बिहार- महागठबंधन के मांझी

प्रियदर्शी रंजन

बिहार में होली के ठीक दो दिन पहले राजनीति का रंग बदल गया। भगवा परस्त भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा रही हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (सेक्युलर) हरे रंग की पैरोकार राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ चली गई तो कांग्रेस के तिरंगे का दामन छोड़कर प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी के नेतृत्व में पार्टी के चार विधान पार्षद एनडीए गठबंधन में शामिल जदयू के रंग में सराबोर हो गए। राजनीति में एक साथ इतने रंगों का बदलना अमूमन चुनावी मौसम में ही देखने को मिलता है। राजनीति का एक अघोषित सिद्धांत है कि एक दिन में एक ही बड़ा फैसला होता है। जाहिर है, बिना चुनावी मौसम के कई रंग बदले हैं तो इसके मायने भी होंगे।
दरअसल, बिहार की राजनीति में 2019 के लोकसभा चुनाव की पटकथा लिखने की शुरुआत हो चुकी है। बिहार के दो बड़े गठबंधन अपने समाजिक समीकरण का सर्किट पूरा करने के लिए अभी से दांव लगा रहे हैं। मांझी और अशोक चौधरी का रंग बदलना उसी का नमूना है। पिछले एक दशक से मुस्लिम-यादव (माय) के साथ दलित-महादलित वोट को साधने में जुटे राष्ट्रीय जनता दल को मांझी में उम्मीद दिख रही है। महादलित समाज से आने वाले जीतन राम मांझी महागठबंधन के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकते हैं। बिहार में करीब 15.72 फीसदी महादलित मतदाता हैं। ये वोट महागठबंधन खासकर राजद की ताकत को बढ़ाने के काम आ सकते हैं। लालू यादव के जेल जाने के बाद से ही उनके पुत्र तेजस्वी यादव महादलितों के घर जाकर भोजन कर रहे हैं। तेजस्वी अपने पिता के दौर की समाजिक न्याय की कहानी भी सुना रहे हैं। मांझी के महागठबंधन में आने के फायदे का गुणा-भाग करने में जुटे राजद विधायक मृत्युंजय तिवारी के मुताबिक, मांझी के आने से बिहार में एनडीए को बड़ा झटका लगा है और राजद भारी फायदे में है।
हालांकि मांझी का महागठबंधन में शामिल होना उम्मीद के अनुरूप ही है। उम्मीद की जा रही थी की किसी बड़े मौके पर वे एनडीए को बाय-बाय करेंगे लेकिन मांझी किसी मौके का इंतजार किए बगैर महागठबंधन का हिस्सा बन गए। असल में जदयू के एनडीए में दोबारा लौट आने से मांझी को असहजता महसूस होने लगी थी। एनडीए की केंद्र व राज्य में सरकार होने के बाद भी उनकी पार्टी हम को सरकार में हिस्सेदारी नहीं मिलने का सवाल कई बार उन्होंने सार्वजनिक मंच से भी उठाया था। सरकार में हिस्सेदारी की मांग पूरी नहीं होने पर उन्होंने भाजपा के खिलाफ भी बोलना शुरू कर दिया था।
मांझी का लालू प्रेम किसी से छुपा नहीं है। तेजस्वी की मौजूदगी में उन्होंने लालू को श्रद्धेय लालू जी कह कर संबोधित किया। सार्वजनिक तौर पर मांझी ने इस तरह की श्रद्धा का इजहार उन्हें मुख्यमंत्री बनाने वाले नीतीश कुमार के बारे में भी नहीं किया। राजनीतिक जानकार मणिकांत ठाकुर के मुताबिक, लालू-मांझी की दोस्ती पर कभी सवाल था ही नहीं। तब भी नहीं जब मांझी ने वर्ष 2005 में राजद छोड़ कर जदयू में शामिल होने का फैसला किया था। मुख्यमंत्री रहते हुए भी मांझी को लालू यादव का साथ मिला था। हालांकि बाद में राजद और जदयू महागठबंधन में शामिल हो गए और मांझी एनडीए के साथ चले गए। बावजूद इसके, उनकी लालू से दूरी नहीं बढ़ी और आए दिन लालू या उनके परिवार से मुलाकातों का सिलसिला भी जारी रहा। लालू परिवार पर जब घोटालों का आरोप थोक में लग रहा था तब भी मांझी ने लालू परिवार पर हमेशा सधा हुआ बयान ही दिया। वहीं लालू भी मांझी को महागठबंधन में लाने की वकालत करते रहे।

