हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी के एनकाउंटर के बाद कश्मीर घाटी में जो हालात पैदा हुए हैं उसके लिए सिर्फ तात्कालिक कारण जिम्मेदार नहीं हैं। कई ऐसे पहलू हैं जिसकी वजह से यह स्थिति बनी। इन पहलुओं पर श्रीनगरसे फरजाना मुमताज की रिपोर्ट
करीब दो महीने पहले सुरक्षा बलों के एनकाउंटर में एक आतंकी के मारे जाने के बाद कश्मीर में अशांति और विरोध का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब तक जारी है। अगर इसके पीछे की वजहों को ढूंढें तो कई ऐसे कारक हैं जिसकी वजह से सेना, राज्य व केंद्र सरकारों को हालात सामान्य बनाने में पसीने छूट रहे हैं। लोग निडर होकर सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसा रहे हैं। यहां तक की एनकाउंटर के दौरान भी, खासकर दक्षिण कश्मीर में सुरक्षा बलों को उनके गुस्से का सामना करना पड़ रहा है। पत्थरबाजों में युवाओं, बच्चों के अलावा महिलाएं भी शामिल हैं। पम्पोर में हुए आत्मघाती हमले जिसमें सेना के कुछ जवान मारे गए और प्रतिष्ठित जेकेईडीआई बिल्डिंग जिसमें आत्मघाती हमलावर छिप गए थे, को ढहाने के दौरान भी सुरक्षा बलों को स्थानीय लोगों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। यह उनके लिए काफी चिंताजनक स्थिति है।
कश्मीर की स्थिति का विश्लेषण करें तो पहली नजर में यही लगता है कि जम्मू-कश्मीर में उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के मिलन वाली पीडीपी-भाजपा की सरकार बनने के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्तों पर जो बर्फ जमी है मौजूदा अशांति के पीछे यह बड़ी वजह है। इसके अलावा कश्मीर के अलगाववादियों से लंबे समय से केंद्र सरकार की कोई वार्ता नहीं हुई है। मगर सिर्फ ऐसा ही नहीं है। पिछले एक साल में कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनकी अनदेखी अब भारी पड़ रही है।
संकेतों की अनदेखी
घाटी की मौजूदा अशांति के संकेत तो इस साल 13 फरवरी को ही मिल गए थे जब पुलवामा के खांडे मोहल्ला में सुरक्षा बलों की कार्रवाई से स्थानीय आतंकवादियों को बचाने के लिए लोग सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने लगे। सुरक्षा बलों की जवाबी कार्रवाई में दानिश राशिद नाम का एक युवक और शाइस्ता हामिद नाम की एक युवती की मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए। इसके बाद लोगों का गुस्सा और भड़क गया। विरोध प्रदर्शन के बाद मामला तो शांत हो गया मगर अंदर ही अंदर उनके मन में आग सुलगती रही। यह आग अब पूरी तरह से भड़क चुकी है।
इंटरनेट की पैठ
हाल के कुछ सालों में देश-विदेश में राजनीतिक और नागरिक आंदोलनों में इंटरनेट की भूमिका अहम रही है। कश्मीर भी इससे अछूता नहीं है। 2010 में जब कश्मीर में अलगाववादियों के समर्थन से व्यापक तौर पर विरोध प्रदर्शन हुए थे तो युवाओं को एकजुट करने और उन्हें भड़काने में पहली बार इंटरनेट का खूब इस्तेमाल किया गया था। इसके बाद तो इंटरनेट का यहां तेजी से विस्तार हुआ। आज स्थिति यह है कि कश्मीर के 95 फीसदी युवाओं के फेसबुक या दूसरी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट पर अकाउंट हैं। उन पर उन्होंने छोटे-छोटे ग्रुप बना रखे हैं और अपनी बातों और विचारों के अलावा आस-पास होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं की जानकारी एक दूसरे तक पहुंचाते हैं। बहुतों का मानना है कि इस बात की पूरी संभावना है कि कश्मीर में इंटरनेट के जरिये फर्जी खबरों और प्रोपेगेंडा फैलाने वाली चीजों को लोगों तक पहुंचाया जा रहा है ताकि उनका गुस्सा भड़के और इसका इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों में किया जा सके।
