सत्यदेव त्रिपाठी

पिछले साल ‘कालिदास अकादमी’ के आयोजन में संस्कृत के महान रचनाकार बाणभट्ट की जन्मस्थली ‘भ्रमरसेन’ (रीवां के पास) जाने का अवसर मिला, जहां पास ही स्थित सीधी जिले की ‘इन्द्रवती नाट्य समिति’ की मंडली के साथ गायन के लिए आए जहीन रंगकर्मी रोशनी प्रसाद मिश्र से पांच मिनट की मुलाकात हुई और यूं ही-सी बात निकली उनके नाटक देखने की, जो ‘सीधी लोकरंग महोत्सव’ में पिछली 27 से 29 जनवरी के बीच साकार भी हो गई।

सीधी (सिद्धगिरि) में रंगकर्म की अनुगूंज तो सुनाई पड़ी थी, पर देखने से पहले तक उम्मीद न थी कि वहां रोशनी के साथ नीरज कुन्देर और नरेन्द्र बहादुर सिंह के जुनूनेफन में जमीन से जुड़ा हुआ इतना अच्छा रंगकर्म हो रहा है। और रंगकर्म ही नहीं, उस अंचल की सारी लोक कलाओं का मौलिक और भव्य प्रदर्शन हो रहा है, जो अपने प्रभाव व परिणति में एक सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप ले चुका है। वहां है भी अपार लोक समृद्धि, जो शुक्र है कि अब तक बची और जीवंत भी बनी रह गई। यूं तो धीरे-धीरे छीज व सूख ही जाती। लेकिन अब ‘इन्द्रवती नाट्य समिति’ के दिली व सुनियोजित प्रयत्नों तथा इसकी व्यवस्था में सीधी के ‘जिला-प्रशासन’ (बरवक्त के जिलाधीश श्री दिलीपकुमार) की सक्रियता के चलते इसका भविष्य उज्ज्वल है। वहां के मौजूदा विधायक केदारनाथ शुक्ल तो आयोजन के परिकल्पक रूप में नामजद हैं, पर आम नेताओं से बिल्कुल अलग ही कार्यक्रम के हर रूप व हर मौके पर पूरे समय शरीक व सक्रिय भी रहे। यदि सबकुछ ऐसे ही चलता रहा, तो आने वाले समय में देश के एक बहुत बड़े सांस्कृतिक केंद्र के रूप में रोशन होगा ‘सीधी’ और खुदा करे, ऐसा हो।

कार्यक्रम की शुरुआत 27 जनवरी की सुबह सभी लोक कलाकारों और आमंत्रित अतिथियों की सहभागिता में ‘स्वच्छता-रैली’ से हुई और इसी की संगति में 29 जनवरी को समापन-रैली के साथ आयोजन का सम्पन्न होना एक अनोखी ही उद्भावना का सिला सिद्ध हुआ।

इसके अलावा पूरा आयोजन तीन भागों में विभक्त रहा। रोज ही दोपहर 12 से 2 बजे तक लोक वार्ता, सायं 5 से 7 बजे तक लोकरंग और 7.30 से 9.00 बजे तक नाट्य-मंचन। लोकवार्ता व नाट्यमंचन तो ‘मानस भवन’ में होते और उसी के सामने स्थित पूजा पार्क में ‘लोकरंग’ की प्रस्तुतियां होतीं। कहना होगा कि पूजा पार्क में तो हजारों की संख्या में आए लोग शामियाने के बाहर भी खड़े होकर गीत-नृत्य देख-सुन लेते, पर ‘मानसभवन’ तो पहली शाम नाट्य-प्रदर्शन के वक्त यूं खचाखच भर गया कि दूसरी-तीसरी शामों को अधिक लोगों को समा पाने की गरज से कुर्सियां हटाकर जमीन पर बैठने की व्यवस्था की गई, पर पूरी न पड़ी। नाटक खेलने की किसी सुविधा के बिना भी पंडाल में सफलतापूर्वक नाटक खेल लेना साधनों से अधिक साधना का मामला सिद्ध हुआ। लेकिन सुखद रहा कि जिलाधीश ने आखिरी शाम घोषणा कराई कि अगले उत्सव तक ‘सीधी’ में नाटक करने के सर्वथा लायक एक नहीं, दो-दो हॉल तैयार रहेंगे। हमारी शुभेच्छा है कि वादा सरकारी ही सही, पूरा भी हो।

