आज राष्ट्रपति का चुनाव है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाया है लेकिन मौजूदा संख्या बल के आधार पर एनडीए प्रत्याशी रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना तय है। चुनाव से पहले जिस तरह दलित बनाम दलित सरीखे मुद्दों पर बहस हो रही है, वह देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है। क्या राष्ट्रपति को रबर स्टांप कहना सही है, क्या उनके संवैधानिक अधिकारों में इजाफा किया जाए? इन्हीं तमाम विषयों पर अभिषेक रंजन सिंह ने हैदराबाद स्थित नेशनल एकेडमी आॅफ लीगल स्टडीज एंड रिसर्च यूनिवर्सिटी आॅफ लॉ के वाइस चांसलर डॉ. फैजान मुस्तफा से विस्तृत बातचीत की।

संभवत: यह पहली बार है जब राष्ट्रपति का चुनाव बतौर उम्मीदवार नहीं, बल्कि जातिगत नजरिये से लड़ा जा रहा है। देश के प्रथम नागरिक पद की गरिमा के लिहाज से ऐसा होना चाहिए?
ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। मैं स्वयं हैरान हूं कि राजनीतिक दल राष्ट्रपति के चुनाव को दलित बनाम दलित क्यों प्रचारित कर रहे हैं। राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है। राष्ट्रपति के उम्मीदवार अगर किसी राजनीतिक दल से जुड़े रहते हैं, तो उन्हें अपने दल से इस्तीफा देना होता है। उसके बाद उनका किसी खास पार्टी या नेता से कोई अनुराग और द्वेष नहीं होता है। राज्यपालों के साथ भी यही नियम लागू होता है। राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए राजनीति करें, लेकिन राष्ट्रपति जैसे गरिमापूर्ण पद को इसमें शामिल नहीं करना चाहिए। इससे पहले भी ऐसी बहसें होती थीं, लेकिन इस बार तो राष्ट्रपति के चुनाव को पूर्णत: जातीय रंग दे दिया गया है। ऐसा लगता है कि व्यक्ति और उसकी योग्यता का कोई महत्व ही नहीं है। राजनीतिक दलों को कम से कम इस पद की संवैधानिक मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए।

विपक्षी दलों का कहना है कि एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद भाजपा और आरएसएस से जुड़े रहे हैं। ऐसे में वह निष्पक्ष होकर अपने संवैधानिक पद की गरिमा रख पाएगें? विपक्ष के इन आरोपों में कितनी सच्चाई है?
ये बेकार की बातें हैं। मैंने पहले भी कहा है कि राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित होने के बाद संबंधित व्यक्तियों को अपनी पार्टी के तमाम पदों से इस्तीफा देना होता है। उसके बाद इन आरोपों का कोई मतलब नहीं रह जाता है। मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी कांग्रेस में लंबे समय तक रहे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण राजनीतिक दायित्वों का निर्वाह किया। बतौर राष्ट्रपति वह बेहतर तरीके से अपने संवैधानिक पद का निर्वहन कर रहे हैं। उनकी निष्पक्षता पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया गया। केंद्र सरकार की कई महत्वपूर्ण योजनाओं एवं नीतियों की उन्होंने तारीफ की है। इससे पहले ज्ञानी जैल सिंह भी कांग्रेस से जुड़े रहे। बतौर राष्ट्रपति उन्होंने तो प्रधानमंत्री राजीव गांधी को नाकों चने चबवा दिए। लेकिन यह अलग बात है कि उनकी चर्चा इस पर अधिक होती है कि उन्होंने कहा था कि अगर इंदिरा गांधी कहें तो मैं झाडू लगाने को भी तैयार हूं। राष्ट्रपति बनने के बाद ज्ञानी जैल सिंह ने ऐसा कोई फैसला या काम नहीं किया जिससे उन्हें कांग्रेस परस्त कहा जाए। इसलिए अगर आपने राष्ट्रपति पद की शपथ ली है तो आपका ध्येय राष्ट्र और संविधान के प्रति होता है। दलगत तो प्रधानमंत्री का पद होता है, जबकि राष्ट्रपति तो राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। प्रधानमंत्री सत्ता पक्ष का नेता होता है। उनका चुनाव संसद नहीं, बल्कि दल करता है और वह बहुमत दल के नेता हैं। वहीं राष्ट्रपति का चुनाव दोनों सदनों और विधानसभाओं के सदस्य करते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बयान की तारीफ करनी चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा कि बतौर राज्यपाल रामनाथ कोविंद ने राजभवन में भाजपा की राजनीति नहीं आने दी। हालांकि भाजपा द्वारा नियुक्त अन्य राज्यपालों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। मैं अगर नीतीश कुमार के बयान पर जाऊं तो भावी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद काफी अच्छा काम करेंगे।

