भारत-बांग्लादेश सीमा से लौटकर अभिषेक रंजन सिंह।
पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिला मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर दूर है बांग्लादेशी छिटमहल (एन्कलेव) मध्य मसालडांगा। छिटमहल में आबादी उतनी सघन नहीं है। मध्य मसालडांगा में हम सैयद अली मंडल के घर के बाहर रुके। वहां मौजूद कुछ नौजवान घर से कुर्सी और बेंच ले लाए। पैंतालीस वर्षीय सैयद अली मंडल खेती-बाड़ी करते हैं। मध्य मसालडांगा में उनके बाप-दादा के नाम पर कुल पंद्रह बीघा जमीन है। जमीन की रजिस्ट्री बांग्लादेश स्थित कुडीग्राम सब-रजिस्ट्रार दफ्तर से वर्ष 1976 में हुई थी। जमीन के कागजात पर बांग्लादेशी नॉन ज्यूडीशियल स्टांप पेपर संलग्न है। सैयद अली मंडल बताते हैं कि उन्होंने आखिरी बार 1985 में कुडीग्राम में अपनी जमीन का लगान अदा कर मालगुजारी की रसीद प्राप्त की थी। 1986 में वे आखिरी बार लगान अदा करने ढाका गए थे लेकिन बांग्लादेश महसूल महकमे ने कई वजहें गिनाते हुए मालगुजारी की रसीद नहीं दी।
सैयद अली मंडल के मुताबिक, ‘1990 से पहले हमारी जमीनों की रजिस्ट्री बांग्लादेश के रजिस्ट्री आॅफिस में होती थी लेकिन सीमा पर कंटीले तारों की घेराबंदी और सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) की चौकसी की वजह से छिटमहल के लोगों का बांग्लादेश जाना बंद हो गया। उसी तरह बांग्लादेश में मौजूद भारतीय छिटमहलों से भी उन लोगों का आना बंद हो गया जो अपने रिश्तेदारों से मिलने, जमीन की रजिस्ट्री और मालगुजारी रसीद हासिल करने के लिए भारत आते थे।’ सैयद अली मंडल बताते हैं कि उनके दादा अविभाजित भारत के जिला मैमन सिंह (जो अब बांग्लादेश में है) से आए थे। भारत में मौजूद बांग्लादेशी छिटमहलों में 95 फीसद लोगों के दादा-परदादा बांग्लादेश के रंगपुर, मैमन सिंह, लालमुनिहाट, बारिसाल, चिटगांव, ढाका, राजशाही, ठाकुरगंज, नारायणगंज, गाजीपुर और नोआखाली से आकर बसे हैं।
भारत और बांग्लादेश के बीच हुए छिटमहलों के समझौते से पचपन वर्षीय मोहम्मद नूर इस्लाम शेख काफी खुश हैं। नूर बताते हैं, ‘पहले बाजार में अपनी पहचान छुपाकर मजदूरी करनी पड़ती थी क्योंकि वे बांग्लादेशी छिटमहल के निवासी थे। अब ऐसा नहीं है क्योंकि कूचबिहार जिले में मौजूद बांग्लादेशी छिटमहल के सभी बाशिंदे भारत के नागरिक हो गए हैं। अब हम भी गर्व से कह सकेंगे कि हम भारतीय हैं और हमें आम भारतीय नागरिक की तरह समान अधिकार मिलना चाहिए।’ दरअसल, मध्य मसालडांगा जैसे उन सभी 50 छिटमहलों की 31 जुलाई, 2015 से पहले यह बदकिस्मती थी कि वह भौगोलिक रूप से बांग्लादेशी भूभाग था। ठीक उसी तरह बांग्लादेश में मौजूद 111 भारतीय छिटमहलों में रहने वाले करीब 40,000 बाशिंदों को भी इसी तरह गैर-बराबरी का सामना करना पड़ता था।
