राजीव थपलियाल

राजनीति में जिंदा रहना सीखना हो तो कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत एक बेहतरीन उदाहरण माने जा सकते हैं। केंद्र की सियासत हो फिर राज्य की राजनीति, कई बार हरीश रावत को देखकर लगा कि अब शायद ही वे राजनीतिक मैदान में टिके रह सकें लेकिन उन्होंने हर बार अपना अस्तित्व बखूबी बचाए रखा। मुख्यमंत्री रहने के दौरान बागी विधायकों और विपक्ष के पैंतरे से सरकार गंवाने और फिर स्टिंग में फंसने के बाद एकबारगी लगा कि उनका कैरियर खत्म, पर नहीं, वे फिर से चुनावी मैदान में नजर आए। विधानसभा चुनाव में दो जगह से चुनाव लड़ा और दोनों जगह से हार जाने के बावजूद आज भी कांग्रेस पार्टी को अपनी उंगली पर नचाते नजर आ रहे हैं। राज्य की पूरी कांग्रेस एकतरफ और हरीश रावत एक तरफ। हरीश सरकार में वित्त मंत्री रह चुकीं इंदिरा हृदयेश का कहना है कि उनका व्यवहार हैरत में डालने वाला है।
वर्ष 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस न केवल सत्ता से बाहर हुई बल्कि बुरी तरह हारी। विधानसभा की 70 सीटों में से मात्र 11 सीटें ही कांग्रेस को मिल सकी। इस हार के बाद भले ही हाईकमान ने राज्य में पार्टी का नेतृत्व किशोर उपाध्याय की जगह प्रीतम सिंह को दे दिया लेकिन कार्यकर्ताओं के अंदर का उत्साह न जाने कहां गायब हो गया। वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल की मानें तो हरीश रावत ने टिकट देने में जो ढीठपन दिखाया था वह भी कांग्रेस की इस हालत के लिए काफी हद तक जिम्मेदार है। खुद दो जगहों से चुनाव लड़ना, तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को उनकी कर्मभूमि टिहरी विधानसभा क्षेत्र से दूर करना, रुद्रप्रयाग की पूरी जिला कार्यकारिणी को दरकिनार कर बागी हरक सिंह रावत की करीबी लक्ष्मी राणा को टिकट देना, अपने चहेते पीडीएफ के लिए अपनी ही पार्टी के अध्यक्ष की सलाह को न मानना जैसे कारणों से कांग्रेस की स्थिति खराब हुई जबकि रावत बमुश्किल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि वर्ष 2016 में 18 मार्च को विधानसभा में हंगामे के बाद सरकार गंवाने वाले हरीश रावत जब कोर्ट के आदेश पर वापस मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व की भी अनदेखी करनी शुरू कर दी थी। पार्टी में अपने विरोधियों को साम, दाम, दंड, भेद से चुप कराया। विजय बहुगुणा सहित कई कद्दावर नेताओं के पार्टी से निकलने के बाद निष्कंटक हुए हरीश रावत ने किसी की नहीं सुनी। चार-पांच सिपहसालारों से घिरे रावत को किसी पर भी भरोसा कभी नहीं था।
राजनीतिक विश्लेषक गिरधर शर्मा के मुताबिक, ‘चुनाव के बाद कांग्रेस को अपनी हार पर मनन कर पार्टी की मजबूती पर काम करना चाहिए था। आखिर उसके 11 सदस्यीय मंत्रिमंडल में मात्र तीन सदस्य ही दोबारा विधानसभा में पहुंच पाए। जिस पार्टी का मुख्यमंत्री दो जगह से चुनाव लड़े और दोनों जगह बुरी तरह पराजित हो जाए उस पार्टी को संभल जाना चाहिए था। लेकिन चुनाव के बाद का पिछले 10 माह का समय देखें तो पार्टी कहीं से भी एकजुट नजर नहीं आती। हरीश रावत पर किसी का बस नहीं है तो दूसरे नेता भी अपनी-अपनी ढपली से राग गाते हैं।’