भारत के राष्ट्रपति के बारे में अक्सर कहा जाता है कि इस पद पर आसीन व्यक्ति की हैसियत रबर स्टैंप की तरह होती है। क्या वाकई में ऐसा है, जरा विस्तार से बताएं?
ऐसा नहीं है। राष्ट्रपति एक सर्वोच्च संवैधानिक पद है। राष्ट्रपति के पास संविधान प्रदत्त काफी अधिकार और शक्तियां होती हैं। अगर कैबिनेट का फैसला राष्ट्रहित में नहीं है, तो राष्ट्रपति इसे लेकर सरकार को ताकीद कर सकते हैं। मैं पूर्व राष्ट्रपतियों के कुछ ऐतिहासिक निर्णयों का जिक्र करना चाहूंगा। के.आर. नारायणन राष्ट्रपति थे और इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री। उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे और रोमेश भंडारी राज्यपाल। बसपा प्रमुख मायावती ने भाजपा से समर्थन वापस वापस ले लिया। इस तरह कल्याण सिंह की सरकार अल्पमत में आ गई। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सदन में बहुमत साबित करने के लिए 48 घंटे का समय दिया। कल्याण सिंह ने सदन में बहमुत साबित कर दिया। विपक्षी दलों ने आरोप लगाया कि कल्याण सिंह ने जोड़-तोड़ और येन-केन तरीकों का प्रयोग किया। प्रधानमंत्री गुजराल ने राज्यपाल की सिफारिश पर उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने का प्रस्ताव राष्ट्रपति के.आर. नारायणन के पास भेजा। लेकिन राष्ट्रपति नारायणन ने इसे वापस कर दिया। प्रधानमंत्री गुजराल अगर चाहते तो यह प्रस्ताव दोबारा राष्ट्रपति के पास भेज सकते थे। नतीजतन बाध्य होकर राष्ट्रपति को इस पर दस्तखत करना ही पड़ता। इसे राष्ट्रपति पद की गरिमा का लिहाज करना कहें या प्रधानमंत्री गुजराल को गलती का हुआ एहसास कि उन्होंने दोबारा प्रस्ताव नहीं भेजा। उसी तरह बिहार में उन दिनों राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं और सुंदर सिंह भंडारी राज्यपाल थे। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार में आपराधिक घटनाएं अधिक हो रही थीं। इसे लेकर राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी ने केंद्र सरकार के पास राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश भेज दी। राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव को वापस कर दिया। उन्होंने भाजपा शासित प्रदेशों में हो रहे अपराध और बिहार के अपराध पर एक रिपोर्ट तैयार की। आंकड़ों के मुताबिक, भाजपा शासित प्रदेशों में अपराध की दर बिहार से अधिक थी। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को इसका एहसास हुआ और उन्होंने राष्ट्रपति के पास दोबारा प्रस्ताव नहीं भेजा। एक तीसरा वाकया कारगिल युद्ध के समय का है। लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका था। इसलिए लोकसभा भंग कर दी गई थी। कारगिल युद्ध पर चर्चा के लिए राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने प्रधानमंत्री वाजपेयी को राज्यसभा का विशेष सत्र बुलाने को कहा। राष्ट्रपति नारायणन ने वाजपेयी जी को याद दिलाया कि 1962 की भारत-चीन की लड़ाई के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। उस वक्त भी लोकसभा का कार्यकाल पूरा हो चुका था। तब बतौर सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन से राज्यसभा का विशेष सत्र बुलाने की मांग की थी। कहने का आशय यह है कि भारत के राष्ट्रपति के पास संविधान सम्मत काफी अधिकार हैं। इसलिए राष्ट्रपति को रबर स्टैंप कहना उचित नहीं है। हालांकि, कभी-कभी राष्ट्रपति का दर्द भी किसी बिल को लेकर छलका है। एक ऐसा ही विधेयक था आॅफिस आॅफ प्रॉफिट बिल। यूपीए की सरकार थी और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम थे। उनके पास सरकार ने दस्तखत के लिए वह बिल भेजा तो कलाम साहब ने उसे वापस भेज दिया। यह बिल जब उनके पास दोबारा आया तो उन्हें बाध्य होकर उस पर दस्तखत करना पड़ा। लेकिन अपनी इस पीड़ा का जिक्र उन्होंने किया।

