सुनील वर्मा

फरवरी में जब संसद का बजट सत्र शुरू होगा तब पहली बार ऐसा होगा कि बतौर सदस्‍य आम आदमी पार्टी के भी तीन चेहरे संजय सिंह, सुशील गुप्‍ता और एनडी गुप्‍ता राज्‍यसभा में दिखेंगे। सियासी पटल पर आम आदमी पार्टी का ये विस्‍तार उसकी बड़ी उपलब्धि है लेकिन इसके बावजूद पार्टी में ऐसी हताशा और मायूसी दिखाई दे रही है जिसे तूफान से पहले की शांति कहें तो गलत न होगा। आम आदमी पार्टी के तीन उम्मीदवारों के राज्यसभा के लिए निर्विरोध चुने जाने के बावजूद पार्टी के भीतर और बाहर खुशी का इजहार कम और उन विवादों पर चर्चा ज्‍यादा हो रही है कि पार्टी सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किस तरह अपने ही बनाए सिद्धांतों को नजर अंदाज कर ऐसे लोगों को राज्‍यसभा में भेज दिया जिनका पार्टी की स्‍थापना से लेकर उसे आगे बढ़ाने में कोई योगदान नहीं रहा।

पंजाब के बाद अब यूपी के प्रभारी और पार्टी के संस्‍थापक सदस्‍यों में से एक वरिष्ठ नेता संजय सिंह को छोड़ दें तो चार्टर्ड अकाउंटेंट नारायण दास गुप्ता और कारोबारी सुशील गुप्ता को लेकर पार्टी के ज्‍यादातर नेता न तो खुश दिख रहे हैं और न ही खुलकर विरोध कर रहे हैं। पत्रकार से नेता बने और पार्टी के दिल्ली संयोजक रहे आशुतोष के चेहरे से नाराजगी तो झलकती है लेकिन जब उनसे संपर्क कर प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने कहा, ‘ये पीएसी का फैसला है और सभी की सहमति से लिया गया है। लिहाजा किसी के विरोध या नाराजगी का सवाल कहां से पैदा होता है।’ लेकिन पीएसी की बैठक में जिस दिन ये फैसला लिया गया था उस बैठक के खत्‍म होने के बाद ज्‍यादातर नेताओं के चेहरे पर दुख और असंतोष के भाव थे और वे मीडिया से बातचीत किए बिना ही चले गए थे। मगर उनका वो दर्द किसी से छिप नहीं पाया। ऐसा लगता है कि पीएसी की यह बैठक सिर्फ रस्‍म अदायगी थी क्‍योंकि पार्टी के ही भीतरी लोगों का कहना है कि सुशील गुप्‍ता और एनडी गुप्‍ता को राज्‍यसभा में भेजने का फैसला तो पार्टी प्रमुख केजरीवाल ने बहुत पहले ले लिया था। नामांकन के साथ दिया जाने वाला स्‍वघोषित संपत्तियों और अपराधिक जानकारी का हलफनामा तो एक महीना पहले ही पार्टी दफ्तर में जमा हो चुका था। यानी सब कुछ पहले से तय था।
सवाल उठ सकता है कि आम आदमी पार्टी अन्‍य राजनीतिक दलों की तरह अपने उपलब्‍ध कोटे से किसी को भी राज्‍यसभा में भेजे, इस पर विरोधी दलों या मीडिया को ऐतराज क्‍यों होना चाहिए? इसका जवाब यह है कि आप वैकल्पिक राजनीति का वो चेहरा बनकर सत्‍ता में आई थी जिसके मूल में सिर्फ जनता का सरोकार और सामान्‍य आदमी था। लेकिन न तो अब आप की सरकार के कामकाज में जनता का सरोकार दिख रहा है और न ही सरकार के वजूद में आम आदमी। आप के अन्‍य पार्टियों से अलहदा होने का जो मिथक बना था वह गुप्‍ता द्वय के राज्‍यसभा में भेजे जाने से पूरी तरह टूट चुका है। इसलिए चौतरफा सवाल उठने लाजिमी हैं।

