मनोज चतुर्वेदी।

रियो ओलंपिक में भारत ने भले ही अब तक का सबसे बड़ा दल भेजा और उसके कुछ एथलीटों ने फ्लॉप शो के दौरान चमक भी बिखेरी, पर देश की इज्जत को बट्टा लगने से तीन लड़कियों ने ही बचाया है। जब भारत के एक-एक करके खिलाड़ी खराब प्रदर्शन करके राष्ट्र की पदक न जीत पाने की शर्मिंदगी को बढ़ाते जा रहे थे, उस समय शटलर पीवी सिंधु ने बैडमिंटन के महिला एकल में रजत, महिला पहलवान साक्षी मलिक ने फ्रीस्टाइल कुश्ती में कांस्य पदक हासिल कर भारत का नाम पदक तालिका में दर्ज कराकर यह तय किया कि दल खाली हाथ नहीं लौटेगा। और दीपा कर्माकर को कौन भूल सकता है जिसने महिला जिम्नास्टिक की वॉल्ट स्पर्धा में चौथा स्थान पाकर इतिहास रच दिया। सिंधु के इस मुकाम तक पहुंचने की खास बात यह है कि उनके आदर्श ने ही उन्हें यहां तक पहुंचाया। यह सभी जानते हैं कि सिंधु के माता-पिता विजया और पीवी रमन्ना वालीबाल खिलाड़ी थे, इसलिए वह वालीबाल को अपना सकती थी। लेकिन 2001 में पुलेला गोपीचंद को आॅल इंग्लैंड बैडमिंटन का खिताब जीतते देखकर ही सिंधु ने बैडमिंटन खिलाड़ी बनने का फैसला किया और फिर गोपीचंद ने ही अपनी ट्रेनिंग से सिंधु को ओलंपिक रजत पदक विजेता बनने में अहम भूमिका निभाई है।

चार साल पहले लंदन ओलंपिक में भी दो भारतीय महिलाओं शटलर सायना नेहवाल और मुक्केबाज एमसी मैरिकॉम ने कांस्य पदक जीते थे। लेकिन उस समय चार भारतीय पुरुष खिलाड़ी पहलवान सुशील और शूटर विजय कुमार (दोनों रजत पदक) और पहलवान योगेश्वर दत्त तथा गगन नारंग (दोनों कांस्य पदक) भी जीते थे। इस कारण भारतीय महिला खिलाड़ी सुर्खियां नहीं बटोर सकी थीं। लेकिन इस बार नारी शक्ति की वजह से ही भारतीय इज्जत बच सकी है। नारी शक्ति को लेकर देश में तमाम बातें चल रही हैं। यह भी कहा जा रहा है कि जिस देश में सवा अरब लोग महिलाओं की इज्जत को नहीं बचा पा रहे हैं, वहां दो भारतीय महिलाओं ने देश की इज्जत बचा ली। इसमें आप देखें तो कुछ भी गलत नहीं है। पर देश में एक वर्ग ऐसा भी है कि जो इस सफलता का श्रेय नारी शक्ति को देने के बजाय सारे देश को देने का पक्षधर है क्योंकि इन सफलताओं पर सारा देश झूमा है।

कोई भी देश हमेशा आगे बढ़ने का प्रयास करता है पर भारत पिछले चार सालों में और पीछे खिसक गया है। 2012 के लंदन ओलंपिक में भारत ने दो रजत सहित छह पदक जीते थे। लेकिन इस बार हम एक रजत और एक कांस्य पदक ही जीत सके हैं। लंदन में भारत छह पदकों के साथ 55वें नंबर पर था और अब दो पदक लेकर 67वें स्थान पर खिसक गया है। इससे ज्यादा शर्मनाक क्या हो सकता है। हम खेलों को ऊंचाइयों पर तो नहीं ले जा पा रहे हैं पर हम अपने खिलाड़ियों की तैयारियों और प्रदर्शन के आधार पर पदक जीतने के दावेदारों का सही आकलन भी नहीं कर पा रहे हैं। इस बार खेल मंत्रालय, खेल फेडरेशनों, भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन और भारतीय खेल प्राधिकरण ने खिलाड़ियों की तैयारियों का जायजा लेकर कहा था कि इस बार दर्जनभर पदक आने की उम्मीद है। दिलचस्प यह है कि इन दर्जनभर पदक जीतने वालों में सिंधु और साक्षी मलिक दोनों का ही नाम नहीं था। यही नहीं जिम्नास्टिक की वॉल्ट स्पर्धा में चौथा स्थान हासिल करके इतिहास रचने वाली दीपा कर्माकर का नाम तो चर्चा में ही नहीं था। सवाल यह है कि जब हमारे खेलों के धनीधोरी ही अपने खिलाड़ियों की क्षमता को नहीं पहचानेंगे तो वे कैसे उम्मीदों पर खरे उतरेंगे।

