वीरेंद्र नाथ भट्ट।

समाजवादी पार्टी के प्रथम परिवार में चल रहा विवाद अभी थमा भी नहीं था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के सामने एक नया संकट खड़ा हो रहा है। सपा में अभी युद्ध विराम चल रहा है और पिता पुत्र के रिश्तों में तनाव कायम है। अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव में विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों के बंटवारे को लेकर महाभारत होना बाकी है। कांग्रेस से गठबंधन को लेकर पिता-पुत्र में नया विवाद छिड़ गया है। इस विवाद में चाचा शिवपाल, अमर सिंह सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह के साथ खड़े हैं। बरास्ते कांग्रेस गठबंधन द्वारा अखिलेश को बीजेपी विरोधी राष्ट्रीय सेकुलर राजनीति में अपना सुनहरा भविष्य दिख रहा है तो मुलायम सिंह यादव को अपना मुस्लिम वोट बैंक बचाने की चिंता है।

गठबंधन के मुद्दे पर पिता मुलायम सिंह की राय पुत्र अखिलेश से अलग है। सपा सुप्रीमो को डर है कि कांग्रेस से हाथ मिलाने से उनका मुस्लिम वोट बैंक, जिसको उन्होंने बड़ी मेहनत से कांग्रेस से छीना है, वो अपने पुराने घर कांग्रेस में ही न रह जाए। लेकिन अखिलेश यादव 2019 में राष्ट्रीय राजनीति के फलक पर अपने लिए एक बड़ी भूमिका का सपना देख रहे हैं। टीम अखिलेश के एक नेता ने कहा, ‘2017 के साथ 2019 पर भी हमारी निगाह है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नोटबंदी के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन कर अब राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी विरोधी सेक्युलर गठबंधन के एकमात्र नेता होने का दावा खो चुके हैं। अब वह इस फ्रंट की अगुवाई करने के एकमात्र दावेदार नहीं। इस कारण हम कांग्रेस से गठबंधन के पक्ष में हैैं ताकि 2017 के बाद अखिलेश यादव राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बना सकें।’ इस वर्ष सितंबर में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद से अखिलेश यादव की राह वैसे भी मुलायम सिंह से जुदा हो चुकी है। टीम अखिलेश समाजवादी पार्टी के प्रदेश कार्यालय के समानांतर निकट के जनेश्वर मिश्र ट्रस्ट के कार्यालय से काम करती है।

सपा सूत्रों के अनुसार पार्टी और सरकार में अपनी उपेक्षा और अखिलेश यादव द्वारा बाहरी आदमी बताए जाने से बेहद नाराज अमर सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि 2017 में सपा की सरकार बने या न बने उनकी सेहत पर क्या असर पडेÞगा क्योंकि मुख्यमंत्री तो उनकी कोई बात सुनते ही नहीं। अमर सिंह से मुलायम सिंह की निकटता इस बात से स्पष्ट है कि 2010 में पार्टी से निष्कासन के बाद इस वर्ष जून में पार्टी ने उनको राज्यसभा भेजा और बाद में मुलायम सिंह ने स्वयं हाथ से लिखकर उनको पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया। उसके बाद पार्टी संसदीय बोर्ड का सदस्य भी बनाया।

समाजवानी पार्टी के नेता दबी जबान से यह भी स्वीकार करते हैं कि मुलायम सिंह यादव के ऊपर कांग्रेस के साथ गठबंधन न करने का भी दबाव है जिसकी अनदेखी वो नहीं कर सकते लेकिन अखिलेश यादव सब कुछ जानते हुए भी कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए बेकरार हैं। समाजवादी पार्टी के एक नेता ने कहा, ‘राजनीति में हर बात खोल कर नहीं कही जाती, कुछ बातें बगैर कहे भी लोग समझ लेते हैं।’ नवंबर में मुलायम सिंह यादव के बयान कि सपा अब किसी भी दल से गठबंधन नहीं केवल विलय करेगी का हवाला देते हुए सपा सूत्रों का कहना है कि यह बयान ‘नेताजी पर दबाव’ का ही नतीजा था।

समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य नरेश अग्रवाल के अनुसार, ‘आखिर हमें कांग्रेस से हाथ मिला कर क्या हासिल होगा। हमें मिलेगा तो कुछ नहीं उलटे हमारा अल्पसंख्यकों में जनाधार जरूर कांग्रेस की ओर खिसक सकता है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अब खत्म हो चुकी है लेकिन हमारे दल के कुछ बड़े नेता और कांग्रेस के लोग इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं हैं। यदि कांग्रेस का कुछ वोट बैंक प्रदेश में बचा भी है तो अपने वोट को हमें ट्रांसफर करने की ताकत उसके पास नहीं है यानी जो 75-80 सीटें हम कांग्रेस को देंगे वहां हमारा जनाधार कमजोर होगा।’

एक तरफ मुलायम सिंह पर मुस्लिम मतों का विभाजन रोकने के लिए सेकुलर दलों के साथ गोलबंदी का दबाव है तो दूसरी तरफ मुस्लिम मतों के कांग्रेस की ओर खिसकने का डर भी है। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव से पहले सेकुलर महागठबंधन से नाता तोड़कर मुलायम सिंह यादव की सेकुलरिज्म के प्रति निष्ठा पहले से ही सवालों के घेरे में है।

समाजवादी पार्टी का यह भी धर्म संकट है कि उसे मुस्लिम समाज को यह संदेश देना है कि बीजेपी को उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने से रोकने के लिए वह सेकुलर गठबंधन के प्रति गंभीर है। वहीं दूसरी ओर उसे बहुजन समाज पार्टी और भाजपा के हमलों से अपना बचाव भी करना है। दोनों ही दल समाजवादी पार्टी पर तंज कस रहे हैं कि सपा ने तो चुनाव से पहले ही हार मान ली है, इसीलिए गठबंधन के लिए हाथ पांव मार रही है।

कभी उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के विश्वस्त साथी रहे कांग्रेस के पूर्व महामंत्री कामिल किदवई कहते हैं, ‘दरअसल सपा और कांग्रेस दोनों इस आरोप से बचना चाहती हैं। दोनों बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए गठबंधन करने से कतरा रही हैं। कांग्रेस के नेता खुलकर गठबंधन के खिलाफ नहीं बोलते। कोई इसे अफवाह कहता है तो कोई बातचीत से इनकार करता है और ज्यादातर नेता अकेले चुनाव लड़ने की बात करते हैं।’ कामिल कहते हैं, ‘वही हाल सपा का है। इस दल ने 2017 विधानसभा चुनाव के उम्मीदवार तय करने का काम 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही शुरू कर दिया था और सभी 403 सीटों के लिए उम्मीदवार तय हो चुके हैं केवल घोषणा बाकी है। इस मौके पर यदि सपा कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के लिए 100 सीटें छोड़ने की बात करती है तो पार्टी में बगावत की स्थिति होगी और ये नेता चुप नहीं बैठेंगे-कोई बसपा और कोई भाजपा का दामन थाम लेगा।’

नवंबर में समाजवादी पार्टी के रजत जयंती समारोह पर जनता परिवार के नेताओं लालू यादव, शरद यादव, केसी त्यागी, अजित सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा का लखनऊ में जमवाड़ा हुआ था। सभी ने बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व महागठबंधन पर जोर दिया था। अजित सिंह ने तो मुलायम सिंह से दिल बड़ा करने की अपील करते हुए कहा था, ‘सारे मतभेद भूल कर अब सबको एक मंच पर आना चाहिए।’ लेकिन तब मुलायम सिंह यादव ने अपने पत्ते नहीं खोले थे। इसी दौरान कांग्रेस के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कई दौर में मुलायम सिंह से लंबी बात की थी। प्रशांत किशोर की अमर सिंह से भी इस बारे में बात हो चुकी थी। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव प्रशांत किशोर को अमर सिंह का करीबी मानते थे, इसलिए मिलना टाल रहे थे लेकिन नवंबर में उनकी भी प्रशांत किशोर से लंबी बात हुई। इस बीच कांग्रेस ने साफ किया कि उसने प्रशांत किशोर को किसी अन्य दल से गठबंधन के संबंध में वार्ता के लिए अधिकृत नहीं किया है। फिर भी उम्मीद बनी हुई थी कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच कुछ पक रहा है और इसका नतीजा जल्दी देखने को मिलेगा।