‘लोकवार्ता’ से ही आयोजन का शुभारम्भ हुआ, जब बाहर से आमंत्रित सभी कला-मर्मज्ञ अतिथियों द्वारा दीप-प्रज्ज्वलन से लोकोत्सव के उद्घाटन के बाद ‘इन्द्रवती’ संस्था की तरफ से सबका स्वागत हुआ। और शाम को ‘लोकरंग’ में जिला प्रशासन की तरफ से पुन: स्वागत किया गया। ‘लोकवार्ता’ का आयोजन देखने से लगा कि संकल्पना खुली बातचीत की थी और लोक संस्कृति पर आधारित विषय भी बहुत मौजूं रहे, पर न ही पूछने वाले सवालों की वैसी तैयारी से आए और न आमंत्रित विद्वान ही प्रश्नोत्तर के लिए सही ढंग से तैयार थे। अत: पूछने वाले के हाथ में माइक के साथ बातचीत का विधान बना रहा और भाषण होते रहे। तीनों दिन के संचालक रहे क्रमश: मनोज पाण्डेय, अमित मिश्र और अखिलेश पाण्डेय।

पहले दिन की वार्ता का विषय था- ‘लोक संस्कृति और सरकारी नीतियां’, जिस पर शैलेन्द्र पाण्डेय (पटना) ने अभी तक राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां न बन पाने का मलाल जाहिर किया, तो वरिष्ठ चिंतक और मुख्य वक्ता वसंत निरगुने (भोपाल) ने सरकार को निमित्त मात्र बताया और सारा दारोमदार समाज के सर रखते हुए सीधी आयोजकों की खूब तारीफें कीं। उनके वक्तव्य पर सरकारी सहायता से कलाकारों के सम्पन्न होने की बाबत सवाल-जवाब में अच्छी चर्चा भी हुई। लेकिन विषय के बारे में कुछ न कहने की सादगी के बावजूद सिर्फ इस सत्र की ही नहीं, पूरे आयोजन की महफिल लुट गई सिनेमा के सुरेन्द्रजी पर। मंच माध्यम पर पर्दा माध्यम की यह चकाचौंध भी ध्यातव्य रही।
दूसरे दिन का विषय था- लोक संस्कृति और बाजारवाद। मनोज मिश्र (रींवा), सुभाष मिश्र (सीधी), प्रवीण गुंजन (बेगुसराय) आदि सभी वक्ता बाजार के गहरे असर से लोकसंस्कृति के क्षय की बात पर अपनी-अपनी तरह एकमत रहे और बची-खुची के व्यावसायिक होने के खतरे में प्रबन्धन की भूमिका का खास उल्लेख भी आया। समाहार करते हुए सत्यदेव त्रिपाठी (वाराणसी) ने लोक संस्कृति की सामूहिकता और आवेगमयता की पहचान के साथ गालिब आदि के उदाहरण से हर युग में बाजार के होने का जिक्र किया। उन्होंने लोक कलाओं के क्षय में बाजार के साथ विज्ञान और तकनीक के हवाले से अपनी बात रखी और बेजोड़ कलात्मक सरोकार वाले मोर के उदाहरण से बाजार के प्रतिरोध और ऐसे प्रयत्न में ‘सीधी लोकोत्सव’ जैसे आयोजन में निहित सम्भावना को भी उजागर किया। श्रोताओं के कतिपय सवालों पर मंच के जवाबों के बाद अध्यक्षीय वक्तव्य में विधायक केदारनाथ शुक्ल ने वक्ताओं को सरस्वती के वरद पुत्र के रूप में श्रेय तो दिया, लेकिन साथ ही साफ तौर पर उन्हें (अपने) प्रबन्धन पर आश्रित बताया।