क्या राष्ट्रपतियों ने कभी केंद्र सरकार की कुछ ऐसी सिफारिशों पर अपनी मुहर लगाई, जिसे लेकर उनकी आलोचना हुई हो?
मेरे ख्याल से ऐसा एक ही बार हुआ है। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। उन्होंने देश में आपातकाल लगाने की सिफारिश तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के पास भेजी थी। आपातकाल लागू करने की सिफारिश पर गंभीरतापूर्वक विचार किए बगैर उन्होंने अपनी मुहर लगा दी। आपातकाल लोकतंत्र के लिए काले अध्याय से कम नहीं था। चार दशकों बाद भी कांग्रेस को आपातकाल का गुनहगार माना जाता है। इसे लेकर आज भी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति फखरुद्दीनअली अहमद की आलोचना की जाती है। देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद बेहद सम्मानीय रहे। लेकिन मैं उन्हें दक्षिणपंथी विचारों से प्रभावित मानता हूं। वह ‘हिंदू कोड रिफॉर्म बिल’ के पक्षधर नहीं थे। साल 1955 में जब उनके पास यह रिफॉर्म बिल आया तो उन्होंने इसे वापस भेज दिया। गणतंत्र दिवस के दिन अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने मंजूर कर ली। हालांकि उनका यह फैसला सही नहीं था। वह भी तब जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा हो। लेकिन फिर भी भारत में राष्ट्रपति का पद काफी महत्वपूर्ण और सर्वोच्च संवैधानिक पद है।

क्या आपको लगता है कि राष्ट्रपति का चुनाव भी प्रत्यक्ष तरीके से होना चाहिए?
बिल्कुल नहीं, राष्ट्रपति का चुनाव मौजूदा व्यवस्था से ही होना चाहिए। वैसे संविधान में पहले गवर्नर का चुनाव जनता के मतदान से कराने का प्रस्ताव शामिल था। लेकिन इसे लेकर संविधान सभा में काफी विचार-विमर्श हुआ। संविधान सभा के सदस्यों का मानना था कि इससे गवर्नर और सरकार में टकराव बढ़ेगा, जो लोकतंत्र के लिए सही नहीं होगा। अंतत: संविधान सभा की सहमति से यह प्रस्ताव वापस ले लिया गया। भारत में राष्ट्रपति चुनाव की मौजूदा प्रणाली कई देशों से बेहतर है।

राष्ट्रपति का दायित्व संविधान की रक्षा करना होता है, लेकिन संसद और विधानसभाओं में हंगामा और कभी-कभी मारपीट जैसी शर्मनाक घटनाओं का होना लोकतंत्र और संविधान के लिए सही नहीं है। क्या राष्ट्रपति को इस मामले में सख्त कदम नहीं उठाना चाहिए?
संसद और विधानसभाओं की कार्यवाही आजकल हंगामे की भेंट चढ़ जाती है। देश की कई विधानसभाओं में हंगामा और मारपीट की घटनाएं हो चुकी हैं। अब तो टेलीविजन पर इसे लाइव भी दिखाया जाता है। इसे देखकर देश की जनता को खुद पर शर्म आती होगी कि उन्होंने कैसा जनप्रतिनिधि चुना है। लोकसभा और विधानसभाओं की कार्यवाही में अरबों रुपये खर्च होते हैं। यह पैसा जनता की गाढ़ी कमाई का है। राजनीतिक दलों ने सदनों को राजनीतिक मंच बना दिया है, जो संविधान और लोकतंत्र के लिए सही नहीं है। पहले सदनों में विपक्षी दलों द्वारा हंगामा होता था, लेकिन सदन की मर्यादा का ख्याल रखा जाता था। आज इसकी परवाह किसी को नहीं है। भारत के कई राष्ट्रपतियों ने इसे लेकर चिंता जाहिर की है। देश में बढ़ रही असहिष्णुता और खास जाति और समुदाय के लोगों पर हो रहे हमलों पर मौजूदा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कई मौकों पर अपनी गंभीर चिंता प्रकट की है। लेकिन मेरा मानना है कि राष्ट्रपति को लोकतंत्र और संविधान की रक्षा एवं मर्यादा बनाए रखने के लिहाज से थोड़ा सख्त जरूर होना चाहिए।