अमीश।

पौराणिक कथा कब आस्था बन जाती है- यह सवाल प्राय: हर संवेदनशील मन में उठता है। अक्सर पूछा जाता है और जवाब है कि जब हम सवाल करना बंद कर देते हैं। आस्था में भी कोई बुराई नहीं है। आस्था तब शुरू होती है जब आपका ज्ञान अपने अंतिम स्तर पर पहुंच जाता है। ज्ञान विकास करने में आपकी मदद करता है। आस्था उन चीजों में तालमेल स्थापित करने में आपकी मदद करती है जिन्हें आप समझ नहीं पाते। या कम से कम इससे कुछ शांति पाते हैं। लेकिन हमारे प्राचीन शास्त्रों में हमें बार-बार प्रश्न करने के लिए प्रेरित किया जाता है। भगवद्गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘मैंने आपको गूढ़तम ज्ञान प्रदान किया है, अब यह आपका दायित्व है कि इस पर विचार करें और जो सही समझें वह करें।’ यह हमारे लिए भगवान कृष्ण का संदेश है। क्योंकि अपने कर्म के साथ केवल आपको जीना है। किसी और को नहीं। आपको तय करना है कि आपके कर्म आपके स्वधर्म के अनुरूप हैं या नहीं।

बुनियादी तौर पर, ईश्वर ने आपको बुद्धि प्रदान की है और आपको इसका प्रयोग करना चाहिए। आपको प्रश्न करने चाहिए। आपको सोचना चाहिए। और फिर अपना मत बनाना चाहिए।

मेरे पाठकों में हिंदुओं के अलावा और लोग भी हैं जो मेरी किताबें पढ़ते हैं। मेरे पाठकों में आप मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, बौद्धों, जैनों, यहूदियों, नास्तिकों और कई दूसरे लोगों को पाएंगे। और मेरे लिए यह अधिकांश भारतीयों के जन्मजात उदारवाद का चिह्न है। मुझे सभी धर्मों के लोगों की ईमेल और ट्वीट प्राप्त होते हैं। घर पर मेरे पूजा कक्ष में बीच में भगवान शिव की प्रतिमा है, लेकिन दूसरे कई हिंदू देवताओं की प्रतिमाएं भी हैं। मेरे यहां दूसरे धर्मों के प्रतीक और चिह्न भी हैं। रोज सुबह मैं उन सबकी पूजा करता हूं।

जहां तक मेरे लेखन की बात है, तो वास्तव में, अपनी पहली किताब द इमॉर्टल्स आॅफ मेलूहा लिखना शुरू करने से पहले मैंने कोई मार्केट रिसर्च नहीं की थी। मैं बस शुरू हो गया और लिखने लगा। मैंने बस वह किया जो मुझे सही लगा था। मैं यह नहीं सोच रहा था कि इस पुस्तक को ठीक से लिया जाएगा या नहीं। कि आलोचक या दर्शक इसे पसंद करेंगे या नहीं। मैंने सोचा था, सारी संभाव्यताओं में, जो लोग मेरी किताब पढ़ेंगे, वे केवल मेरे परिवारीजन होंगे, जबरदस्ती के पाठक! और रामचंद्र सीरीज को भी मैं इसी भावना से लिख रहा हूं। पाठकों के बारे में मैं केवल मार्केटिंग चरण में ही सोचता हूं, लिखने के दौरान नहीं। और मैं बहुत स्पष्ट हूं कि अगर मेरी अगली पुस्तक फ़्लॉप रही तो मैं बैंकिंग में लौट जाऊंगा। लेकिन मैं वही लिखूंगा जो मुझे ठीक लगता है। इस मुद्दे पर मैं बहुत स्पष्ट हूं।

राम शिव के देश का ये हाल
मेरा सुझाव है कि थोड़ा धीरज रखा जाए। कोई भी देश आनन-फानन में नहीं बदलता। अपने व्यक्तिगत जीवन के नजरिये से नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के दृष्टिकोण से आपको समय का भाव उत्पन्न करना होगा। इस बिंदु को मैं एक विचार प्रयोग से स्पष्ट करता हूं, अगर आप चाहें तो- कल्पना करें कि आप एक साधारण मक्खी हैं जिसका जीवन बस कुछ हफ़्तों का होता है, और आप भारत में मानसून के दौरान जन्म लेते हैं… आप ‘जानेंगे’ कि भारत में अंतहीन बारिशें होती हैं, बाकी कुछ खास नहीं! खासकर अगर आप मुंबई या चेरापूंजी में रहते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, जो सत्तर-अस्सी साल जीवित रहता है, आप जानते हैं कि मक्खी तकनीकी रूप से सही है, लेकिन केवल एक सीमित नजरिये से। समय की सीमा जितनी लंबी होगी, उतना ही ‘पूर्ण’ नजरिया होगा। मेरा सुझाव है कि राष्ट्र के जीवन को भी इसी नजर से देखें। छह या सात दशक किसी इंसान के लिए बहुत लंबा समय मालूम देते हैं, मगर एक राष्ट्र के लिए जिसका जीवनकाल दस हजार साल हो सकता है, यह बहुत लंबा समय नहीं है। राष्ट्र में होने वाले परिवर्तनों में समय लगता है। हमें बस यह देखना होगा कि हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं। मोटे तौर पर, मैं कहूंगा, हां, हम सही दिशा में बढ़ रहे हैं। बेशक, समस्याएं हैं, और उनमें से बहुतों पर मैंने सार्वजनिक तौर पर बात भी की है। हम भारतीयों ने कुछ बहुत बुरी सदियां देखी हैं। ऐसा होता है। लेकिन हम फिर से उभर रहे हैं! हम जाग रहे हैं। खासकर 1991 के बाद से। हमारे ऐतिहासिक, तार्किक आत्मविश्वास की वापसी हुई है। मैं बहुत गर्वित भारतीय हूं। और आगे बढ़ते हुए हमारा देश हमें गर्व करने के और भी बहुत सारे कारण देगा। हमें सब्र करना होगा।