चालीस वर्षीय जुबैदा बीबी बताती हैं, ‘हम लोग नजदीकी (भारतीय गांव) लोगों के ताने सुनकर बड़े हुए हैं कि ये बांग्लादेशी हैं। यह अल्फाज हम लोगों को बहुत सालती थी।’ ढाई बीघा जमीन के काश्तकार रहीम अली बताते हैं कि बांग्लादेशी छिटमहल का भारत में विलय होने से यहां के लोग काफी खुश हैं। इसका श्रेय वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देते हैं। उनका कहना है कि मध्य मसालडांगा छिटमहल का नाम नरेंद्र मोदी के नाम पर होना चाहिए क्योंकि वे विराट मानुष हैं। मध्य मसालडांगा में 99 परिवार हैं जिनकी कुल आबादी 457 है। मसालडांगा में कुल 19 छिटमहल हैं जो पूर्वी मसालडांगा, पश्चिमी मसालडांगा और मध्य मसालडांगा के नाम से जाने जाते हैं। मसालडांगा की कुल आबादी 4,000 है।
जिंदगी के आखिरी वक्त में ख्वाब हुआ पूरा
मोहम्मद असगर अली मध्य मसालडांगा के सबसे बुजुर्ग बाशिंदे हैं। उनकी उम्र 105 साल है। भारत और बांग्लादेश के बीच हुए छिटमहल समझौते से वे काफी खुश हैं। वर्ष 1930 में असगर अली जब 10 साल के थे तो अपने पिता मोहम्मद सौतू शेख के साथ जिला मैमन सिंह से रोजगार की तलाश में कूचबिहार आए थे। इसके बाद वे यहीं के होकर रह गए। वर्ष 1910 में जन्में असगर अली बताते हैं कि देश विभाजन के बाद छिटमहल में रहने वाले दोनों तरफ के लोगों की जिंदगी बदतर हो गई। एक अदद नागरिकता के लिए हमें वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। असगर अली को इस बात की खुशी है कि जिंदगी के आखिरी समय में उन्हें भारत की नागरिकता मिल गई।
टूटी-फूटी सड़क और ऊपर से गुजरती बिजली के तार मध्य मसालडांगा से बचकर निकलते हुए पड़ोस के एक भारतीय गांव को रौशन करते हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा के दुश्चक्र में फंसा मसालडांगा सरहदी जटिलताओं की वजह से वर्षों तक सरकारी सुविधाओं से वंचित रहा। भारत में मौजूद बांग्लादेशी छिटमहल के लोगों को मूलभूत सुविधाओं मसलन, मतदान के अधिकार, राशन कार्ड, नौकरियों और सबसे महत्वपूर्ण पहचान से वंचित रहना पड़ा। यहां न तो कोई स्कूल है और न ही कोई अस्पताल। हालांकि गैर-बराबरी का यह सिलसिला अब खत्म हो गया है। वे अब भारतीय नागरिक बन गए हैं और भारत के संसाधनों और सरकारी योजनाओं पर उनका बराबर का हक बन गया है।
फर्जीवाड़ामजबूरी थी
आलमगीर हुसैन ने भारतीय सीमा के नाजिरहाट स्थित हरकुमारी हाईस्कूल में जाली दस्तावेज बनाकर दाखिला पाया है। हायर सेकेंड्री के छात्र आलमगीर ने नाजिरहाट में अपने नजदीकी रिश्तेदार की मदद से फर्जी दस्तावेज बनाया था। उसका दाखिला स्कूल में हो तो गया लेकिन उसे हमेशा डर लगा रहता था कि कहीं वह कानूनी शिकंजे में न फंस जाए। छिटमहलों के समझौते के बाद आलमगीर का यह डर हमेशा के लिए दूर हो गया। उसकी इच्छा है कि उच्च शिक्षा के लिए वह कोलकाता जाए और अच्छी नौकरी करे। कुछ ऐसी ही मजबूरी सद्दाम हुसैन की थी। सद्दाम मसालडांगा से 20 किलोमीटर दूर दीनहाटा कॉलेज में स्नातक तृतीय वर्ष का छात्र है। सद्दाम के पिता का नाम शेख नौसर अली है। कॉलेज में दाखिले के लिए उसने मध्य मसालडांगा से पांच किलोमीटर दूर भारतीय गांव बलरामपुर निवासी एक शख्स को अपना दस्तावेजी पिता बनाया क्योंकि इत्तेफाक से उनका भी नाम शेख नौसर अली है। अब सद्दाम को कोई डर नहीं है और न ही उसे अपनी पहचान छुपाने की जरूरत है। सद्दाम आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाना चाहता है।