पार्टी का तर्क
पार्टी में केजरीवाल के बाद नंबर टू की हैसियत रखने वाले डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया ने इस फैसले पर पार्टी की तरफ से तर्क देते हुए कहा कि पार्टी ने किसी नेता की बजाय क्षेत्र के विशेषज्ञ को ही राज्यसभा में भेजने का फैसला किया था। सुशील गुप्‍ता की शैक्षणिक संसथाओं का हरियाणा में मजबूत नेटवर्क है। हरियाणा के 14 जिलों में उनकी संस्थाएं काम कर रही हैं। उनका कोई आपराधिक रिकॉर्ड भी नहीं है। ऐसे में हरियाणा के लिए पार्टी ने इस नाम को बेहतर माना। इसके अलावा हरियाणा के 15 फीसदी वैश्य समुदाय में उनकी मजबूत पकड़ है जिससे वैश्‍य समुदाय को आप से जोड़ने में वह मददगार हो सकते हैं। इसीलिए पीएसी में उनके नाम पर सर्वस‍म्‍मति से मुहर लगी। एनडी गुप्‍ता भी चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और इंस्‍टीट्यूट आॅफ चार्र्टर्ड अकाउंटेंट के पूर्व प्रेसीडेंट भी रहे हैं। बकौल सिसौदिया, पार्टी चाहती थी कि राज्‍यसभा में किसी ऐसे विशेषज्ञ को भेजा जाए जो आर्थिक मुद्दे पर पार्टी के विचार दमदार तरीके से रख सके। एनडी गुप्‍ता आम आदमी पार्टी को सलाहकार के तौर पर सहायता देते रहे हैं। इसीलिए उनके नाम को भी पीएसी ने सह‍मति दी। पार्टी की इतनी बड़ी मदद करने वाले को पार्टी अनदेखा नहीं कर सकती थी।

सिसौदिया के तर्कों के उलट पार्टी के एक नेता कहते हैं, आम आदमी पार्टी में राज्यसभा का टिकट पाने लिए जिस तरह की होड़ थी उसे देखते हुए गुटबाजी से बचने के लिए पार्टी ने किसी भी विवादित नाम को लेने की जगह ऐसे दो नाम चुने जिसके पक्ष में भले ही कम लोग हों लेकिन गुटबाजी न हो। कुमार विश्वास के अलावा बाकी आठ नामों आशुतोष, पंकज गुप्ता, आतिशी मरलेना, राघव चड्ढा, दिलीप पांडेय, दीपक वाजपेयी, आशीष तलवार व आशीष खेतान को भी आगे बढ़ाया गया था लेकिन किसी पर भी एकराय नहीं बन सकी। अलबत्‍ता संजय सिंह के नाम पर ज्‍यादा विरोध नहीं हुआ। हालांकि पहले यह कयास लग रहे थे कि संजय सिंह के अलावा कवि कुमार विश्‍वास और मीडिया की अपनी मोटी सैलरी वाली नौकरी छोड़कर आप में आए पूर्व पत्रकार आशुतोष को राज्यसभा में भेजा जा सकता है। लेकिन पीएसी की बैठक में संजय सिंह के अलावा इन दोनों में नामों पर मुहर नहीं लग सकी।

आप के कुबेर होंगे सुशील गुप्‍ता
आम आदमी पार्टी सुशील गुप्‍ता की शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र की उपलब्धि को आधार बनाकर उन्‍हें राज्‍यसभा में भेजने का तर्क दे रही है। सुशील गुप्‍ता के स्‍वामित्‍व में दिल्‍ली और हरियाणा में 14 से ज्‍यादा प्राइमरी, सेकेंड्री और सीनियर सेकेंड्री स्‍कूलों के साथ मैनेजमेंट तथा इंजीनियरिंग की शिक्षा प्रदान करने वाले कॉलेजों में प्रवेश के लिए लाखों रुपये का डोनेशन लिया जाता है। भारी भरकम फीस वसूली जाती है। दिल्‍ली में फीस और डोनेशन के नाम पर लूट करने वाले निजी स्‍कूलों के खिलाफ अभियान चलाने वाली केजरीवाल सरकार अब किस नैतिकता से इस मुहिम को आगे चला पाएगी। अगर कांग्रेस और बीजेपी ये आरोप लगा रहे हैं कि दिल्‍ली व हरियाणा से फंड जुटाने का वायदा लेकर सुशील गुप्‍ता को राज्‍यसभा में भेजा गया है, उन्‍हें टिकट बेचा गया है तो आरोप शायद गलत भी नहीं हैं क्‍योंकि 164 करोड़ रुपये की संपत्ति के मालिक सुशील गुप्‍ता आम आदमी पार्टी के पहले धनकुबेर सांसद होंगे। मगर पार्टी के निष्‍ठावान कार्यकर्ता इस बात को लेकर जरूर हैरान हैं कि 2013 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर आप उम्‍मीदवार के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले सुशील गुप्‍ता वही नेता हैंजिनके नाम से साल 2017 में ही केजरीवाल के खिलाफ भ्रष्‍टाचार और वसूली दिवस के पोस्टर लगाए गए थे।