अलगाववादियों और भारत विरोधी तत्वों के बीच इंटरनेट की पैठ तेजी से बढ़ रही है। यहां तक कि कश्मीर के ग्रामीण इलाके के लोग भी इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। यही वजह है कि ग्रामीण इलाकों में भी आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई के दौरान स्थानीय लोग बड़ी संख्या में एकत्र होकर उनकी कार्रवाई में बाधा पहुंचाते हैं।
मौजूदा अशांति की वजह
आठ जुलाई को हिजबुल मुजाहिदीन का कमांडर बुरहान वानी सुरक्षा बलों के साथ एनकाउंटर में मारा गया। राज्य सरकार ने उसकी मौत को अन्य आतंकवादियों की मौत की तरह ही माना। वह यह समझने में चूक गई कि उसकी मौत पर लोगों का गुस्सा इस कदर भड़केगा। यही वजह थी कि उसके जनाजे के लिए सुरक्षा के व्यापक इंतजाम नहीं किए गए और मामूली सख्ती बरती गई। मगर जब नौ जुलाई को जनाजे में लोगों का हुजूम उमड़ा तब समझ में आया कि वह युवाओं के बीच कितना लोकप्रिय था। उसके शव के सुपर्द-ए-खाक के बाद जनाजे में शामिल लोगों ने सुरक्षा बलों पर पत्थर बरसाने शुरू किए तो हालात को संभालना मुश्किल हो गया। तब से लेकर अब तक कश्मीर घाटी सुलग रही है।
राज्य पुलिस द्वारा कथित रूप से प्रताड़ित किए जाने के प्रतिरोध में बुरहान ने आतंक का रास्ता अपनाया था। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के बखूबी इस्तेमाल से ही उसने अपनी अलग पहचान बना ली थी। उसे इसमें एक तरह से महारत हासिल हो गई थी। एक आतंकवादी के रूप में अपनी पहचान छुपाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। इसी का नतीजा था कि उसे घर-घर में पहचाना जाने लगा था। खासकर युवक-युवतियों में वह काफी लोकप्रिय हो गया था। वह कश्मीर में आतंक का पोस्टर ब्वॉय बन गया था।
नेतृत्वविहीन प्रदर्शन
कश्मीर में यह पहला मौका है जब बिना किसी नेतृत्व के इतने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है। इससे पहले 2010 में हुर्रियत के नेतृत्व में व्यापक विरोध हुआ था मगर उसका कोई नतीजा नहीं निकलता देख हुर्रियत ने इसे वापस ले लिया था। हालांकि उस समय भी हालात इसी तरह बदतर हो गए थे। मगर इस बार गुस्साए युवाओं ने उन्हें अपने प्रदर्शन से दूर ही रखा क्योंकि वे जानते हैं कि उनके पास अब ज्यादा राजनीतिक ताकत नहीं है और उनका नेतृत्व अस्थायी है।
मौजूदा हालात में मुख्यधारा के राजनीतिकों को लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। स्थानीय लोग कश्मीर के नेताओं पर इस बात का दबाव बना रहे हैं कि वे भारत समर्थन की राजनीति छोड़ दें। उनका मानना है कि सिर्फ भारत समर्थन की राजनीति से कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीति प्रभावित हो रही है। लोगों का दबाव नेताओं पर इस कदर है कि उनके द्वारा चुने गए विधायकों को अपने इलाके में रहना मुश्किल हो रहा है।
अलगाववादियों की भूमिका
नेतृत्वविहीन होने के बावजूद व्यापक प्रदर्शन से कश्मीर के अलगावादी नेता खुश हैं। उनका मानना है कि इससे उनका एजेंडा तो पूरा हो ही रहा है, उन पर किसी तरह की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है। पिछले तीन दशक से कश्मीर में फैले आतंक के इतिहास में यह पहला मौका है जब किसी आतंकवादी की मौत के बाद अलगाववादियों को कश्मीर बंद का आयोजन अपनी इच्छा से नहीं बल्कि लोगों के दबाव में करना पड़ा है। वैसे भी उनका राजनीतिक वजूद अब मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर उनकी मौजूदगी के जरिये ही बचा है।
पाकिस्तानी फैक्टर
कश्मीर की जमीनी हकीकत की जानकारी रखने वाले बता रहे हैं कि इस बार के विरोध प्रदर्शन में पाकिस्तान की भूमिका सीमित है। वह सिर्फ बयानों और दूसरे संभावित विध्वंसकारी उपायों से ही प्रदर्शनकारियों को समर्थन दे रहा है। उनका मानना है कि प्रदर्शनकारियों की रैलियों के दौरान जिस तरह से पाकिस्तान के समर्थन में नारे लग रहे हैं, उसे देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि पाकिस्तान मौजूदा विरोध प्रदर्शन में बड़ा फैक्टर है।
केंद्र की भूमिका
