रमेश कुमार ‘रिपु’

माओवादियों के घात लगाकर हमला करने की घटना में भले कमी आई है लेकिन ऐसा नहीं है कि वे अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं जैसा कि सरकार दावा कर रही है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने इसी साल 17 मार्च को लोकसभा में बताया था कि देश में वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित जिलों की संख्या 106 से घटकर 68 रह गई है। इनमें 35 सबसे ज्यादा प्रभावित जिले आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र के हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद को सबसे खतरनाक बताया था। आज नक्सलवाद का खतरा पहले से कम हुआ है। छत्तीसगढ़ में ही नक्सलवाद का क्षेत्र 5,000 वर्ग किलोमीटर था जो आज सिकुड़कर 2,000 वर्ग किलोमीटर से भी कम हो गया है। बावजूद इसके नक्सली पूरी तरह टूट गए हैं, ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। इसलिए कि उन्होंने अपने लिए एक अलग गढ़ तलाश लिया है।

मध्य प्रदेश के बालाघाट, छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव, कवर्धा, मुंगेली और महाराष्ट्र के गोंदिया को मिलाकर नक्सलियों ने नया लाल कॉरीडोर बना लिया है। पुलिस ने इसे आरजीबी (राजनांदगांव, गोंदिया और बालाघाट) नाम दिया है जबकि नक्सलियों ने एमएमसी (महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़)। बस्तर के सभी सात जिलों में सुकमा नक्सलियों का गढ़ है जहां वे अब भी हिंसक लड़ाई लड़ रहे हैं। माओवादी नहीं चाहते कि नक्सल प्रभावित जिलों में सड़कें बनें। वे इसकी भी लड़ाई लड़ रहे हैं।

सड़कों से कमजोर हुए नक्सली
नक्सल आॅपरेशन के एडीजी डीएम अवस्थी कहते हैं, ‘माओवादी जानते हैं कि सड़कें बन गर्इं तो उनकी ताकत आधी भी नहीं रहेगी। सड़कें होने से सुरक्षा बलों की रफ्तार बढ़ जाती है। छत्तीसगढ़ के दक्षिणी क्षेत्र में माओवादियों ने सैकड़ों बार सड़कें खोदी। बारूदी सुरंगे बिछाई। अब भी बिछाते हैं। पुल पुलियों को धमाकों से उड़ाया। लेकिन अब जगह-जगह सड़कें बन जाने से वे कमजोर हो गए हैं। बस्तर नक्सल मुक्त होने की दिशा में अग्रसर है।’ प्रदेश के नक्सली क्षेत्र बीजापुर, नारायणपुर, दंतेवाड़ा और अबूझमाड़ के दुर्गम पहाड़ी जंगल के करीब 4,000 वर्ग किलोमीटर भूभाग में फैले हैं। यह इलाका वामपंथी उग्रवाद का ठिकाना है। वे यहां अब भी अपनी समानांतर सरकार चलाते हैं जिन्हें जनताना सरकार कहते हैं। जंगल का डर और सुकमा का डर एक समान है। सुकमा जिले की सरहद ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से मिलती है जिसे माओवादियों की हुकूमत की असली राजधानी कहा जाता है। इसी जिले की सरहद पर दो और माओवाद प्रभावित जिले हैं। ओडिशा का मलकानगिरी और तेलंगाना का कोथागुडेम जिला। यानी आंध्र, तेलंगाना और ओडिशा के माओवादी भागकर या फिर हिंसा मचाने छत्तीसगढ़ आ जाते हैं।

माओवादी नहीं चाहते कि सड़कों का जाल बस्तर में बिछे लेकिन सरकार भी जानती है कि सड़कों का जाल बिछने से ही माओवादियों को उनके ठिकाने में घुसकर मारना आसान होगा। सड़कों के निर्माण में कई जवान शहीद हो चुके हैं। इसी साल 11 मार्च को भेज्जी- इंजीरम की सड़क निर्माण की सुरक्षा में लगे 12 जवान शहीद हुए थे। जबकि 24 अप्रैल को दोरनापाल से जगरगुंडा के बीच बनाई जा रही सड़क में 26 जवान शहीद हुए। बस्तर संभाग में नक्सली वारदात को देखा जाए तो पिछले 12 सालों में सुरक्षा बल के 968 जवान शहीद हुए हैं और 939 माओवादी मारे गए हैं। 2,067 माओवादियों ने सरेंडर किया है और 4,945 नक्सली गिरफ्तार किए गए। इनमें से 149 माओवादियों को सजा हुई है। माओवादियों की हिंसक वारदात में 760 नागरिकों की भी मौत हुई है। लाल गलियारा कितनी मौतों का गवाह और बनेगा ये न तो नक्सलियों की गोली जानती है और न ही सरकार।