ले डूबी एकला चलो की नीति
रावत जब मुख्यमंत्री थे तो कहते थे, ‘न खाता न बही जो हरीश कहे वही सही।’ उन पर हमेशा मंत्रिमंडल की ओर से भी अकेले फैसले लेने के आरोप लगते रहे। उन्होंने सुनी सबकी मगर की अपने मन की। उनके इसी रवैये से प्रदेश के तमाम कांग्रेसी दिग्गज पार्टी छोड़कर भाजपा में जाते रहे। हरीश रावत अकेले चलते-चलते आज खुद राजनीति में अकेले रह गए। उन्होंने अकेले सब कुछ पाना चाहा और पार्टी की करारी शिकस्त अकेले उनके नाम पर आ भी गई। उनके पांच दशक के सियासी जीवन का यह सबसे लज्जित करने वाला हिस्सा बन गया। उन्होंने अपनी सरकार के सहयोगी पीडीएफ के लिए अपनों से ही जो बैर लिया और कर्मठ कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की उसका सबक भी उन्हें मिला। वे खुद तो हारे ही उनके मंत्रिमंडल के पांच और सदस्य भी भारी अंतर से पराजित हुए। बसपा और उत्तराखंड क्रांतिदल अपना खाता भी नहीं खोल सके। मोदी लहर में पीडीएफ के मंत्रियों में से केवल प्रीतम सिंह पंवार ही अपनी सीट बचा पाए।

खुद बच गए, प्रदेश अध्यक्ष को डुबो दिया
लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी मोदी लहर की वजह से हरीश रावत न खुद टिक पाए और न ही अपनी पार्टी के दिग्गजों को टिका सके। उनकी सरकार का कामकाज भी वोट का आधार था। चुनाव में टिकट प्रदेश अध्यक्ष की बजाय मुख्यमंत्री की सहमति से बांटे गए। इसलिए पार्टी हाईकमान को सरकार के मुखिया से हार का जवाब मांगना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सियासी चतुर हरीश रावत ने हाईकमान की तोप का मुंह प्रदेश अध्यक्ष की ओर मोड़ दिया। यहां भी रावत अपने मन की करा गए। तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को पार्टी हाईकमान ने पद से हटा दिया उनकी जगह पर रावत अपने चहेते प्रीतम सिंह को अध्यक्ष बनवाने में कामयाब रहे।
राहुल गांधी के कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद किशोर उपाध्याय का दर्द उभर आया। उत्तराखंड में हार के बाद उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। मगर अब जब हिमाचल और गुजरात विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस हारी तो वहां के प्रदेश अध्यक्षों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस पर किशोर उपाध्याय ने करीब-करीब रुआंसा होकर कहा कि उत्तराखंड में पार्टी संगठन की हार नहीं थी बल्कि सरकार की हार थी। इसके बावजूद सरकार के मुखिया पर कोई कार्रवाई नहीं हुई जबकि उन्हें इस हार का एकमात्र दोषी मानते हुए पद से हटा दिया गया।