देश में महिला खिलाड़ियों के कमाल तो जमाने से दिखते आ रहे हैं पर इस देश में महिला खिलाड़ियों को पुरुषों जैसा सम्मान नहीं मिलता है। इसमें सानिया मिर्जा और सायना नेहवाल जैसे कुछ खिलाड़ी अपवाद हो सकते हैं। इसकी वजह यह है कि इन खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इतना कुछ हासिल कर लिया है, जिसकी बराबरी अच्छे-अच्छे पुरुष खिलाड़ी भी नहीं कर सकते हैं। लेकिन आप महिला पहलवान या हॉकी या क्रिकेट खिलाड़ी की बात करें तो उन्हें पुरुष खिलाड़ियों जैसी न तो पहचान मिलती है और न ही सम्मान। लेकिन रियो ओलंपिक में नारी शक्ति के आगे सारा देश नतमस्तक नजर आ रहा है। हो सकता है कि देश की महिला खिलाड़ियों के लिए यही टर्निग प्वाइंट साबित हो।

पीवी सिंधु की हम बात करें तो उसने कठिन तपस्या के बाद ही इस सफलता को प्राप्त किया है। यह सही है कि सिंधु के मुकाबले सायना नेहवाल से ज्यादा पदक की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन वह घुटने की तकलीफ की वजह पहले राउंड में ही चुनौती तुड़वा बैठीं। लेकिन सायना की निराशा में देश को सिंधु ने डूबने नहीं दिया और रजत पदक जीतकर देश की नई हीरोइन बनकर उभरी हैं। सही मायनों में सिंधु की प्रतिभा को तराशने वाले कोच पुलेला गोपीचंद ही हैं। गोपीचंद को सिंधु की प्रतिभा का शुरुआत में ही अहसास हो गया था। सिंधु बेहद शांतिप्रय खिलाड़ी थीं। सिंधु के विश्व कप में दो कांस्य पदक जीतने के बाद भी गोपीचंद को लगता था कि इसे बड़ी सफलताएं पाने के लिए व्यवहार में आक्रामकता लाना जरूरी है। गोपी ने एक साल पहले जब सिंधु की ओलंपिक तैयारी शुरू कराई तो उनके खाने-पीने पर नियंत्रण लगाने के अलावा मोबाइल के इस्तेमाल पर भी रोक लगाई। पर सबसे महत्वपूर्ण काम सिंधु के अंक जीतने पर चिल्लाकर अपनी आक्रामकता जाहिर करना सिखाया। इससे होता यह है कि खिलाड़ी खुद को अच्छा खेलने के लिए प्रेरित करता है और प्रतिद्वंद्वी पर दवाब भी बनाता है। सिंधु को इस ओलंपिक में आक्रामकता का फायदा मिला। पर स्वर्ण पदक जीतने वाली स्पेन की मारिन को आक्रामकता का जितना फायदा मिलता है, वह उन्हें नहीं मिल सका क्योंकि मारिन का अग्रेशन स्वाभाविक है।

सिंधु की ही तरह साक्षी मलिक की बजाय विनेश फोगाट को पदक का ज्यादा दावेदार माना जा रहा था। पर साक्षी ने वह कर दिखाया जिसे करना हर खिलाड़ी का सपना होता है। साक्षी ने विपरीत हालात में पदक जीतकर यह संकेत जरूर दिया है कि वह वास्तव में चैंपियन गर्ल है। कोई भी पहलवान 5-0 से पिछड़ने के बाद वापसी की उम्मीद छोड़ सकती है। लेकिन साक्षी ने हिम्मत हारे बगैर संघर्ष करने का जज्बा दिखाया और मुश्किल हालात को पक्ष में करके देश को शर्मिंदगी से बचाने में अहम भूमिका निभाई। भारत के लिए इन खेलों में पहला पदक कांस्य के रूप में जीतने वाली वह पहली खिलाड़ी बनीं। साक्षी की मां सुदेश जब उसे 2004 में सर छोटू राम स्टेडियम स्थित कुश्ती अकादमी में भर्ती कराने ले गई तो कोच ईश्वर सिंह दहिया ने अखाड़े में लड़कों के साथ ही अभ्यास करने को कहा। उनके पास कोई विकल्प ही नहीं था। हो सकता है कि इस तरह से अभ्यास करने पर वह पदक विजेता बनी हों। साक्षी बताती हैं कि वह पहलवान इसलिए बनीं क्योंकि उन्हें लगता था कि पहलवान बनने पर हवाई जहाज में बैठने को मिल सकता है।

