मैं क्यों लिखता हूं- अमीश

दिमाग में एक विचार आया! मैंने उसके बारे में लिखने की जरूरत महसूस की। लेकिन मैं अनिश्चित था। मेरे परिवार ने जोरदारी से मेरा हौसला बढ़ाया। उन्होंने मुझसे कहा, ‘यार, यह अच्छा सुनाई दे रहा है, इसे लिख डालो।’ और मैं उनकी बात सुनने के लिए मजबूर हो गया। इसलिए नहीं कि मैं हमेशा वही करता हूं जो मेरा परिवार करने को कहता है। असली वजह यह थी कि जब मैं अपनी किताब पर काम नहीं कर रहा होता था तो मैं बेहद नाखुश रहता था। उस दौरान मैं बहुत जबर्दस्त दबाव वाली नौकरी में था। मैं बैंकिंग सैक्टर में काम करता था! हम वित्तीय दुनिया को तबाह करने में मसरूफ थे! इसमें बहुत समय और मेहनत लगती है… सही? मेरे पास किताब लिखने के लिए वक्त ही नहीं होता था। व्यावहारिक आदमी होने के कारण मैंने तर्कसम्मत काम किया! मैंने अपनी जिंदगी से ‘वक्त बर्बाद करने वाली हर गतिविधि’ को निकाल बाहर किया और खुद को बस तीन चीजों तक सीमित कर लिया: 1-अपनी नौकरी करना, 2-अपने परिवार के साथ वक्त बिताना और 3-अपनी किताब लिखना। मैंने टीवी देखना, पार्टियों में जाना, यहां तक कि व्यायाम करना तक बंद कर दिया। मगर फिर भी मुझे इतना वक्त नहीं मिल पा रहा था कि लिख सकूं। वास्तव में मैं केवल इतवारों को लिख रहा था।

फिर मेरी पत्नी को कुछ सूझा। उन्होंने कहा कि मैं रोजाना आॅफिस आने-जाने में दो-तीन घंटे बर्बाद कर रहा हूं। मैं मुंबई में था और रोजाना ड्राइव करके काम पर आता-जाता था। और कुछ कहना जरूरी है? उन्होंने राय दी कि हम एक ड्राइवर रख लें। उन दिनों ड्राइवर आसानी से उपलब्ध थे, और प्रतिमाह पांच हजार रुपए का वह बेहतरीन निवेश था जो मैंने अपनी जिंदगी में कभी किया।

जल्दी ही मैं अपनी कार की पिछली सीट पर अपनी किताब लिख रहा था। इसमें मुझे चार-पांच साल लगे, लेकिन आखिरकार किताब सामने आ गई।