तीसरे दिन की चर्चा की शुरुआत वरिष्ठ रंग समीक्षक एवं कथाकार-नाटककार हृषिकेश सुलभ ने विधायक के उक्त वक्तव्य के कड़े प्रतिरोध से की और कहा कि विचारक व कलावंत किसी राजनीतिक या प्रशासनिक प्रबन्धन का मोहताज नहीं होता। फिर लोकवार्ता के विषय ‘लोक संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन में समाज की भूमिका’ पर उन्होंने ‘विवेक’ को कसौटी माना, जो पूरे सत्र की चर्चा की कुंजी बन गया। संतोष द्विवेदी (उमरिया), आशीष पाठक (जबलपुर) ने इसे अपने-अपने कामों व विचारों के अनुसार सिद्ध किया। श्रोता-संवाद में संरक्षण व संवर्धन की जरूरत खुलकर स्थापित हो सकी।

शाम की शुरुआतें ‘लोकरंग’ के अंतर्गत लोकगीत-नृत्यों से होती थीं। पहले दिन मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल के निदेशक संजय उपाध्याय, जिनका सीधी की लोककला प्रस्तुतियों में मार्गदर्शक के रूप में और खासकर नाटकों को रूपाकार देने में बेहद कारगर योगदान की चर्चा हर जुबान पे है, के उद्घाटन वक्तव्य से हुई। इसके बाद गीत-नृत्य का जो मनोरंजक सिलसिला शुरू हुआ और तीन दिनों तक चलता रहा, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। मनबिसरा कोल लकोडा द्वारा फाग व भगत, राजभान साहू रामपुर के दल द्वारा अहिराई नृत्य, नन्हें घासी के दल द्वारा गुदुम्ब नृत्य, रावेन्द्र सिंह बकवा के समूह द्वारा शैला नृत्य, रामावतार मिश्र व समूह द्वारा रामचरित मानस का गायन, अविनाश तिवारी व समूह द्वारा रामलीला पात्र अभिनय, रामदास यादव व समूह द्वारा अहिराई लाठी, बाल कलाकार मान्या पाण्डेय एवं हरिश्चन्द्र मिश्र द्वारा संस्कार गीत, दुलारे घासिल व समूह द्वारा कर्मा लोकनृत्य आदि विविध रूपरंगी प्रस्तुतियों ने समां बांध दिया। ऐसा माहौल आज कहीं विरले ही देखने को मिल सकेगा। काश इनके सोदाहरण उल्लेख कर पाता!

तीनों दिन के लोकोत्सव का विराम नाट्य मंचन से होता रहा। तीनों नाटक नरकासुर, चिरकुमारी और एकलव्य तीनों प्रमुख आयोजकों क्रमश: नीरज कुन्देर, रोशनी प्रसाद मिश्र और नरेन्द्र बहादुर सिंह के निर्देशन में खेले गए। तीनों ही बेशक अपनी लोकभाषा बघेली (जो बिल्कुल अवधी-भोजपुरी जैसी ही है) में थे। सबके प्रमुख स्वर और शायद मूल प्रेरणा व अंतरिम उद्देश्य भी अपने अंचल के ऐतिहासिक, पौराणिक व लोकविश्रुत कथाओं के बहाने अपनी बघेली लोक-विरासत से सम्पन्न संस्कृति को साकार करना ही है। प्रकृति का मानवीयकरण तो साहित्य व कला का विश्रुत आयाम है, पर इन नाटकों में विरल व खास है मानव का प्रकृतिकरण। नर्मदा-शोणभद्र जैसी नदियां ‘चिरकुमारी’ में प्रमुख पात्र बन जाती हैं और ‘नरकासुर’ में उसके रक्त से ‘नरकुर्इं’ नदी के उद्गम की कथा भी पिरोयी गई है, जिसे सवर्णों द्वारा अछूत माना जाता रहा है। विंध्याटवी की वनवासी स्ंस्कृति का ऐसा ही अछूत बालक ‘एकलव्य’ भी है, जो सवर्ण सबलों द्वारा उपेक्षा व अपने हुनर के बल आगे आने पर क्रूर वंचना का शिकार होता है।