खड़े होते सवाल
राज्‍यसभा में जिन्‍हें भेजा जाना था वो काम हो चुका है लेकिन इसके बाद जो सवाल खड़े हुए हैं वो काफी ज्‍वलंत हैं और आम आदमी पार्टी के भविष्‍य से भी जुड़े हैं। एक सवाल ये है कि क्या पार्टी ने अपने संस्थापकों में से एक कुमार विश्वास से किनारा करने का फैसला अंतिम रूप से कर लिया है? क्‍योंकि पिछले दो महीनों में राज्‍यसभा भेजने के लिए जिस तरह आप में बाहरी लोगों के नाम पर चर्चा होने की खबरें आती रही उससे कहीं लग नहीं रहा था कि कुमार विश्‍वास के नाम पर पार्टी गंभीरता से कोई विचार कर रही है। कुमार का नाम पूछे जाने पर पार्टी के सभी वरिष्‍ठ नेता चुप्पी साध लेते थे। एक सावल ये भी है कि एक दौर था जब लोकपाल व भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन में भाग लेने के लिए युवाओं ने अपनी लाखों की नौकरी छोड़ दी थी तो अब उसी आंदोलन से निकली पार्टी में कौन सी खामियां आ गई कि रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी, गोपाल सुब्रमण्यम और पूर्व चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर समेत 18 बड़ी हस्तियों को चांदी की थाली में परोसकर राज्‍यसभा की सदस्‍यता पेश की गई लेकिन सभी ने इसे ठुकरा दिया। सवाल है कि आम आदमी पार्टी की छवि क्‍या जनता में इतनी खराब हो चुकी है कि लोग राज्‍यसभा की सौगात पाकर भी उसके साथ अपना नाम नहीं जोड़ना चाहते। ये वो सवाल हंै जिस पर वक्‍त रहते पार्टी ने मंथन नहीं किया तो आने वाले वक्‍त में उसका विस्‍तार रूक जाएगा।

क्‍या करेंगे कुमार विश्‍वास
राज्‍यसभा की उम्‍मीदवारी न मिलने के बाद कुमार विश्‍वास ने एक तरह से खुलकर बगावत कर दी है। वे मीडिया के हर मंच से शायराना अंदाज में केजरीवाल पर प्रत्‍यक्ष और अप्रत्‍यक्ष हमले कर रहे हैं लेकिन उनका अगला कदम क्‍या होगा इसकी किसी को भनक नहीं है। कुमार विश्‍वास खुद को शहीद बता तंज कसते हुए केजरीवाल से अनुरोध भी कर रहे हैं कि उनके शव के साथ छेड़छाड़ न की जाए। उनका इशारा पार्टी के उन नेताओं की तरफ है जो पिछले काफी समय से उन्‍हें निशाने पर ले रहे थे। कयास लग रहे हैं कि कुमार विश्‍वास केजरीवाल से बदला लेने के लिए आने वाले दिनों में बीजेपी में शामिल हो सकते हैं और दिल्‍ली के अगले चुनाव में बीजेपी उन्‍हें केजरीवाल के विकल्‍प के रूप में पेश कर सकती है। दरअसल दिल्‍ली में अभी भी बीजेपी के पास केजरीवाल को टक्‍कर देने वाला नेता नहीं है। मगर ये तय है कि फिलहाल कुमार विश्‍वास आप से नाता नहीं तोड रहे हैं। वे पार्टी में रहकर ही उसे सवालों के कठघरे में खड़ा करने का काम करते रहेंगे। लेकिन ये भी तय है कि कुमार विश्‍वास केजरीवाल को धोबी पछाड़ देने के लिए सही मौके और वक्‍त का इंतजार करेंगे। कुमार विश्‍वास को भी इस बात का इल्‍म है कि केजरीवाल से एक बार असहमति जताने का हश्र क्‍या होता है। आम आदमी पार्टी के संस्‍थापकों शांति भूषण, प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, प्रो. आनंद कुमार, अंजली दमानिया, मयंक गांधी, शाजिया इल्मी, कैप्टन गोपीनाथ, जस्टिस हेगड़े, कपिल मिश्रा जैसे करीब 25 नेताओं को केजरीवाल की नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने के परिणाम स्‍वरूप पार्टी छोड़कर जाना पड़ा था। वैकल्पिक राजनीति देने का वादा करने वाले केजरीवाल ने अपनी ही पार्टी में अपने हर विकल्‍प को एक-एक कर खत्‍म कर दिया। कुमार विश्‍वास के रूप में इस बार विद्रोह की जो चिंगारी भड़की है उसे केजरीवाल कैसे बुझाएंगे, देखना दिलचस्प होगा।