मौजूदा हालात को संभालने में केंद्र सरकार की ओर से जिस सावधानी की उम्मीद थी, उसे झटका लगा है। जानकारों का कहना है कि केंद्र के अड़ियल रवैये के चलते ही विरोध का सिलसिला लंबा खिचा। यहां तक कि केंद्र के प्रति जिनका रवैया उदार है, उन्होंने भी सोशल नेवर्किंग साइट्स पर जाहिर अपने विचारों में केंद्र के इस कदम की आलोचना की। इसके अलावा केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों की ओर से दिए गए बयानों, जिसमें उन्होंने अशांति फैलाने वालों को पाकिस्तानी एजेंट, हुड़दंगी, पैसे लेकर पत्थरबाजी करने जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया, उससे भी केंद्र और कश्मीर के बीच की खाई चौड़ी हुई।
निजी कंपनियों का अभाव
पिछले तीन दशक से कश्मीर घाटी में फैली हिंसा की वजह से निजी क्षेत्र की कंपनियों ने यहां से दूरी बना रखी है। यहां के पढ़े-लिखे युवाओं के लिए सरकारी नौकरी ही सबसे बड़ा विकल्प रह गया है। मगर उसमें भी सीमित जगह ही होती है। कश्मीर के लाखों पढ़े-लिखे युवक-युवती बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। टेलीकॉम कंपनियों को छोड़कर निजी क्षेत्र की किसी भी कंपनी की यहां मौजूदगी नाममात्र की है। प्राइवेट नौकरी के नाम पर युवाओं के लिए टेलीकॉम कंपनियां ही एकमात्र साधन हैं मगर उनके पास भी नौकरियां सीमित हैं। ऐसे में युवाओं की बढ़ती निराशा हालात को बदतर बनाने में मददगार साबित हो रही है।
नाकाम स्कॉलरशिप और शिक्षा योजना
2010 के व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार ने कश्मीर घाटी के विद्यार्थियों के लिए बड़े पैमाने पर योजनाएं शुरू की थी। उनके लिए देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में जगह बनाई गई। साथ ही प्रधानमंत्री स्कॉलरशिप योजना के तहत उनकी पढ़ाई के लिए धन का इंतजाम किया गया था। इसका फायदा तब काफी विद्यार्थियों को मिला। इससे यह माना जा रहा था कि कश्मीर का देश के बाकी हिस्सों से जुड़ाव बढ़ेगा। मगर जैसे-जैसे समय बीतता गया कश्मीरी छात्रों को कम महत्वपूर्ण कॉलेज मिलने लगे और उनकी फीस भी समय पर जमा नहीं हो पाती। इसके अलावा इस योजना में धोखाधड़ी भी बढ़ गई। इससे यह प्रतिष्ठित योजना दम तोड़ने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि देश के बाकी हिस्सों से कश्मीरियों को जोड़ने की जो मुहिम शुरू की गई थी, वह दागदार हो गई।
निशाने पर पैलेट गन
हिंसक प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा पैलेट गन का इस्तेमाल काफी समय से किया जा रहा है। इसके इस्तेमाल से हिंसक भीड़ को तितर बितर करने में सुरक्षा बलों को काफी मदद मिलती है और जानमाल का नुकसान कम होता है। मगर इस बार इसका भयावह रूप देखने को मिला है। बेकाबू प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों ने इस बार भी पैलेट गन का इस्तेमाल किया मगर इस बार नुकसान ज्यादा हुआ क्योंकि प्रदर्शनकारी इससे भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। इसकी वजह से सैकड़ों लोगों खासकर युवाओं की आंखों की रोशनी चली गई। इससे नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सरकार की कठोरता उजागर करने का नया मौका मिल गया। अब इसके इस्तेमाल पर पाबंदी लगाने की उनकी ओर से जोरदार मांग हो रही है।
ग्रामीण प्रदर्शन
पिछले तीन दशक के इतिहास में यह पहला मौका है जब घाटी के प्रदर्शन में शहरी इलाके की तुलना में ग्रामीण इलाके के लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। प्रदर्शनों की संख्या, सुरक्षा बलों की ओर से मारे गए लोगों, कानून व्यवस्था की स्थिति, सरकारी प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचाने के आंकड़ों को देखें तो यही साबित हो रहा है कि इस बार पहले की तुलना में ज्यादा प्रतिरोध हो रहा है खासकर दक्षिण कश्मीर में। इस बार इसे लोग ग्रामीण प्रदर्शन का भी दर्जा दे रहे हैं।