मध्य मसालडांगा से करीब पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है पोआतुरकुटी गांव (पूर्व में बांग्लादेशी छिटमहल)। यहां 485 घर हैं जिनमें 3,500 लोग रहते हैं। 75 वर्षीय मंसूर अली मियां यहां के उम्रदराज लोगों में शुमार हैं। उन्होंने बताया कि यहां से आठ किलोमीटर की दूरी पर रंगपुर (बांग्लादेश) डिवीजन है। देश के बंटवारे से बीस साल पहले कुडीग्राम जिले से उनके दादा कूचबिहार आए थे। बंटवारे के बाद पोआतुरकुटी के लोगों को भी नागरिकता संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ा। अब हमें अपनी मर्जी से नागरिकता चुनने की आजादी मिली। अब हम सिर उठाकर कह सकेंगे कि हम भी भारतीय नागरिक हैं और हमारे गांव में भी स्कूल, अस्पताल, बिजली और पानी की सुविधा मुहैया होगी।
कानून के दायरे से बाहर थे छिटमहल
31 जुलाई 2015 से पहले भारत और बांग्लादेश के 162 छिटमहलों में कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं थी। दरअसल, कूचबिहार जिले में स्थित बांग्लादेशी छिटमहल में भारतीय पुलिस गैर-मुल्क की भूमि होने के कारण प्रवेश नहीं करती थी। उसी तरह बांग्लादेश में मौजूद 111 भारतीय छिटमहल में भी वहां की पुलिस नहीं जाती थी। बीते 68 वर्षों में यहां हत्या, बलात्कार, डकैती, मारपीट और तस्करी की कई घटनाएं हुर्इं। बावजूद इसके दो देशों की सीमाओं की बाध्यता के चलते यहां की पुलिस कोई कार्रवाई करने में सक्षम नहीं थी। गौरतलब है कि कूचबिहार से सीमावर्ती बांग्लादेश के लिए बड़े पैमाने पर फैंसी डील नामक कफ सिरप की तस्करी होती है। मुस्लिम बहुल देश होने की वजह से बांग्लादेश में शराब का उत्पादन और उसका व्यापार प्रतिबंधित है। चूंकि फैंसी डील में अल्कोहल की मात्रा अधिक पाई जाती है, लिहाजा बांग्लादेश के गरीब तबके के लोग नशे की खातिर इसका इस्तेमाल करते हैं। शेख रज्जाक के मुताबिक पोआतुरकुटी और मसालडांगा में अपराध की कई घटनाएं हुर्इं लेकिन उसकी कहीं कोई शिकायत दर्ज नहीं हुई। मगर अब नई पहचान मिलने से यहां रहने वाले लोगों में असुरक्षा की भावना नहीं रहेगी। दुर्गानगर बीएसएफ कैंप में तैनात सब-इंस्पेक्टर सूबे सिंह भारत और बांग्लादेश के बीच हुए इस समझौते से काफी आशान्वित हैं। उनके अनुसार, गौवंश, मानव, गांजा, नकली नोट, खाद और दवाओं की तस्करी यहां की मुख्य समस्या है। दोनों देशों के बीच छिटमहलों के आदान-प्रदान से इसमें काफी कमी आएगी।
भारत और बांग्लादेश के बीच 31 जुलाई 2015 की मध्य रात्रि से प्रभावी हुए 162 छिटमहलों की अदला-बदली होने के साथ ही दोनों देशों के 51 हजार लोगों को नागरिकता मिल गई। उन्होंने अब अपने पसंदीदा देश का चुनाव किया है। इन लोगों में 14 हजार लोग उन बांग्लादेशी छिटमहलों में रह रहे थे जिनका अब भारत में विलय हो चुका है। ये सभी छिटमहल पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले में थे। वहीं बांग्लादेश में मौजूद भारतीय छिटमहलों में रहने वाले लोगों में से