सरकार की लापरवाही
माओवादियों की लड़ाई में सरकार की लापरवाही अक्सर सामने आती रहती है। यही वजह है कि नक्सली अभी तक पस्त नहीं हुए हैं। चौंकाने वाली बात है कि देश की आंतरिक सुरक्षा में तैनात सीआरपीएफ के 7,000 से अधिक जवान नौकरी छोड़ कर चले गए। इसी साल छत्तीसगढ़ में चार जवानों ने खुद को गोली मार ली। एक ही अफसर पर कई कंपनियों का दायित्व है। इसके अलावा बिना तैयारी के सीआरपीएफ के जवानों को माओवादी इलाके में भेज दिया जाता है। 24 अप्रैल, 2017 को हुए नक्सली हमले में एक इंस्पेक्टर पर दो कंपनियों का प्रभार था। जबकि इतने बड़े बल की अगुआई के लिए पांच अफसर होने चाहिए थे। सुरक्षा बल के जवान जंगलों में मच्छरों के बीच रहते हैं। उनके लिए पानी तक की उचित व्यवस्था नहीं है। यही नहीं, नक्सलियों से लड़ने के लिए सीआरपीएफ को सुरक्षा उपकरणों की खरीद की मंजूरी तो दी गई लेकिन इन्हें खरीदा नहीं गया। माइन प्रोटेक्टेड व्हीकल (एमपीवी), थर्मल इमेजर, जमीन को भेदने वाला रडार, बख्तरबंद गाड़ियां तक सीआरपीएफ के पास नहीं हैं।

अकेले बस्तर के नक्सली क्षेत्र में अब तक माइन लगाकर विस्फोट करने की 50 से ज्यादा वारदात हो चुकी हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय कोे 2017 के बजट में लगभग 83,000 करोड़ रुपये दिए गए हैं। इनमें से 17,868 करोड़ रुपये सीआरपीएफ के लिए दिए गए हैं। छत्तीसगढ़ में वायुसेना के हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल मृतक और घायल जवानों को लाने ले जाने के लिए किया जाता है। यहां नक्सलियों ने एक हेलीकॉप्टर को मार गिराया था। उसके बाद से हेलीकाप्टर की कॉकपिट को बख्तरबंद इस्पात की चादरों से बनाया गया। अगर सेना का इस्तेमाल नक्सली क्षेत्र में किया जाए तो माओवाद से जल्द मुक्ति मिल सकती है। नक्सल गतिविधियों पर नजर रखने के लिए अभी तक भिलाई और हैदराबाद से ड्रोन का संचालन होता था लेकिन अब बस्तर से संचालन करने की योजना कोे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मंजूरी दे दी है। इससे बस्तर संभाग में माओवादियों की गतिवधियों पर आसानी से त्वरित आॅपरेशन संभव हो सकेगा।

इनामी नक्सलियों का खौफ
लाल गलियारे से तौबा करने वाले इनामी नक्सलियों की सूची बेहद लंबी है। कुछ चर्चित नक्सलियों के सरेंडर करने और उनके समाज की मुख्य धारा में शामिल होने से उन माओवादियों को भी बल मिला है जो सरेंडर करना चाहते हैं। हालांकि अभी भी कई ऐसे इनामी नक्सली हैं जिनकी दहशत का राज चलता है। इनमें कई महिला नक्सली भी शामिल हैं। ये महिलाएं पुलिस के लिए बला हैं। 25 लाख रुपये का इनामी माओवादी गणेश उइके दंडाकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी का सदस्य और दक्षिण जोनल का ब्यूरो सचिव है। वह पश्चिम और दक्षिण बस्तर को संभालता है। महिला नक्सलियों में कुमारी वनोजा पर 8 लाख, कुमारी सोढ़ी लिंगे पर 5 लाख एवं माड़वी मंगली पर 3 लाख रुपये का इनाम है। नारायणपुर के धौड़ाई इलाके में सीआरपीएफ की टुकड़ी पर हमले में 27 जवान शहीद हुए थे। इस हमले की मास्टर माइंड सुकाय वेट्टी पर दस लाख रुपये का इनाम था। उसने सरेंडर कर दिया है। भेज्जी थाने पर हमला कर 12 जवानों की हत्या में शामिल सुक्का मरकाम पर 8 लाख रुपये का इनाम है। बुधराम सोढ़ी 1 लाख का इनामी है। 8 लाख का इनामी भीमा दक्षिण बस्तर बटालियन के कंपनी नंबर एक में किस्टारम का सक्रिय सदस्य है। वह बुरकापाल, भेज्जी, कसालपाड़ में पुलिस पर हमले आदि में शामिल रहा है। एक लाख का इनामी मलंगीर एरिया कमेटी एलओएस कमांडर विज्जे के साथ काम करता है।
सुकमा के एसपी अभिषेक मीणा ने बताया कि 17 सितंबर को मुठभेड़ के बाद जब जवानों ने मुठभेड़ वाली जगह का मुआयना किया तो मौके पर तीन-चार जगह खून के धब्बे मिले। इससे मालूम होता है कि मुड़भेड़ में 3 से 4 नक्सली और मारे गए हैं और कुछ घायल भी हुए हैं। मौके से 12 बोर की बंदूक, भरमार, एक वायरलेस सेट, 13 डेटोनेटर कोडेक्स वायर, रेडियो, बैटरी, 15 पिट्ठू बैग, सोलर प्लेट सहित भारी मात्रा में नक्सल सामग्री बरामद की गई है। पांच लाख रुपये का इनामी नक्सली दीपक जो गोलापल्ली एलओएस का एरिया कमेटी का मेंबर था और एक लाख का इनामी माड़वी पोदीया जो बुर्कलंका का एलओएस सदस्य था, वह भी मारा गया।

