जिरह- एक भटका हुआ राही…

नेता कौन हो सकता है और उसमें क्या गुण होना चाहिए। जॉन मैक्सवेल के मुताबिक नेता वह है जो रास्ता जानता है, उस पर चलता है और दूसरों को रास्ता दिखाता है। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी को इस कसौटी पर कसें तो निराशा हाथ लगेगी। रास्ते पर चलने और रास्ता दिखाने के लिए जरूरी है कि आपको रास्ता पता हो। राहुल गांधी एक भटके हुए यात्री नजर आते हैं। वे हासिल क्या करना चाहते हैं यह समझना कठिन है। यह समस्या आम लोगों ही नहीं उनकी पार्टी के लोगों के सामने भी है। उनको देखकर शोले फिल्म में जेलर बने असरानी का एक दृश्य याद आता है, जिसमें वे कहते हैं- आधे इधर, आधे उधर और बाकी मेरे पीछे आओ। राहुल गांधी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ तीन साल पुराने आरोप को दोहराकर उन्हें लगा कि अब वे मोदी विरोधी राजनीति की धुरी बन गए हैं। जिस दस्तावेज के आधार पर यह आरोप लगाया गया है उसे देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने फर्जी (फिर्टीशियस) कहा है। इसके बावजूद राहुल गांधी को लगा कि उनके बोलते ही भूकम्प आ जाएगा। अब इस मासूमियत पर क्या कहिए। भूकम्प तो नहीं आया पर हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के सम्पादकीय में उनके इस कदम को बचकाना माना गया। पर राहुल गांधी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वैसे ही जैसे उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि यही मुद्दा तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी काफी पहले उठा चुकी है। आम आदमी पार्टी ने तो इसके लिए दिल्ली विधानसभा का विशेष सत्र भी बुलाया था। जो कागज राहुल गांधी हर आम सभा में लहरा रहे हैं वही कागज लेकर प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट गए। जिसपर अदालत ने इसे फर्जी बताते हुए पूछा कि ऐसे आरोप लगाएंगे तो संवैधानिक पदों पर बैठे लोग काम कैसे करेंगे। जो रही सही कसर थी वह दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने पूरी कर दी। जिस डायरी में प्रधानमंत्री का नाम होने का आरोप है उसी में उनका भी नाम है। उन्होंने कहा कि यह पूरी तरह फर्जी आरोप है।

जब नेता को ही रास्ता न मालूम हो तो वह दूसरों को क्या दिखाएगा। यही बात अब दूसरे विपक्षी दलों के नेता कह रहे हैं। राहुल गांधी और उनकी पार्टी ने सत्ताइस दिसम्बर को नोटबंदी के मामले पर सरकार के खिलाफ रणनीति बनाने के लिए विपक्षी दलों की चाय पर बैठक बुलाई थी। वे यह मानकर चल रहे थे अब इस मुद्दे पर पूरे विपक्ष का नेतृत्व न केवल उनके हाथ में आ गया है बल्कि सबने इसे स्वीकार भी कर लिया है। कार्यक्रम सफल हो इसके लिए कहा गया कि सोनिया गांधी भी इस चाय पार्टी में मौजूद रहेंगी। पर विपक्ष तो पहले ही दाएं बाएं जा चुका था। राहुल गांधी के पीछे चलने के लिए कोई बचा नहीं। पहले जनता दल यूनाइटेड ने मना किया। फिर बीजू जनता दल का बयान आया। उसके बाद मार्क्सवादी पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर न केवल चाय पार्टी में शिरकत से इनकार किया बल्कि कहा ऐसे नहीं होता है कि आप फैसला लेकर सूचित कर दें। पूरे विपक्ष को साथ लेना है तो पहले सभी सोलह विपक्षी दलों के नेताओं से बात करनी पड़ेगी। इसके बाद ही कोई फैसला हो सकता है। मोदी पर हमला करते करते राहुल गांधी खुद ही विपक्षी दलों के अपने साथियों के निशाने पर आ गए। यह झटका राहुल गांधी के लिए विपक्षी राजनीति की व्यावहारिकता की सचाई का पहला सबक है। राजनीति बड़ी निष्ठुर होती है। यहां कष्ट के बिना राधा नहीं मिलती। और जरूरी नहीं है कि उसके बाद भी मिल जाए।

राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ईमानदारी की छवि को खंडित करना चाहते हैं। विपक्ष के नेता के तौर पर यह उनका संवैधानिक अधिकार है। पर जो संविधान उन्हें यह अधिकार देता है वही उनसे यह अपेक्षा भी करता है वे जो बात कहेंगे पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी से कहेंगे। समस्या यहीं है। कांग्रेस पार्टी की जो छवि रही है और खासतौर से दस साल के यूपीए शासन में जो छवि बनी है उसने पार्टी और उसके नेताओं का नैतिक बल क्षीण कर दिया है। जो दस साल तक देश के खजाने की लूट की तरफ से आंखें मूंदे रहे उन्हें अब रस्सी सांप नजर आ रही है। अच्छा होता कि राहुल गांधी इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करते। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में प्रशांत भूषण ने जो दस्तावेज पेश किए उनके आधार पर मुकदमा तो दूर अदालत ने उसे जांच कराने लायक भी नहीं समझा। इसी दस्तावेज को राहुल गांधी बुलेट प्रूफ प्रमाण बता रहे थे। इसके बावजूद राहुल गांधी को लगा कि वे इस मसले को उठाएंगे तो देश में तहलका मच जाएगा। अब राहुल गांधी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं उससे हटने को भी तैयार नहीं हैं। समझदार नेता हमेशा यह देखता है कि वह जो मुद्दा उठा रहा है उसका सुनने वालों पर असर क्या हो रहा है। उसके अनुसार ही वह आगे कदम बढ़ाता है। अफसोस तो यही है कि ऐसी राजनीतिक समझ होती तो पार्टी इस दुर्गति को क्यों प्राप्त होती। 

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