मुझे बताया गया है कि इस कमरे में कुछ लेखक भी हैं। गैर-लेखकों को ऐसा लग सकता है कि एक बार किताब लिख ली गई तो बस काम खत्म। दरअसल नहीं, दूर-दूर तक नहीं। आपको इसे प्रकाशित करवाना होता है, जो अपने आप में एक नई कहानी है। मेरे एजेंटों और मैंने भारतीय प्रकाशन उद्यागे के गलियारां में बेहिसाब चक्कर लगाए। मुझे चेतावनी दी गई थी कि भारतीय प्रकाशन जगत बहुत विचित्र है। आप ग्यारह प्रकाशकों को एक कमरे में बंद कर दें और मुमकिन है कि आपको बारह राय मिलें! लेकिन मुझे घोर आश्चर्य हुआ! मेरी किताब पर दुर्लभ एक राय थी। हर उस प्रकाशक का, जिसने मेरी किताब पढ़ी थी, ख़्याल था कि यह किसी भी सूरत में चलने वाली नहीं है। सबने इनकार कर दिया। कितनों ने? सच कहूं तो बीस के बाद मैंने गिनना ही बंद कर दिया था। बात कहीं नहीं पहुंच रही थी। कुछेक प्रकाशक इतने मेहरबान थे कि उन्होंने मुझे मेरी किताब को रिजेक्ट करने की वजह बताई। एक ने राय दी कि मैं अपनी किताब से हर पाठकवर्ग को अलग कर दूं। मैंने कहा: ठीक है, कैसे? उसने कहा, ‘देखिए, आप धर्म पर लिख रहे हैं जिसमें युवावर्ग को रुचि नहीं होती। धर्म के विषय में आपका अपना नजरिया है, आप अपारंपरिक हैं, और बड़े-बुजुर्गों को यह पसंद नहीं आएगा। अंत में, आपकी दिलचस्पी मॉडर्न, आसान अंग्रेजी में लिखने में है जिसका मतलब है कि विद्वान लोग इसे पसंद नहीं करेंगे। तो आखिर आप लिख किसके लिए रहे हैं? आप इसे किस पाठकवर्ग को बेचने की योजना बना रहे हैं?’ मैंने कहा, देखिए, अपनी किताब लिखने से पहले मैंने मार्केट रिसर्च तो की नहीं थी, मैंने तो किताब लिखी थी। खैर, मुद्दे की बात यह थी कि मेरी किताब को सबने रिजेक्ट कर दिया था।

मगर, मेरी पत्नी बेहद अच्छी, सहयोगपूर्ण महिला हैं। मुझे लगता है कि मेरे जैसे रचनात्मक रूप से दिवालिया इंसान ने वाकई कोई किताब लिखी है, इस बात से वे इतनी हतप्रभ थीं कि वे हर मुमकिन तरीके से इसका साथ देने के लिए कटिबद्ध थीं। उन्होंने राय दी कि अगर जरूरत पड़ी तो हम अपने कुछ खर्चे कम कर देंगे, मगर खुद किताब को प्रकाशित करवाएंगे। भले ही इसका मतलब यह हो कि हम केवल किताब को प्रकाशित करवा पाएंगे और उसे अपने परिवार और मित्रों में मुफ़्त बांटेंगे। मैंने कहा: ठीक है, अच्छा है, शुक्रिया, स्वीटहार्ट। मगर मेरे पिटारे में आश्चर्य अभी बाकी थे। बहुत समय से परेशान हो रहे मेरे एजेंट, जिन्होंने मेरी किताब हरेक प्रकाशक को भेजी थी और जिनके मुंह पर हर दरवाजा बंद कर दिया गया था, वे भी इस किताब में मेरे यकीन से प्रभावित थे। उन्होंने पेशकश रखी कि अगर मैं मार्केटिंग में निवेश करूं तो वे प्रिंटिंग में निवेश कर सकते हैं। मैंने कहा: ठीक है, शुक्रिया, दोस्त।

इस ईश्वरकृत साझेदारी से मेरी किताब, ‘द इमॉर्टल्स आॅफ मेलूहा’ मार्च 2010 में लॉन्च की गई। मुझे कतई कोई अपेक्षा नहीं थी, लेकिन लॉन्च के पहले हफ़्ते में ही किताब वास्तव में बैस्टसेलर्स के चार्ट में पहुंच गई थी।

तो मेरे कहने का मुद्दा क्या है? क्या यह कि अगर आप अपनी आत्मा की सलाह पर चलें तो यकीनन सफलता पा लेंगे? यह सच हो सकता है लेकिन इस मुद्दे को तो कितने लोग साबित कर चुके हैं, वे लोग जो मुझसे कहीं ज्यादा ज्ञानी थे, उस भाषा में जो मेरी भाषा से कहीं ज्यादा काव्यात्मक है। मेरा नुक़्ता पूरी तरह से अलग है। वह यह है कि अगर आप अपनी आत्मा की आवाज सुनें और अपने जीवन का उद्देश्य पा लें, तो सफलता या असफलता वास्तव में अपने मायने खो देती हैं। और यही वह शानदार स्थान है जो मैंने खोजा था।