मर्यादा
मर्यादा क्या है? मेरी किताबों का सिद्धांत है कि दो रास्ते होते हैं, दो संतुलन बिंदु जिनके बीच समाज झूलता रहता है। एक है स्वतंत्रता, आवेग, वैयक्तिकता का प्रतिमान और दूसरा है अनुपालन, सत्य (या कम से कम सत्य की एक विवेचना), न्याय और सम्मान का प्रतिमान। और जीवन के इन दोनों ही तरीकों के अपने गुण और कमजोरियां होती हैं। समस्याएं तब शुरू होती हैं जब आप दोनों में से किसी एक का आकलन करने लगते हैं। भगवान राम का तरीका, मर्यादा का तरीका स्पष्ट रूप से सूर्यवंशी (या पौरुषप्रधान) तरीका है, सम्मान, सत्य और न्याय का मार्ग! और भगवान कृष्ण का तरीका चंद्रवंशी (या स्त्रियोचित) तरीका है, स्वतंत्रता, आवेग, वैयक्तिकता का मार्ग।
और भगवान शिव जीवन की इन दोनों ही शैलियों के प्रति निष्पक्ष हैं। मैं स्पष्ट कर दूं कि जब मैं कहता हूं जीवन की शैली पौरुषप्रधान या स्त्रियोचित है, तो इसका पुरुषों या स्त्रियों से कोई लेनादेना नहीं है। यह जीवन के तरीके की बात है। ऐसे अनेक पुरुष हैं (केवल महिलाएं ही नहीं) जो स्त्रियोचित तरीके को अपनाते हैं, और बहुत सी महिलाएं हैं (केवल पुरुष ही नहीं) जो पौरुषप्रधान जीवनशैली अपनाती हैं। ये पारंपरिक अवधारणाएं हैं जिन्हें मैं अपनी किताबों में स्पष्ट करता हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि कोई जीवनशैली बेहतर है या बुरी। ये बस भिन्न मार्ग हैं। आकलन किसी को नहीं करना चाहिए।

कोई भी व्यक्ति, समुदाय या देश कभी भी पूरी तरह सूर्यवंशी (पौरुषप्रधान) या चंद्रवंशी (स्त्रियोचित) नहीं रहा है। दोनों के शेड होते हैं, लेकिन अक्सर कोई एक हावी होता है। चीन, मेरा मानना है, उस जीवनशैली पर चलता है जो सूर्यवंशी मार्ग के ज्यादा करीब है। आप जानते हैं कि चीन ने 2008 में ओलंपिक्स का आयोजन किया था, सही? बीजिंग ओलंपिक्स! जो कि, सब सहमत होंगे, कतई भारतीय कॉमनवेल्थ गेम्स जैसे नहीं थे। मुझे बताया गया है कि चीन के स्टेडियम वास्तव में गेम शुरू होने से छह महीने से एक साल पहले बनकर तैयार हो गए थे। भारत में, मेरा मानना है, जब गेम्स का शुभारंभ हो रहा था, तब भी स्टेडियमों में पेंट का काम चल रहा था। मगर चीन में समय पर बुनियादी ढांचों को पूरा कर लेना ही काफी नहीं था। उन्होंने तय किया कि उन्हें मेहमान देशों पर प्रभाव डालना होगा, तो उन्होंने गेम्स के भवनों पर काम करने वाले स्वयंसेवियों को कुछ नियम प्रदान किए- किस तरह बात करें, कपड़े पहनें आदि। जो कि काफी सही है।

मगर चीन सरकार के लिए यह भी पर्याप्त नहीं था। उन्होंने बीजिंग के नागरिकों को दिशानिर्देश दिए। मैं मजाक नहीं कर रहा हूं। विदेशियों का अभिवादन कैसे करें, संवाद करने के गुर और ऐसी ही चीजें। उन्होंने तो ड्रेस कोड तक निर्धारित कर दिया था। मैं फिर से मजाक नहीं कर रहा हूं। मुझे बताया गया था महिलाओं और पुरुषों के लिए विभिन्न ड्रेस प्रोटोकॉल थे। उदाहरण के लिए- पुरुषों से कहा गया था कि सफेद मोजों को काले जूतों के साथ न पहनें। भगवान जाने क्यों। तो आपको क्या लगता है कि जब ये दिशानिर्देश जारी हुए तो बीजिंग के नागरिकों ने क्या किया होगा? मुझे बताया गया है कि दिशानिर्देशों का पालन किया गया! अनुपालन हुआ था। तो, इस विचार प्रयोग को करके देखें कि अगर भारत सरकार ने इस तरह के दिशानिर्देश जारी किए होते तो क्या हुआ होता?