रजत जयंती समारोह के एक सप्ताह बाद 12 नवंबर को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने बयान दिया कि सपा अब किसी दल से समझौता नहीं करेगी केवल विलय करेगी। मुलायम सिंह के बयान पर पलटवार करते हुए उत्तर प्रदेश कांग्रेस चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष और राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने कहा, ‘उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता ने कहा कि गठबंधन नहीं करेंगे, किसी को विलय करना हो तो करे। मुझे आश्चर्य है क्योंकि नदियां समुद्र में मिलती हैं न कि समुद्र नदियों में मिलता है। समुद्र समुद्र होता है अपनी धारा में चलता है और नदी नाले, नदी नाले ही होते हैं।’

समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘बुनियादी बात है कि मुसलमान बीजेपी विरोधी राजनीति की धुरी हैं और पिछले पांच सालों में और आज भी कई ऐसे कारण मौजूद हैं जहां समाजवादी पार्टी को मुस्लिम को जवाब देना मुश्किल होगा जैसे कि 2013 का मुजफ्फरनगर का दंगा और दंगे से बेघरबार हुए मुस्लिम परिवारों को राहत, हैदराबाद के मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी की उत्तर प्रदेश में सक्रियता और प्रदेश के कुछ इलाकों में उनकी मुसलमानों के बीच लोकप्रियता और आजम खान के समय समय पर दिए गए विवादास्पद बयान, मुसलमानों को 2012 और 2014 के चुनाव में सरकारी सेवा में आरक्षण का वादा और पूरा करने में सरकार की विफलता। इस सबके बाद भी समाजवादी पार्टी बीजेपी के खिलाफ एक मुख्य ताकत है और हमारी यह ताकत बनी रहे इसलिए मुस्लिम समाज का एक मुश्त समर्थन जरूरी है। सपा को यदि सत्ता में वापस आना है तो यह जरूरी है कि मुस्लिम का एक बड़ा हिस्सा उसके साथ रहे। ऐसी स्थिति में हम कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात सोच भी कैसे सकते हैं।’

मुलायम के कुनबे में कलह के बावजूद यादव समाजवादी पार्टी को छोड़ने नहीं जा रहे हैं लेकिन सबसे बड़ा पेंच मुसलमानों के रुख को लेकर फंसा हुआ है जो अस्पष्ट राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा को हराने की क्षमता वाले उम्मीदवार के पक्ष में टैक्टिकल वोटिंग करते हैं।’

इसे भांप कर बसपा नेता मायावती ने मुसलमान उम्मीदवारों की संख्या बढ़ा दी है और अखिलेश यादव के मामूली बयानों का भी जवाब मुस्तैदी से रिटर्न कर रही हैं ताकि अपने को मुख्य मुकाबले में दिखा सकें। चुनाव तक के लिए मायावती ने अखिलेश के लिए एक नया नाम बबुआ ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन (बीबीसी) रख दिया है।

दूसरी तरफ भाजपा जो अखिलेश सरकार पर लगातार आक्रामक दिख रही थी, उसका आत्मविश्वास नोटबंदी के बाद हिला लग रहा है। यूपी के सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी को रिपोर्ट दी है कि अगर मध्य जनवरी तक बैंकों में पर्याप्त कैश न आया तो चुनाव पर बुरा असर पड़ सकता है। अखिलेश यादव ने आशंका जाहिर की है कि नोटबंदी की मुश्किलों और कालाधन पकड़ने की विफलता से ध्यान हटाने के लिए भाजपा सांप्रदायिक उन्माद फैला सकती है ताकि हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण हो सके।