जब मैं बैंकिंग में था, तब अगर मुझसे कहा जाता कि मैं सफलता के अपने सारे प्रलोभन छोड़ दूं: कांच की दीवारों वाला केबिन, बोनस, तनख्वाह, निजी सहायक, सीनियर मैनेजमेंट का ओहदा… और फिर पूछा जाता कि क्या अपने बैंकिंग कैरियर में मैं समान रूप से खुश रहूंगा तो ईमानदारी भरा जवाब होता नहीं, मैं खुश नहीं रहूंगा। मेरे लिए अपने बैंकिंग कैरियर को पसंद करने की पहली शर्त सफलता थी। ऐसे भी अवसर आए जब मुझे वे प्रमोशन नहीं मिले थे जिनके लिए मैं खुद को हकदार मानता था, या वे बोनस जो उनसे कम थे जो मुझे मिलने चाहिए थे। ऐसे मौकों पर केवल मेरा हौसला ही नहीं, मेरी व्यक्तिगत खुशी भी रसातल में गिर जाती थी। लेकिन मेरे लेखन के कैरियर में कहानी बिल्कुल अलग है। अगर कोई मुझसे कहता कि मेरी किताबें सुपर फ़्लॉप रहेंगी! कि द इमॉर्टल्स आॅफ मेलूहा और द सीक्रेट आॅफ द नागाज उस तरह नहीं बिकेंगी जिस तरह बिकी हैं, कि उनकी केवल पच्चीस-पच्चीस प्रतियां ही बिकेंगी!

तब भी क्या मैं खुश होता? ईमानदारी का जवाब है हां। लेखन के मेरे कैरियर में सफलता या असफलता वाकई बेमानी हो गई हैं। उस समय भी जब सारे प्रकाशक, वाम, दक्षिण और केंद्रीय -मेरी किताब को रिजेक्ट कर रहे थे, मैंने एक पल के लिए भी यह नहीं सोचा कि किताब लिखकर मैंने अपना वक्त बर्बाद किया। तब भी जब लग रहा था कि मेरी किताब कभी प्रकाशित नहीं होगी, मैं अपनी दूसरी किताब लिखने लगा था। मैं जानता था कि अगर मेरी किताबें नाकाम भी रहती हैं तब भी मैं बैंकिंग सैक्टर में तो काम कर ही रहा होऊंगा। मगर मैं लिखता भी रहूंगा, भले ही मेरी किताबें मेरे लैपटॉप में ही रहें। भले ही मेरी किताबें पढ़ने वाले लोग केवल लंबे समय से त्रस्त मेरे परिवार के लोग ही हों! मैं लिखना जारी रखूंगा। और यह एक शानदार स्थिति है। क्योंकि तब सफर खुद आनंदमय हो जाता है और मंजिल बेमानी हो जाती है।
मेरी मां, जो कि बेहद जहीन महिला हैं, ने एक बार मुझसे कहा था कि अगर तुम्हें कभी पता लगे कि तुम्हारा काम खुद तुम्हें आनंद दे रहा है और कि नाकामी तुम्हारे दिल को उदास नहीं करती है, और कामयाबी तुम्हारे मन में अहं भाव नहीं भरती तब तुम जान लोगे कि तुम अपनी आत्मा के उद्देश्य के साथ, अपने स्वधर्म के साथ तालमेल में काम कर रहे हो। मैं उसी शानदार स्थिति में हूं।

जब भी मैं लिखता हूं या अपनी किताबों से जुड़ा कोई काम करता हूं, तो मैं अपने अंदर एक अथाह, गहन और सतत प्रसन्नता महसूस करता हूं। मेरे लिए, यह जीवन का सबसे बड़ा वरदान है। और यह वरदान हममें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपलब्ध है! हमें करना बस यह है कि अपनी आत्मा की आवाज को सुनें और अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पाएं।

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