पीवी सिंधु और साक्षी मलिक ने भले ही पदक जीतकर भारत की इज्जत बचाई है। फिर भी क्या 118 खिलाड़ियों का दल एक रजत और एक कांस्य पदक के साथ लौटे तो इस प्रदर्शन को उचित ठहराया जा सकता है। सच तो यही है कि यह शर्मिंदगी वाली स्थिति है। इस बार खिलाड़ियों को विदेशी कोच उपलब्ध कराए गए, उन्हें अनुभव दिलाने के लिए विदेश भी खूब भेजा गया और उनकी तैयारियों पर पिछले ओलंपिक खेलों के मुकाबले कहीं ज्यादा पैसा खर्च किया गया। इसके बाद भी हमारे खिलाड़ी पदक जीतने में क्यों पिछड़ गए। इस मामले में मुझे लगता है कि मानसिक टफनेस की कमी की वजह से ही भारतीय दल का फ्लॉप शो देखने को मिला है। इसमें शूटर अभिनव बिंद्रा, जिम्नास्ट दीपा कर्माकर, महिला तीरंदाजों की रिकर्व टीम और तीरंदाज अतानु दास के प्रदर्शन को देखें तो यह सभी बहुत ही मामूली अंतर से पिछड़कर पदक से हाथ धो बैठे हैं।

निशानेबाजी, पुरुष कुश्ती, मुक्केबाजी ऐसे खेल हैं, जिनमें यह माना जाने लगा था कि भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंच गए हैं और इन खेलों में पिछले दो ओलंपिक से पदक भी जीत रहे थे। लेकिन इस बार इन तीनों खेलों में भाग लेने वाले भारतीय खिलाड़ियों ने बेहद निराश किया है। निशानेबाजी में अभिनव बिंद्रा को छोड़ दें तो कोई अन्य निशानेबाज जरा भी प्रभावित करने में सफल नहीं हो सका। जीतू राय को तो पदक का सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा था। उन्होंने 10 मीटर एयर पिस्टल के फाइनल में तो स्थान बनाया, लेकिन अपनी पसंदीदा स्पर्धा 50 मीटर एयर पिस्टल में वह फाइनल में स्थान नहीं बना सके। इसी तरह गगन नारंग, मैराज खान, हिना सिद्धू और अयोनिका पाल सभी ने निराश किया। इनके प्रदर्शन से कभी लगा ही नहीं कि इनमें पोडियम पर चढ़ने का माद्दा भी है।

हॉकी की बात करें तो भारतीय टीम ने लगभग 36 साल बाद ओलंपिक के नाकआउट चरण में स्थान बनाया। लेकिन इसमें टीम से ज्यादा फार्र्मेट की भूमिका है। अगर पिछले फार्मेट से ही हॉकी मुकाबले खेले जाते तो शायद हम नाकआउट चरण में स्थान नहीं बना पाते। यह सही है कि भारतीय टीम ने जर्मनी के खिलाफ मैच में शानदार प्रदर्शन किया। लेकिन आखिरी सेकेंडों में गोल खाकर मैच खो दिया। इसी तरह वह चैंपियन बनी अर्जेंटीना के खिलाफ आखिरी समय में जबर्दस्त दवाब में खेली पर किसी तरह जीत पाने में सफल हो गई। लेकिन कनाडा के खिलाफ 2-2 से बराबर खेलने के दौरान भारतीय प्रदर्शन बेहद कमजोर रहा। कुल मिलाकर भारतीय टीम के बारे में यह कहा जा सकता है कि टीम में अब सुधार के संकेत दिखने लगे हैं। वह अब दिग्गज टीमों से बराबरी से भिड़ने लगी है। लेकिन चैंपियन बनने के लिए टीम में अभी भी सुधार की जरूरत है। सबसे जरूरी सुधार प्रदर्शन में एकरूपता रखना और डिफेंस को खेल खत्म होने की सीटी बजने तक मजबूत बनाना है।