नक्सलियों का कुनबा घटा
प्रदेश सरकार ने अबूझमाड़ का राजस्व सर्वे शुरू किया तो माओवादियों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। अप्रैल से शुरू हुए सर्वे में साथ देने वाले ग्रामीणों को माओवादी चुन-चुन कर मार रहे हैं। पिछले सात महीने में माओवादी राजस्व सर्वे में सहयोग देने वाले डेढ़ दर्जन लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। यहां के एसपी संतोष सिंह कहते हैं, ‘दूरस्थ अंचल में कैंप न होने से लगातार सर्चिंग संभव नहीं होती। फिर भी पुलिस पहुंचती रहती है। अंदरूनी इलाके में विकास के काम तेजी से चल रहे हैं। इससे माओवादियों को अपने संगठन के वजूद की चिंता सताने लगी है। वे ग्रामीणों की हत्या कर दहशत फैला रहे हैं।’ अबूझमाड़ में 36 ग्राम पंचायतें और 237 गांव हैं। इनमें से 206 गांव आबाद हैं और 31 वीरान। यहां की आबादी 33,558 है। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बुरकापाल की घटना के बाद से माओवादियों की मांद में घुसकर सुरक्षा बलों के लगातार हमला करने से वे बैकफुट पर आ गए हैं। इस साल तो बारिश में भी सीआरपीएफ शांत नहीं बैठी। इस वजह से माओवादियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। बारिश में होने वाली नई भर्ती अभियान में भी माओवादी लीडरों को उम्मीद से कम सफलता मिली है। यही वजह है कि उनका कुनबा बढ़ने की बजाय घटा है।

नक्सलवाद खात्मे की ओर : रमन
मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कहते हैं, ‘बस्तर में नक्सलवाद खात्मे की स्थिति में है। बावजूद इसके अब भी सरकार के दरवाजे खुले हैं। माओवादी जब चाहें तब बात कर सकते हैं, समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकते हैं। सरकार के नरम रुख को माओवादी अगर कमजोरी समझ रहे हैं तो यह उनकी भूल है। हमारे जवान गुप्त सूचना के आधार पर आॅपरेशन चला रहे हैं। पुलिस लगातार माओवादियों के कैंप नष्ट कर रही है। यही वजह है कि माओवादी गतिविधियों में पहले से बहुत कमी आई है। वे कमजोर भी हुए हैं।’ रमन सिंह के इस दावे के उलट पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी आरोप लगाते हैं, ‘सरकार नहीं चाहती कि प्रदेश से नक्सलवाद खत्म हो। सरकार के लिए नक्सलवाद खाद बीज का काम करते हैं। सरकार की ढुलमुल नीति की वजह से ही नक्सलवाद आए दिन सिर उठाता रहता है। अब तो नक्सली शहर की ओर पलायन करने लगे हैं। सिर्फ बयानबाजी से नक्सलवाद खत्म नहीं होगा।’

सरकार और पुलिस दोनों कह रही है कि नक्सली कमजोर हुए हैं। मगर हकीकत यही है कि जहां सड़कें नहीं हैं वहां अब भी माओवादियों का ही राज चलता है। बस्तर में अभी भी 75 ऐसे मार्ग हैं जहां सड़कें होने के बाद भी अंदर के इलाके में उनकी ही परछाइयां डोल रही हैं। यानीनक्सली आग की लपट कम जरूर हुई है लेकिन बुझी नहीं है।