अखिलेश का गेम प्लान
समाजवादी पार्टी में अब यह ढकी छुपी बात नहीं कि अखिलेश यादव की राह पिता से पूरी तरह अलग हो चुकी है। पिछले पांच सालों से पापा और चाचा के साए में राजनीति करने का तंज झेल रहे अखिलेश अब राजनीति में एक आजाद नेता की तरह पारी खेलने की तैयारी में हैं। पार्टी का आम कार्यकर्ता भी अब खुल कर चर्चा करता है कि अखिलेश ने अलग पार्टी बनाने की तैयारी कर ली थी लेकिन राम गोपाल यादव के कहने पर यह विचार त्याग दिया। चुनाव सिर पर है लेकिन प्रचार में पिता पुत्र की राह अलग अलग है। मुलायम सिंह यादव ने गाजीपुर और बरेली में बड़ी चुनावी रैली की लेकिन अखिलेश दोनों से दूर रहे। वे पांच करोड़ की लागत से तैयार रथ से प्रचार कर रहे हैं और अब तक लखनऊ से उन्नाव, मुरादाबाद से रामपुर में रोड शो कर चुके हैं।

परिवार में भारी कलह, संगठन में दो फाड़ और प्रत्याशियों में भ्रम के बावजूद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आत्मविश्वास से लबरेज नजर आते हैं। उनके आत्मविश्वास का कारण पार्टी का सबसे विश्वसनीय चेहरा होना और इकलौती चुनावी रणनीतिक छवि का प्रबंधन है। पार्टी पर पकड़ उनके विरोधी और चाचा शिवपाल सिंह यादव की है। सपा के नेता अब यह मानने लगे हैं कि अखिलेश तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता के रास्ते पर चल पड़े हैं। वे हर दिन फीता काटते और खैरात बांटते हुए यकीन दिलाने में लगे हैं कि यदि उन्हें दोबारा मौका दिया गया तो वे जनता पर खजाना लुटा सकते हैं। सपा सूत्रों का कहना है, ‘चुनाव से पहले मुलायम सिंह यादव के कुनबे के गुटों की लड़ाई का एक निर्णायक दौर बाकी है। समानांतर बैठकें चल रही हैं।’

चुनाव अखिलेश के चेहरे पर लड़ा जाना है लेकिन टिकट पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते शिवपाल सिंह यादव बांट रहे हैं। पहली खेप में आपराधिक पृष्ठभूमि के ऐसे लोगों को जानबूझकर टिकट दिए गए हैं जिनका विरोध अखिलेश यादव करते आए हैं। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की सारी ऊर्जा पार्टी को टूटने से बचाने में लग रही है जबकि उन्हें इस वक्त वोटरों से मुखातिब होना चाहिए था। अखिलेश जानते हैं कि संगठन पर उनका अख्तियार नहीं, इसलिए उन्होंने अपना रास्ता चुन लिया है।

अखिलेश का करोड़ों के बजट वाला भारी भरकम प्रचार तंत्र सिर्फ यह नहीं बता रहा कि उन्होंने लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे, मेट्रो रेल और राज्यकर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग देने जैसे वादे पूरे किए हैं बल्कि जोर ऐसे आधुनिक सोच वाले नेता की छवि प्रचारित करने पर है जिसके दिल में गरीबों के लिए दर्द है। इसलिए विज्ञापनों में मुख्यमंत्री की पत्नी और बच्चों को दिखाया जा रहा है, एक बार फिर लैपटाप बांटे जा रहे हैं। नोटबंदी के बाद लग रही बैंक की लाइनों में मरने वालों के परिजनों को मुआवजा दिया जा रहा है, इस साल चौथी बार यशभारती पुरस्कार बांटे जा रहे हैं, अगर अगली सरकार बनी तो जनता को स्मार्ट फोन बांटने का वादा है।