सभी में भिन्न-भिन्न किस्म के सूत्रधार हैं, जो संस्कृति के अतीत से निकले हैं और आपको अपनी उंगली पकड़ाए उस अनिश्चित, पर सहज विश्वसनीय काल में ले जाते हैं, जिसमें से एक-एक पुराण-पात्र आप से रूबरू होते हैं, उनकी घटनाएं नुमायां होने लगती हैं और आप एक दूसरी दुनिया में चले जाते हैं, जहां सबकुछ गीत-नृत्यमय है, खिलन्दड़ेपन से सराबोर है, सामूहिक और सहज है। चमत्कृत करता है, पर अपना-सा लगता है। मुम्बई में रंग-रोगन से सजे-धजे ड्राइंग-बेड रूम्स में चलती अंतहीन बातें व छद्मभरी हरकतें देख-देख कर सिठाये हुए मुझे तो ये सारे कौतूहल बेहद नाट्यमय व खांटी लगे- मरुथल में शीतल फुहार जैसे लगे।

किंतु विश्रुत पौराणिकता में कतिपय बदलाव सवालिया भी लगे। ‘एकलव्य’ की हुनर व हुकूमत की जंग में सत्तापक्ष की क्रूरता को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने की रौ में द्रोण व शिष्यों द्वारा जबर्दस्ती अंगूठा कटवा देने में वनवासी बच्चे के गुरु-भक्तिभाव की लोकचेतना जाती रहती है। उसे द्रौपदी-स्वयंवर में कृष्ण द्वारा मरवाने के बदलाव से भी कथ्य की कोई बात बनती नहीं। इसी तरह ‘नरकासुर’ में 1600 स्त्रियों के अपहरण पर ऐसी सामाजिक चेतना के अवसर थे, जिसमें आज के महात्माओं की छवि भी बिम्बित हो सकती थी, पर आंचलिक लोक-छवि को उभारने में बात छन जाती है। ‘चिरकुमारी’ में कथा और नाट्य का सबकुछ हो जाने के बाद अमृतलाल बेगड़ को लाकर बड़ी उपयोगी बातें कराना भी नाट्य नहीं हो पाता। इसे मूल संरचना में पिरोना ही मंच-कला की सार्थकता होगी। बावजूद इसके इन सबकी कीमत पर बघेली लोक की मान्यताएं व संस्कृति को जीवंत करना भी कम मुफीद नहीं ठहरता।

ऐसे तो लोक कला की फितरत ही सामूहिक है, जिसमें सभी कलाकार एक नाटक की कुदरत व जरूरत के मुताबिक भिन्न-भिन्न नाम-रूप धरकर प्रस्तुतियों को समृद्ध व जीवंत करते हैं, पर नरकासुर और एकलव्य की दोनों मुख्य भूमिकाओं में शिवकुमार कुन्देर की समर्थ छवि छिप नहीं पाती। एकता सिंह परिहार और सुनैना भी दो-दो नाटकों में आकर अपनी शिनाख़्त करा ही लेती हैं। छोटी भूमिकाओं में भी समूह के बड़े कलाकार अपनी अलग पहचान करा लेते हैं, जो नयों के लिए प्रेरणा के रूप में भी अनुकरणीय होगी। सीधी क्या, मध्य प्रदेश से इतर महाराष्ट्र-उत्तर प्रदेश आदि प्रांतों के कलाकर बघेली भाषा व संस्कार में रचे-बसे होकर आह्लादित कर देते हैं।

सब कुछ के अंत में ‘एकलव्य’ के शो के बाद जब नीरज ने नितांत अनौपचारिक रूप से उत्सव के एक-एक भागीदार व साक्षियों को मिलाकर लगभग सौ लोगों को मंच पर इकट्ठा करके सबका सहज इस्तकबाल किया, तो जो समां बंधा, वह विरल रूप से चिरकाल के लिए स्मृति में संजो उठा है।