करीब एक हजार लोगों को छोड़कर बाकी सभी बांग्लादेशी नागरिक बन गए हैं। बांग्लादेश का हिस्सा बन चुके इन 111 छिटमहलों का कुल क्षेत्रफल 17,158.13एकड़ है जहां 37,369 लोग रहते हैं। वहीं भारत का हिस्सा बने 51 बांग्लादेशी छिटमहलों का कुल रकबा 7,110.02 एकड़ है जिसमें 14,221 लोग रहते हैं। निश्चित रूप से भारत और बांग्लादेश के बीच हुए इस भूमि समझौते से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग का नया दौर शुरू हुआ है। उल्लेखनीय है कि यह भूमि समझौता वर्ष 1974में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्र रहमान के बीच हुआ था। 1975में मुजीब की हत्या के बाद काफी अरसे तक इस करार पर प्रगति ठप रही। बाद की सरकारें इन छिटमहलों के आदान-प्रदान पर सहमत नहीं हो पार्इं।
क्या है छिटमहल
छिटमहल बांग्ला भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है दूसरे देश की सीमा में मौजूद छोटे-छोटे भूभाग। इतिहासकारों का मानना है कि यहां सीमा विवाद इसलिए हुआ क्योंकि अठारहवीं सदी के शुरू में कूचबिहार रियासत और मुगलों के बीच हुई लड़ाई के बाद यह तय नहीं किया गया था कि दोनों पक्षों की सीमा कहां से शुरू होती है और कहां खत्म। जब देश का बंटवारा हुआ तो भारत-पाकिस्तान ने इस समस्या को जस का तस छोड़ दिया। 1971 में जब बांग्लादेश वजूद में आया तो उसे छिटमहल नामक सीमा संबंधी यह समस्या विरासत में मिली। भारत और बांग्लादेश ने पहले भी इस जटिल समस्या का समाधान करने की कोशिश की थी। वर्ष 1974 में दोनों देशों के बीच भूमि सीमा क्षेत्र के बारे में एक समझौता किया गया था लेकिन इस समझौते को लागू करने की सभी कोशिशें असफल रहीं। दोनों मुल्कों के हुक्मरानों का मानना था कि अपने भूभाग को दूसरे देश को सौंपना राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस समस्या के समाधान का सवाल फिर से उठा। भारतीय संसद ने ‘पूर्व की ओर देखो’ की विदेश नीति के तहत 7 मई 2015 को एक संविधान संशोधन पारित किया जो राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सीमाओं से संबंध रखता था। इसके बाद ही यह छिटमहलों का समझौता अमल में लाया जा सका। यह समझौता इस बात का प्रमाण है कि अगर दो देश चाहें तो वर्षों पुरानी सीमा संबंधी समस्या, दुश्मनी और अविश्वास को आपसी बातचीत के जरिये सुलझा सकते हैं।
कैसे बना छिटमहल
कूचबिहार के महाराजा और रंगपुर के नवाब की मित्रता उन दिनों काफी मशहूर थी। दोनों मन बहलाने के लिए अकसर शतरंज खेला करते थे। इस खेल में दोनों अपनी रियासत केगांवों को दांव पर लगाते थे। नतीजतन कूचबिहार के राजा की प्रजा कभी रंगपुर के नवाब की अवाम बन जाती थी तो कभी रंगपुर के नवाब की अवाम कूचबिहार के राजा की प्रजा। राजा और नवाब तो अपना मन बहलाने के लिए यह खेल खेलते थे लेकिन इसकी कीमत उनकी रियासतों की जनता को चुकानी पड़ती थी। देश के बंटवारे के बाद कूचबिहार के राजा ने अपनी रियासत का विलय भारत में करने की घोषणा कर दी। वहीं रंगपुर के नवाब ने पूर्वी पाकिस्तान में जाने का फैसला किया। इस तरह