महावीर का उल्लेख नहीं किया ब्राह्मणों ने अपने शास्त्रों में। बुद्ध की जड़ें काट डाली। बुद्ध के विचार को उखाड़ फेंका। लेकिन रैदास में कुछ बात है कि रैदास को नहीं उखाड़ सके और रैदास को स्वीकार भी करना पड़ा, ब्राह्मणों के द्वारा लिखी गई संतों की स्मृतियों में रैदास सदा स्मरण किए गए। चमार के घर में पैदा होकर भी ब्राह्मणों ने स्वीकार किया, वह भी काशी के ब्राह्मणों ने, रैदास की बात कुछ अनेरी है, अनूठे हैं।
रैदास में कुछ रस है, कुछ सुगंध है जो मदहोश कर दे। रैदास से बहती है कोई शराब, कि जिसने पी वही डोला। और रैदास अड्डा जमा कर बैठे रहे काशी में, जहां की सबसे कम संभावना है, जहां का पंडित पाषाण हो चुका है। सदियों का पांडित्य व्यक्तियों के ह्रदयों को मार डालता है। उनकी आत्मा को जड़ कर देता है।
रैदास वहां खिले, फूले। रैदास ने वहां हजारों भक्तों को इकट्ठा कर लिया। और छोटे-मोटे भक्त नहीं, मीरा जैसी अनुभूति को उपलब्ध महिला ने भी रैदास को गुरू माना। मीरा ने कहां है- गुरु मिल्या रैदास जी, कि मुझे गुरु मिल गया है रैदास जी। भटकती फिरती थी, बहुतों में तलाशा था, लेकिन रैदास को देखा कि झुक गई। चमार के सामने राजरानी झुके तो बात कुछ रही होगी।वह कमल कुछ अनूठा रहा होगा, बिना झुके न रहा जा सका होगा।
भारत का आकाश संतों के सितारों से भरा है। अनंत-अनंत सितारे हैं, यद्यपि ज्योति सबकी एक है। संत रैदास उन सब सितारों में ध्रुवतारा हैं।इसलिए कि शूद्र के घर में पैदा होकर भी काशी के पंडितों को भी मजबूर कर दिया स्वीकार करने को।
रैदास कबीर के गुरूभाई हैं। रैदास और कबीर दोनों एक ही संत के शिष्य है। रामानंद गंगोत्री हैं जिनसे कबीर और रैदास की धाराएं बही हैं। रैदास के गुरु हैं रामानंद जैसे अद्भुत व्यक्ति, और रैदास की शिष्या है मीरा जैसी अद्भुत नारी। इन दोनों के बीच में रैदास की चमक अनूठी है। रामानंद को लोग भूल ही गए होते अगर रैदास और कबीर न होते। रैदास का अगर एक भी वचन न बचता और सिर्फ मीरा का यह कथन बचता, गुरु मिल्या रैदास जी, तो काफी था क्योंकि जिसको मीरा गुरु कहे, वह कुछ ऐसे-वैसे को गुरु न कह देगी।
बुद्ध की भाषा बहुत मंजी हुई है, राजपुत्र की भाषा है। शब्द नपे-तुले हैं। शायद कभी कोई मनुष्य इतने नपे-तुले शब्दों में नहीं बोला जैसा बुद्ध बोले हैं। लेकिन बुद्ध को भी तर्क का तूफान सहना पड़ा और बुद्ध की भी जड़े उखड़ गई। भारत से बुद्ध धर्म विलीन हो गया। रैदास ने फिर बुद्ध की बातें ही कहीं है पुन: लेकिन भाषा बदल गई, उसमें नया रंग डाला। पात्र वही था। बात वही थी, शराब वही थी, नई बोतल दी। और रैदास को नहीं उखाडा जा सका।
रैदास चमार हैं। जैसे किसी गहन अंतस्तल में बुद्ध अभी भी गूंज रहे हैं। वही आग लेकिन रैदास ने उस आग को आग नहीं बनने दिया, उस आग को रोशनी बना दिया। आग जला भी सकती है और प्रकाश भी दे सकती है। बुद्ध के वचन अंगारों जैसे हैं। बड़ा साहस चाहिए उन्हें पचाने का। अंगारे पचाओगे तो साहस तो चाहिए ही चाहिए। रैदास के वचन फूल जैसे हैं । पचा जाओगे तब पता चलेगा कि आग लगा गए। आग के फूल हैं। आग की फुलझडियां हैं। देखने में फूल लगते हैं। इसलिए बुद्ध तो स्वीकार नहीं हो सके लकिन रैदास को हिंदुओं ने भक्त शिरोमणि कहा है।भक्त माला में रैदास को और भक्तों के साथ गिना गया है।
                                                          (संदर्भ : ओशो प्रवचनमाला — मन ही पूजा मन ही धूप)
प्रस्तुति- अजय विद्युत