चुनाव में करारी हार के बावजूद अपनी रीति-नीति में हरीश रावत ने कोई परिवर्तन नहीं किया। पार्टी को संबल देने की बजाय उन्होंने खुद को मजबूत करने पर ज्यादा जोर दिया। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष चुनने की बारी आई तो कई वरिष्ठ विधायकों को दरकिनार कर अपने किसी खास के लिए गोटी बिछाने से पीछे नहीं हटे। हालांकि वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए लेकिन बाद में प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर अपना आदमी बैठाने में सफल हो गए। उनकी कार्यशैली की वजह से ही कहा जाता था कि उत्तराखंड में कांग्रेस का नहीं बल्कि हरीश कांग्रेस का शासन है। रावत ने पार्टी संगठन से अलग चलने की अपनी नीति हार के बावजूद नहीं छोड़ी है। राज्य में नगर निकाय के चुनाव होने हैं। पार्टी इन दिनों एकजुट होकर ज्यादा से ज्यादा निकायों को जीतकर स्थानीय सत्ता पर काबिज होने का प्रयास कर रही है। इसके लिए गढ़वाल और कुमाऊं में कांग्रेसजनों की महत्वपूर्ण बैठकें आयोजित की गर्इं। गढ़वाल क्षेत्र की बैठक में हरीश रावत यह कहकर नहीं पहुंचे कि वे कुमाऊं की बैठक में शामिल होंगे। लेकिन आश्चर्य तो यह रहा कि जिस दिन कुमाऊं की बैठक थी ठीक उसी दिन उन्होंने दिल्ली में राज्यसभा सदस्य महेंद्र सिंह माहरा के आवास पर एक पार्टी का आयोजन कर डाला। उनके इस रवैये पर तमाम कांग्रेसियों ने हैरानी जताई। वरिष्ठ नेत्री इंदिरा हृदयेश ने साफ तौर पर कहा कि हरीश रावत कैसी राजनीति कर रहे हैं यह समझ से बाहर है। जब पार्टी एकजुट होकर दोबारा से खड़ा होने के प्रयास में है तब भी वे अलग चल रहे हैं।

कुमाऊं में हुए सक्रिय
हरीश रावत ने भले ही अपनी शुरुआती सियासी पारी कुमाऊं में खेली हो लेकिन बाद में वे गढ़वाल में ही ज्यादा सक्रिय रहे। उन्होंने न केवल खुद के लिए हरिद्वार में सियासी जमीन तैयार की बल्कि अपने परिवार को भी यहीं से सियासत में एंट्री कराने के पुख्ता इंतजामों में जुटे रहे। अब वे फिर से वापस कुमाऊं की ओर मुड़ चले हैं। कांग्रेस के लोगों का मानना है कि हरीश रावत की नजर अब नैनीताल लोकसभा सीट पर है। शायद इसीलिए वे इस क्षेत्र की समस्याओं को उठा रहे हैं। इसे लेकर पिछले महीने वे धरना-प्रदर्शन भी कर चुके हैं। यहां भी वे अपने मन की करने से बाज नहीं आए। अपने धरना कार्यक्रमों को उन्होंने पार्टी संगठन से अलग रखा जिसे लेकर प्रदेश अध्यक्ष ने अप्रत्यक्ष तौर पर नाराजगी भी दिखाई। रावत से उनके अलग चलने पर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा कि उनका पांच दशक से अधिक का राजनीतिक जीवन है और अपने किसी कार्यक्रम के लिए उन्हें इजाजत की जरूरत नहीं है। रावत भले ही कह रहे हों कि वर्ष 2020 तक उनका कोई चुनाव लड़ने का विचार नहीं है, उनके पास न तो पैसा है और न ही सेहत इजाजत दे रही है लेकिन उन्हें जानने वालों का मानना है कि वे यह कहकर अपने विरोधियों का ध्यान भटका रहे हैं। उनका कुमाऊं में सक्रिय होना न केवल कांग्रेसियों को बल्कि भाजपाइयों को भी बेचैन कर रहा है। दरअसल, नैनीताल से भाजपा सांसद भगत सिंह कोश्यारी की उम्र 75 पार हो जाने के कारण अगले चुनाव में उन्हें शायद ही टिकट मिले। उनकी जगह पर फिलहाल भाजपा में बड़े कद का कोई नेता इस सीट से चुने जाने के लायक नजर नहीं आता। यदि रावत कांग्रेस की ओर से चुनाव लड़ते हैं तो भाजपा के दूसरे नेता के लिए यहां जीत की राह आसान नहीं होगी। वहीं यहां से सांसद बनने का मंसूबा पाले स्थानीय कांग्रेसियों के लिए रावत स्वाभाविक तौर पर खतरे की घंटी हैं।