आदर्श ने पहुंचाया पदक तक
पुसार्ला वेंकट सिंधु के माता-पिता वालीबाल के खिलाड़ी रहे हैं। लेकिन सिंधु ने 2001 में पुलेला गोपीचंद को आॅल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप का खिताब जीतते देखकर बैडमिंटन खिलाड़ी बनने का फैसला किया। ऐसा कम ही होता है कि जिसे आप अपना आदर्श मानें वही आपको ओलंपिक में पदक जीतने के मुकाम तक पहुंचाए। सिंधु ने आठ साल की उम्र में बैडमिंटन खेलना शुरू किया तो वह पहले सकिंदरा स्थित रेलवे इंस्टीट्यूट में कोच महबूब अली की देखरेख में खेलना सीखीं। पर दो साल बाद ही गोपीचंद की अकादमी में बैडमिंटन सीखने को जाने लगीं। सिंधु की लगन को इससे ही जाना जा सकता है कि घर से यह अकादमी 56 किमी. दूर होने पर भी वह कभी निर्धारित समय से देर में नहीं पहुंचीं।

गोपीचंद की देखरेख में उन दिनों सायना नेहवाल के अलावा पारूपल्ली कश्यप, किदाम्बी श्रीकांत भी ट्रेनी थे। इसलिए सिंधु के बजाय अन्य खिलाड़ी गोपी की निगाह में चढ़े हुए थे। लेकिन सिंधु के अनुशासन और सीखने की चाहत की वजह से वह गोपीचंद की नंबर एक ट्रेनी बन गई। गोपी अनुशासन लागू करने के मामले में बहुत सख्त हैं। उन्होंने 2015 में सिंधु का पैर चोटिल होने पर अकादमी के फिजियो सी किरण से कहा कि इस तरह का एक्सरसाइज का कार्यक्रम बनाओ जिसमें ऊपर के शरीर की फिटनेस बनी रहे। इस तरह सिंधु को एक दिन भी घर पर आराम करने का मौका नहीं दिया गया। किरण बताते हैं कि सिंधु सुबह के सत्र में दो बार थोड़े स्नैक्स के साथ सात घंटे अभ्यास करती रही। यह अभ्यास सत्र सुबह चार बजे शुरू हो जाता था।

गोपी ने एक माह पहले सिंधु का मोबाइल फोन अपने पास रख लिया था और उसके खाने से आइसक्रीम के साथ मीठी चीजों को भी हटा दिया गया। लेकिन सिंधु के रजत पदक जीतते ही गोपी ने कोच के बजाय बड़े भाई की भूमिका निभाकर सिंधु को यह सब तो खिलाया ही, साथ ही उसके संगीत और डांस के शौक को भी पूरा कराया।

साक्षी मलिक ने भी देखे हैं मुश्किल दिन
भारत के फ्लॉप शो के बीच सबसे पहले खुशियां लाने वाली महिला पहलवान साक्षी मलिक हैं। साक्षी ने 12 की उम्र में रोहतक के छोटू राम स्टेडियम स्थित ईश्वर दहिया के अखाड़े में जाना शुरू किया। लेकिन अखाड़े में अकेली महिला होने पर उन्हें लड़कों के साथ अभ्यास करना पड़ता था। हरियाणा पुरुष प्रधान राज्य होने के कारण वहां उस समय किसी लड़की के पहलवानी करने को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था। इसलिए उनके घर वालों को बाहर वालों के अलावा घर वालों के भी खूब ताने सुनने पड़े। पर साथी और उसके घर वालों ने इन मुश्किलों के बाद भी अपने फोकस को नहीं बदला और कुश्ती में आगे बढ़ने का सिलसिला जारी रखा।

साक्षी ने मजबूत इरादे और जीतने के जज्बे की वजह से पांच में से चार कुश्तियों को पिछड़ने के बाद जीता। कांस्य पदक के लिए लड़ी गई कुश्ती में तो वह किर्गिस्तान की एसुलु तिनिबेकोवा से 0-5 से पिछड़ गई थीं। लेकिन उन्होंने पहले बराबरी की और आखिरी 10 सेकेंड में विजय पाकर कुश्ती दल को खाली हाथ लौटने से बचा लिया। असल में कुश्ती में भारत 2008 के बीजिंग ओलंपिक से ही पदक जीतता रहा है। पर नरसिंह पर बैन लगने, योगेश्वर दत्त के खराब प्रदर्शन से कुश्ती में पदक की खत्म हुई उम्मीदों को साक्षी ने टूटने से बचाया है। 