शतरंज के खेल में दांव पर लगे गांवों की सीमाएं भी रातों-रात बदल गईं। बंटवारे की वजह से इन गांवों में रहने वाले लोगों का परिचय और उनकी नागरिकता भी छिन गई। ब्रितानी सरकार नेबंटवारे की तैयारी के दौरान जॉन रेडक्लिफ को भारत और पाकिस्तान के भूखंडों की पैमाइश का जिम्मा दिया था। लेकिन उनसे एक गड़बड़ी हो गई। दरअसल, रेडक्लिफ जब भारत और पाकिस्तान की सरहदों का नक्शा बनाने बैठे तो भारत में शामिल हुए कूचबिहार और पूर्वी पाकिस्तान में शामिल रंगपुर की सरहद तय नहीं कर पाए। इस तरह जॉन रेडक्लिफ ने 9 अगस्त, 1947 को बंटवारे का आधा-अधूरा नक्शा ब्रिटिश हुकूमत को सौंप दिया। इसी नक्शे की बुनियाद पर भारत और पाकिस्तान की सीमा की औपचारिक घोषणा हो गई। नक्शे में भारत और पूर्वी पाकिस्तान तो दिखा लेकिन रंगपुर और कूचबिहार के वे लोग जिन्हें शतरंज की बाजी की दांव पर लगाया गया था वे देशविहीन होकर रह गए।
विवाद सुलझाने की पहल
1958 में सबसे पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोज खान नून ने सीमा विवाद सुलझाने की कोशिश की थी। उस वक्त सर्वे मानचित्र को बदलने को लेकर समस्या पेश आई थी। इसके समाधान के लिए संविधान में संशोधन जरूरी था। लिहाजा 1960 में संशोधित संविधान पेश तो हुआ लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच कई मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बंगबंधु शेख मुजीबुर्र रहमान के बीच 16 मई, 1974 को भूमि सीमा समझौता हुआ लेकिन 15 अगस्त 1975 को सैन्य तख्तापलट के दौरान उनकी हत्या कर दी गई। शेख मुजीब की हत्या के बाद बांग्लादेश-भारत सीमा समझौता कई वर्षों तक ठंडे बस्ते में चला गया। वर्ष 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बांग्लादेश सरकार के साथ एक करार किया जो स्थल सीमा समझौता के नाम से प्रचलित है। 18 दिसंबर, 2013 को संविधान के 119वें संशोधन संबंधी एक विधेयक राज्यसभा में लाया गया। संसद की स्थायी समिति ने नवंबर 2014 में इसकी मंजूरी दी। 6 मई, 2015 को राज्यसभा में संविधान संशोधन विधेयक पारित हुआ। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 28 मई, 2015 को इस विधेयक पर अपने दस्तखत किए। इसके बाद 6 जून, 2015 को बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूमि सीमा समझौते पर दस्तख्त किए। इस अहम समझौते के बाद भारत और बांग्लादेश के 75 सदस्यीय संयुक्त दल ने 6 जुलाई, 2015 से 16 जुलाई, 2015 के बीच दोनों देशों के छिटमहलों का सर्वेक्षण किया। 13 जुलाई, 2015 को संयुक्त दल की ओर से पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले में मौजूद बांग्लादेश के सभी 51 छिटमहलों में एक आम सभा आयोजित की गई। बांग्लादेशी छिटमहलों में रहने वाले इन सभी लोगों ने भारत का नागरिक बनकर यहीं रहने की बात कही। इसी तरह बांग्लादेश में मौजूद 111 भारतीय छिटमहलों में रहने वाले करीब 40,000 लोगों में से 979 लोगों को छोड़कर सभी ने बांग्लादेश में रहने और वहां की नागरिकता प्राप्त करने की इच्छा जताई।
सुविधाओं की बात
