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कभी गरीबों-वंचितों, आदिवासियों की आवाज माने जाने वाले नक्सलियों के लिए ‘आंदोलन’ अब काली कमाई का जरिया बन चुका है. तस्करों, ठेकेदारों, व्यवसायियों एवं सरकारी अधिकारियों से अवैध वसूली ही उनका मुख्य ध्येय है. पुलिस-सुरक्षा बलों की अपनी सीमाएं हैं, तो राज्य सरकार की अपनी मजबूरियां. लिहाजा, लाख चाहते हुए भी नक्सलियों की नकेल अभी तक पूरी तरह नहीं कसी जा सकी है. 

jharkhandआरपीएफ के महानिदेशक राजीव भटनागर ने पिछले दिनों पलामू का दौरा कर वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक की. उनका यह दौरा खास तौर पर आगामी चुनावों में नक्सली चुनौती से निपटने को लेकर था. वह इसके लिए रणनीति बनाना और आवश्यक तैयारियां करना चाहते हैं. नक्सलवादी संगठन प्राय: हर चुनाव के दौरान बहिष्कार का आह्वान करते हैं, लेकिन उसका सीमित प्रभाव ही पड़ता है. उनके आह्वान का मुख्य मकसद प्रत्याशियों से धन वसूली करना होता है. अभी तक तो यही देखा गया है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में किसी खास प्रत्याशी के पक्ष में मतदान होता है.

लेवी वसूलने की होड़

दरअसल, राज्य में सक्रिय नक्सली संगठन ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की कोई लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि उसकी आड़ में लेवी वसूली उनका मुख्य लक्ष्य बन चुका है. यहां से पूरे देश की नक्सली गतिविधियों का वित्त पोषण होता है. भारी-भरकम वसूली की गुंजाइश के कारण नक्सली दस्तों के अंदर वित्तीय अराजकता की खबरें भी आती रहती हैं. बहुचर्चित बकोरिया कांड के पीछे भी लेवी के पैसों की भूमिका बताई जाती है. हाल में खुफिया संगठनों की एक रिपोर्ट से इस बात की पुष्टि होती है कि नक्सलियों द्वारा देश में सबसे ज्यादा लेवी झारखंड में वसूली जाती है. खुफिया संगठनों का अनुमान है कि सिर्फ भाकपा-माओवादी हर साल 250 करोड़ रुपये की लेवी वसूलती है. जबकि राज्य में नक्सलियों के दर्जन भर संगठन धन बटोरने के अभियान में लगे हैं. सच पूछें तो वसूली का वास्तविक आंकड़ा खुफिया संगठनों के अनुमान से कहीं अधिक है. नक्सली अपने प्रभाव क्षेत्रों में ठेकेदारों एवं सरकारी अधिकारियों से तो विभिन्न विकास योजनाओं में अपना कमीशन लेते ही हैं, जितने भी जायज-नाजायज धंधे होते हैं, उनसे भी एक बंधी-बंधाई धनराशि नक्सलियों तक पहुंचती है. कई धंधों में तो उनकी सीधी भागीदारी के भी संकेत मिलते हैं. सच्चाई यह है कि झारखंड के नक्सल प्रभावित इलाकों में कोई भी आर्थिक गतिविधि उन्हें अग्रिम कमीशन दिए बगैर नहीं संचालित हो सकती.

ड्रग्स का काला कारोबार

खूंटी सहित कुछ जिलों में जो पत्थलगड़ी का अलगाववादी आंदोलन चल रहा था, उसका मुख्य उद्देश्य अफीम की अवैध खेती को सुरक्षित रखना था. ऐसे इलाकों में आदिवासी परंपरा के नाम पर गांवों की सीमा के बाहर पत्थर गाडक़र पुलिस-प्रशासन सहित बाहरी लोगों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी. कई मौकों पर सुरक्षा बल एवं पुलिस अधिकारियों को बंधक बना लिया गया और काफी मिन्नतों के बाद उन्हें मुक्त कराया जा सका. सूत्र बताते हैं कि पिछले कई सालों से उत्तर भारत के ड्रग्स माफियाओं के साथ नक्सलियों की साठगांठ चल रही है. अफीम नशीले पदार्थों के अवैध कारखानों में कच्चे माल का काम करती है. उसका शोधन कर मार्फीन, ब्राउन सुगर एवं हेरोइन बनाई जाती है, जिन्हें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में पहुंचा कर मोटा मुनाफा कमाया जाता है. बिहार के सासाराम और बिहार-उत्तर प्रदेश सीमा पर स्थित मोहनिया ड्रग्स निर्माण के कुख्यात केंद्र रहे हैं. ड्रग्स के धंधे में बेतहाशा कमाई होती है. राज्य के नक्सलियों की कमाई का यह एक बड़ा स्रोत बन चुका है. कभी-कभार दूरस्थ इलाकों में पहुंच होने पर पुलिस अफीम की फसल नष्ट भी करती रही है, धंधे से जुड़े लोग कई बार गिरफ्तार हुए हैं, लेकिन अभी तक छोटी मछलियां ही जाल में फंसी हैं. ड्रग्स तस्करी के सरगनाओं को दबोचने और उनका नेटवर्क ध्वस्त करने के लिए आज तक कोई बड़ा अभियान नहीं चलाया गया.

