट की फिल्म है। हमें उम्मीद है कि फिल्म हिट होगी। लोग देखने आएंगे।’ कलाकार विवेक पांडेय ने कहा, ‘रिलीज से पहले फिल्म से जुड़े हम लोग प्रिया लाल और बलवीर आदि कलाकार पीलीभीत महोत्सव में गए थे। वहां पर प्रचार प्रसार किया। हमें भरोसा है कि फिल्म चलेगी।’ फिल्म के अभिनेता और गायक दिवाकर दिवाकर द्विवेदी ने कहा, ‘हम कलाकारों ने अपनी ओर से भरपूर कोशिश की, हमने अपनी भूमिका अदा कर दी है… अब तो देखना है कि आगे क्या होता है।’

भारत भूषण, फिराक गोरखपुरी व केदारनाथ सम्मान से अलंकृत कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने कहते हैं, ‘ आजादी के बाद से ढाई सौ भाषाएं खत्म हो गई हैं। अवधी हम लोगों की मातृभाषा है। भाषाएं और बोलियां कंठ में, स्मृति में ,संवाद में और संस्कृति में जीवित रहती हैं। तुलसी जायसी और पढ़ीस अवधी के महान कवि हैं। भोजपुरी के नाम पर अब बन रही फिल्मों में वह संस्कृति नहीं है, जो भोजपुरी क्षेत्र की धड़कन है। पहले रहती थी, इसीलिए ‘नदिया के पार’ जैसी फिल्में हिट हो गर्इं। अवधी में बनी फिल्म के बारे मे अभी तो हमें पता नहीं है कि यह फिल्म कैसी है, लेकिन जिस ढंग से अब फिल्में बन रही हैं उनमें ज्यादातर में अश्लीलता और भदेसपन रहता है। सलीकेपन में सौंदर्य होता है और वह सलीका ही अब गायब हो गया है।’

आचार्य विश्वनाथ पाठक शोध संस्थान के निदेशक साहित्यकार डॉ. विन्ध्यमणि ने कहा, ‘अवधी भोजपुरी के उन्नयन की कोशिश नहीं की गई। सत्ता और सरकारें संरक्षण नहीं दे रही हैं। अवधी में बनी फिल्म को वितरक नहीं मिलना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।’ भारत भूषण सम्मान से अलंकृत कवि अनिल कुमार सिंह ने बताया, ‘ फिल्मों के नाम पर जिस ढंग से चीजें परोसी जा रही हैं वह स्थानीय संस्कृति, लोक व्यवहार और उनकी बोली-बानी के अनुरूप नहीं है। इसीलिए स्थानीय भाषा और बोली की फिल्में उतना हिट नहीं हो पा रही हैं जैसा कि पहले के जमाने में हिट होती थीं। नदिया के पार और गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ाइबै आदि फिल्मों ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे। मोतीलाल बीए के गीतों को कोई कैसे भूल सकता है। दर्शकों ने इन फिल्मों को अपने सिर माथे पर लिया था क्योंकि दर्शकों के भावों की उसमें अभिव्यक्ति हुई थी।’ काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के शिक्षक डॉक्टर प्रभाकर सिंह ने कहा, ‘ग्लोबल हो रहे देश में स्थानीय संस्कृति की जो महान परंपराएं हैं ,वे मिट रही हैैं, सिमट सी रही हैं। चाहे वह भाषा हो, बोली हो, खानपान हो, रीति रिवाज हो। अवधी में बनी फिल्म को रिलीज करने के लिए निर्माता का खुद हाल बुकिंग कराना बेहद अफसोसजनक है।’