बांग्लादेश न सिर्फ छोटा देश है बल्कि कई मामलों में भारत से पीछे है। पिछले साल हुए भूमि सीमा समझौता (एलबीए) के लागू होने के बावजूद कूचबिहार में मौजूद 51 बांग्लादेशी छिटमहल जो अब भारतीय भूभाग हैं, वहां रहने वाले लोगों को अभी तक कोई खास सुविधा नहीं मिल पाई है। यहां न तो सड़कें बनी हैं और न ही लोगों के घरों तक बिजली पहुंची है। वहीं बांग्लादेश में मौजूद 111 भारतीय छिटमहल जो अब बांग्लादेशी भूभाग हैं, वहां शेख हसीना सरकार ने समझौते के तत्काल बाद ही राहत और पुनर्वास कार्यक्रम शुरू कर दिया। वहां गांवों में पक्की सड़कें बन गई हैं, लोगों को बिजली के नए कनेक्शन मिले हैं औरस्कूल व अस्पताल भी खुल गए हैं। बांग्लादेश सरकार अपने नए नागरिकों को रोजगार भी मुहैया करा रही है।
भारत-बांग्लादेश भूमि सीमा समझौते के बाद केंद्र सरकार ने पश्चिम बंगाल सरकार को राहत और पुनर्वास के लिए करीब 400 करोड़ रुपये की धनराशि मुहैया कराई है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि सरकार इन पैसों का सही इस्तेमाल नहीं कर रही है। कुछ ऐसा ही हाल बांग्लादेश से आए लोगों का है। भारत आए 922 लोगों को कूचबिहार के दिनहाटा, मेखिलीगंज और हल्दीबाड़ी स्थित अस्थायी राहत शिविरों में रखा गया है। जिला प्रशासन की ओर से प्रत्येक परिवार को मुफ्त में राशन मुहैया कराया जा रहा है। दो वर्षों के भीतर इन लोगों को स्थायी घर बनाकर दिए जाएंगे। सरकार और जिला प्रशासन भले ही इन्हें तमाम सुविधाएं देने का दावा कर रही है लेकिन यहां रहने वाले लोगों को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।
बांग्लादेश के कुडीग्राम जिले से आए उस्मान गनी कूचबिहार जिले के दिनहाटा राहत कैंप में रहते हैं। उस्मान के मुताबिक, प्रशासन एक परिवार को महीने में 30 किलो चावल, पांच किलो दाल, पांच लीटर केरोसिन, दो लीटर सरसों तेल, एक किलो दूध पाउडर और डेढ़ किलो नमक देती है। यह एक छोटे परिवार के लिए मुफीद है लेकिन जिन परिवारों में सदस्यों की संख्या अधिक है वहां इतने कम राशन से काम नहीं चलेगा। दिनहाटा राहत शिविर में रहने वाले अजीजुल इस्लाम, नरेश वर्मन, सुनीता वर्मन, राशिदा बेगम और सुमित्रा वर्मन की भी यही शिकायतें हैं।
बांग्लादेश के लालमुनीरहाट से आए मोहम्मद उमर फारुख यहां आने से पहले काफी खुश थे लेकिन यहां की व्यवस्थाओं से वह बेहद निराश हैं। उनके मुताबिक, एक टिन के घर में रहना और किसी तरह पेट भरना ही जिंदगी नहीं है। यहां लोगों को स्थायी घर और रोजगार चाहिए ताकि वे भी एक अच्छा जीवन व्यतीत करें। दरअसल, इन राहत शिविरों में रहने वाले ज्यादातर लोग मजदूर हैं। दिनहाटा उनके लिए नई जगह है। मजदूरी की तलाश में अगर वे लोग बाहर निकलते हैं तो उन्हें स्थानीय मजदूरों के गुस्से का शिकार होना पड़ता है। स्थानीय मजदूरों का आरोप है कि बाहर से आए लोगों की वजह से उनकी रोजी-रोटी प्रभावित होगी। राजेश्वर अधिकारी बताते हैं कि यहां के स्थानीय मजदूर उन्हें काम करने नहीं देते हैं। वे कहते हैं कि तुम सरकार से काम मांगो जो तुम्हें यहां लाई है।