करोड़ों में खेल रहे बड़े नेता

तेंदू पत्ते, अन्य वनोत्पाद एवं वन्य-जीवों के अंगों की तस्करी, कोयला, लोहा एवं बाक्साइट सहित विभिन्न खनिजों के उत्पादन-वितरण और कीमती पत्थरों की खदानों से नक्सलियों को बंधा-बंधाया हिस्सा मिलता है. सेंट्रल कोल फील्ड लिमिटेड में कोयले की ट्रांसपोर्टिंग में लेवी वसूली को लेकर 13 प्राथमिकियां दर्ज हुई हैं. झारखंड हाईकोर्ट ने भी कोयले के धंधे में लेवी वसूली पर रोक लगाने के निर्देश दिए हैं. स्थिति यह है कि एरिया कमांडर स्तर के नक्सली भी आज करोड़ों में खेलते हैं. बड़े नक्सली नेताओं के लेवी वसूली के 22 मामलों की जांच एनआइए कर रही है. माओवादियों के नाम पर कई अपराधी गिरोह भी अवैध वसूली में जुटे हैं. ऐसे तत्व पकड़े भी जाते रहे हैं. नक्सलियों के आर्थिक स्रोत गोपनीय नहीं हैं. पुलिस-प्रशासन के आला अधिकारियों के साथ ही सत्ता एवं विपक्ष के सभी नेताओं को इसकी जानकारी है. कई लोगों की तो उनके साथ निकटता है. रघुवर दास सरकार के निर्देश पर झारखंड पुलिस एवं सुरक्षा बल लगातार नक्सलियों के सफाए और उनसे आत्म समर्पण कराने का अभियान चला रहे हैं. डीजीपी डीके पांडेय ने साल 2018 के अंत तक झारखंड को नक्सल-मुक्त करने का ऐलान किया था. नक्सल विरोधी अभियान में कई ईनामी नक्सली मुठभेड़ में मारे गए. कई तो पड़ोसी राज्यों में जा छिपे और कइयों ने आत्म समर्पण कर दिया. लेकिन, नक्सली गतिविधियां फिर भी जारी हैं. आएदिन सुरक्षा बलों के साथ उनकी मुठभेड़ हो रही है.

सामाजिक मुद्दे दरकिनार

दिलचस्प बात यह है कि झारखंड में नक्सलियों के वर्ग संघर्ष की व्याख्या वामपंथ के बड़े से बड़े सिद्धांतकार नहीं कर सकते. यहां नक्सलियों का न कोई वर्ग-मित्र है और न वर्ग-शत्रु. 70 के दशक में जरूर वे महाजनों के खिलाफ अभियान चलाते थे, लेकिन आज सामाजिक मुद्दों से उन्हें कोई सरोकार नहीं रह गया है. न शोषकों से उनका कुछ लेना-देना है और न शोषितों से. वे सीधे पुलिस बल को निशाना बनाकर दहशत फैलाते हैं और उसी के बल पर बड़े व्यवसायियों एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों से वसूली करते हैं. लेवी देने से इंकार करने पर वे हिंसा पर उतर आते हैं. उनके लिए पुलिस वर्ग-शत्रु है और लेवीदाता वर्ग-मित्र. राज्य सरकार ने खुफिया संस्थाओं की रिपोर्ट के मद्देनजर नक्सली संगठनों के आर्थिक स्रोत चिन्हित करने और उन पर रोक लगाने की रणनीति तैयार की है. नक्सली नेताओं की संपत्तियों का ब्योरा जुटाने और उन्हें जब्त करने की भी तैयारी है. लेकिन, चुनाव के दौरान मुख्य संघर्ष के प्रत्याशी उन्हें मैनेज करने का भी प्रयास करेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है. रघुवर दास सरकार कोई पहली सरकार नहीं है, जो झारखंड में नक्सलियों के खिलाफ अभियान चला रही है. अब तक जितनी भी सरकारें आईं, सबने नक्सलियों के सफाए के दावे किए, अभियान चलाए, लेकिन उससे कोई खास अंतर नहीं पड़ा. कारण यह है कि नक्सलियों की आम ग्रामीणों के बीच जितनी पैठ है, पुलिस की उतनी नहीं है. हाल के दिनों में सुरक्षा बलों ने अपने व्यवहार में परिवर्तन लाकर कुछ इलाकों में ग्रामीणों का भरोसा जीतने में सफलता हासिल की है, लेकिन उसका दायरा सीमित है. जंगल-पहाड़ के रास्तों की जानकारी भी पुलिस की अपेक्षा नक्सलियों को ज्यादा है. दूर-दराज के कई गांवों तक आवागमन के रास्ते अभी भी सुगम नहीं हैं. सुरक्षा बल प्राय: मुख्य सडक़ों के आसपास स्थित इलाकों तक ही निगरानी रख पाते हैं. ऐसे में नक्सली संगठनों के आर्थिक स्रोतों पर पूरी तरह रोक लगा पाना मुश्किल है. इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास किए जा सकते हैं, लेकिन डीजीपी की तरह कोई दावा नहीं किया जा सकता.