कांग्रेस से गठबंधन की संभावना को सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव हालांकि खारिज कर चुके हैं लेकिन अखिलेश को लगता है कि अभी चुनाव में समय है और तब तक हालात बदल सकते हैं। लेकिन अभी वे मान रहे हैं कि गठबंधन के बारे में राष्ट्रीय अध्यक्ष फैसला लेंगे और उनकी राय में समाजवादी पार्टी ही अगली सरकार बनाएगी और गठबंधन हो जाएगा तो 300 से ऊपर सीटें जीत लेंगे। अखिलेश यह भी दावा कर रहे हैं कि कांग्रेस के साथ गठबंधन की संभावना अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। वे यह दोहराना नहीं भूलते कि अगले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को अपने दम पर ही बहुमत मिल जाएगा, लेकिन अगर कांग्रेस से गठबंधन हुआ तो 300 से ज्यादा सीटें मिल जाएंगी। अखिलेश की राय में कांग्रेस कितनी भी कमजोर क्यों न हो, लेकिन धर्मनिरपेक्ष ताकतों का साथ होना जरूरी है और समाजवादियों का मानना है कि कांग्रेस जब सबसे कमजोर होती है तो सबसे अच्छी मित्र उन्हीं की होती है।

कांग्रेस से गठबंधन की संभावना के बारे में अखिलेश यादव का कहना है,‘यह सही है कि नेताजी ने कहा है कि गठबंधन नहीं विलय होगा। देखिए आने वाले समय में क्या फैसला लेते हैं। अभी बातचीत होगी तो देखते हैं कि क्या बनता है। अभी चुनाव आने में समय है। राजनीति में क्या फेरबदल होता है, कोई नहीं जानता।’

कभी सामाजिक न्याय और किसानों की राजनीति करने के लिए जानी जानी वाली समाजवादी पार्टी के बारे में अखिलेश का दावा है, ‘जातिगत समीकरण नहीं बल्कि पिछले पांच साल के उनके काम और नोटबंदी से जनता को हुई परेशानियां मतदाताओं को उनकी पार्टी की तरफ खींच लाएंगी।’ अखिलेश के लिए सपा में पारिवारिक कलह अब कोई मसला नहीं है और चुनावी मुद्दे पूरी तरह से बदल चुके हैं। उत्तर प्रदेश में पहली बार विकास के मुद्दे पर वोट पड़ेंगे, जातिगत समीकरणों पर नहीं।

अखिलेश यह भी दावा करते हैं कि मुसलमान मतदाताओं पर ज्यादा फोकस करने से सपा का युवा वोटबैंक नहीं खिसकेगा। अब राजनीति बदल चुकी है और जातिगत मसले अहम नहीं रह गए, मुसलमान मतदाताओं के अपने अलग तरह के सवाल हैं। अगर मैं विकास का काम कर रहा हूं तो उन्हें भी तो लाभ मिलना चाहिए। उनका जितना हक है उतना मैं दे रहा हूं। लोगों को यह बात समझाई जाए तो कोई इसका बुरा नहीं मानेगा। लेकिन कुछ लोग धर्म को आधार बनाकर लाभ लेना चाहते हैं लेकिन उससे लाभ मिलेगा नहीं। अब राजनीति बदल गई है और अन्य प्रदेशों में जितने दलों ने सत्ता दोबारा हासिल की है वे सब विकास के मुद्दे पर जीते हैं।

अखिलेश का कहना है, ‘हमारा पांच साल का काम और नोटबंदी से हुई परेशानियां हमें चुनाव जिताएंगी। जो लाइनें एटीएम के बाहर दिख रही हैं, वे हमें चुनावी बूथ के बाहर नजर आएंगी।’ बीजेपी को अपना काम दिखाना होगा कि ढाई साल में यहां क्या किया। प्रधानमंत्री यहां से चुनाव जीते, गृहमंत्री यहां से और रक्षामंत्री भी यहां से राज्यसभा में गए। सबसे ज्यादा सांसद उनके यूपी से हैं और उन्होंने राज्य को कुछ नहीं दिया। सिर्फ एक एक आदर्श गांव दिया और वहां कुछ हो नहीं रहा। अखिलेश के विचार में बहुजन समाज पार्टी उनके लिए कोई चुनौती नहीं है। बहुजन समाज पार्टी सरकार में आकर सिर्फ ‘हाथी’ लगाती है। नौ साल हो गए हाथी एक इंच मूव नहीं किए। ऐसे लोगों को इस बार वोट नहीं देगी जनता।’