लालू यादव पिछले कुछ अरसे से अपने पाले में दलित-महादलित वोट बैंक के लिए पलटन तैयार करने की कवायद कर रहे थे। इसी कवायद के तहत उन्होंने बहुजन समाज पार्टी प्रमुख व उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायवती को राजद कोटे से राज्यसभा भेजने का निमंत्रण सौंपा था। लालू परिवार से जुडेÞ सूत्रों की मानें तो मायावती को राज्यसभा भेजने के निमंत्रण के पीछे यह मत था कि दलित-महादलित वोट बैंक में राजद के प्रति उदार बढ़ेगा। माया के इनकार के बाद राजद ने मांझी पर यही दांव चला। वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर भी मानते हैं कि मांझी का राजद के पाले में जाना एक सौदा है। यह एक राज्यसभा सीट या दो विधान परिषद सीट का सौदा है। अगर राज्यसभा सीट पर बात होती है तो मांझी खुद दावेदार होंगे। वहीं विधान परिषद में भेजने के लिए उनके पास पुत्र संतोष भारती और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व मंत्री वृषण पटेल का नाम है। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने मांझी को राज्यसभा भेजने के सवाल पर पत्रकारों से कहा कि इस पर उनके साथ बैठ कर बात करेंगे कि वे क्या सोचते हैं।

मांझी को इसके अलावा विधानसभा और लोकसभा चुनावों में महागठबंधन में सीट शेयरिंग के तहत अधिक सीटें मिलने की उम्मीद होगी। वरिष्ठ पत्रकार देवांशु शेखर मिश्रा के मुताबिक, लालू के साथ मांझी का जाना बिहार की राजनीति का बड़ा घटनाक्रम है जिसका परिणाम आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा। संभव है कि मांझी की महादलितों में लोकप्रियता और महागठबंधन में उनके शामिल होने से उनका राजनीतिक ग्राफ तेजी से बढ़े और वे उस हैसियत को पाने में कामयाब हो जाएं जो दलित-महादलित वोट बैंक के बूते रामविलास पासवान का है। मांझी की भरपाई के लिए कांग्रेस के अशोक चौधरी समेत तीन और विधान पार्षद दिलीप चौधरी, रामचंद्र भारती और तनवीर अख्तर को जदयू में शामिल कर नीतीश कुमार ने डैमेज कंट्रोल की हल्की कोशिश की है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि बिहार के 16 फीसदी महादलित वोट बैंक में जीतन राम मांझी का जो प्रभाव है उसकी काट के लिए एनडीए को बड़ा दांव खेलना होगा। अशोक चौधरी दलित हैं और महादलित वोट बैंक पर उनका क्या प्रभाव है इसकी परख का मौका उनके कांग्रेस में रहने के कारण नहीं हो पाया है।

हर घाट पर कामयाब रहे मांझी
जीतन राम मांझी का राजनीतिक इतिहास बेहद दिलचस्प है। दिलचस्प इसलिए कि साढ़े तीन दशक के अपने राजनीतिक करियर में मांझी ने हर घट पर पड़ाव किया। अपनी पार्टी बनाने से पहले मांझी कांग्रेस, राजद और जदयू की टिकट पर विधायक बनते रहे। एक पत्रकार द्वारा लिखी गई पुस्तक के मुताबिक, राजनीति में आने से पहले मांझी ने एक प्रखर दलित बुद्धिजीवी के तौर पर मगध इलाके में अपना धाक जमाया। उन्होंने वकालत की डिग्री लेने के बाद राजनीति को अपने कैरियर के तौर अपनाया और कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की। वर्ष 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें फतेपुर (सुरक्षित) विधानसभा सीट से अपना उम्मीदवार बनाया। मांझी ने तब संयुक्त कांग्रेस के राम नरेश प्रसाद को 13 हजार 324 मतों के अंतर से हरा दिया। भारी जीत हासिल करने वाले मांझी को पहली बार विधानसभा पहुंचने के साथ ही जगन्नाथ मिश्रा मंत्रिमंडल में जगह मिल गई। मांझी ने अपनी जीत का सिलसिला वर्ष 1985 में भी कायम रखा। लेकिन वर्ष 1990 और 1995 में वे चुनाव हार गए।

इसके बाद मांझी ने पहली बार नैया बदली और राजद में शामिल हो गए। पार्टी बदलने के साथ मांझी ने सीट भी बदल लिया। इसके बाद वे बोधगया (सुरक्षित) सीट से जीत हासिल करने में कामयाब हो गए। लालू ने उनकी जीत का स्वागत राबड़ी देवी मंत्रिमंडल में उन्हें जगह देकर किया। वर्ष 2005 में मांझी ने राजद का भी साथ छोड़ दिया और जदयू में शामिल हो गए।

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में महज दो सीट पर सिमटने के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया तो मांझी को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंप दी। मुख्यमंत्री बनने से पहले मांझी का दायरा गया और जहानाबाद तक ही सीमित था। मगर मुख्यमंत्री बनने के बाद मांझी की महत्वाकांक्षा ने उड़ान भरनी शुरू की। इस दौरान उन्होंने अपना दायरा प्रदेश भर में फैलाने की कोशिश की और नीतीश कुमार की दी हुई पहचान को मिटाने का जुगाड़ भिड़ाया। मांझी को खुद को महादलित का चेहरा के तौर स्थापित करने में कामयाबी भी हासिल हुई मगर नीतीश से राजनीतिक गतिरोध इस कदर बढ़ गया कि उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से अपदस्थ होना पड़ा।

बावजूद इसके, मांझी बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण हो गए। भाजपा ने उन्हें महत्वपूर्ण बनाने में रुचि ली। उन्होंने हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) का गठन किया और हम का एनडीए के साथ तालमेल हो गया।

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