ओपिनियन पोस्‍ट।

पराली यानी धान की फसल का अवशेष, जिसे किसान जला रहे हैं। जाहिर है कि उससे इस साल भी दिल्‍ली की हवा में जहर घुल रहा है। भला हो तितली तूफान का, जिसने हवा की गति बढ़ा दी और प्रदूषण हवा हो जाने से अभी हमें सांस लेने में ज्‍यादा परेशानी नहीं महसूस हो रही है।

आखिर इस समस्‍या का समाधान क्‍या है-पराली जलाना किसानों की मजबूरी है तो पराली के निपटान वाली मशीनें भी कारगर साबित नहीं हो रही हैं। हां, इतना जरूर है कि पराली का इस्‍तेमाल करके कुछ घरेलू उपयोग के प्रोडक्‍ट जैसे कप-प्‍लेट आदि बनाए जा सकते हैं। इस दिशा में पहल भी हो चुकी है।

दिल्ली सरकार ने शुक्रवार को हरियाणा और पंजाब में दिल्ली-चंडीगढ़ के साथ के विभिन्न इलाकों पर पराली जलाने की तस्वीरें जारी की। दिल्ली सरकार ने दोनों राज्यों से मांग की है कि पराली जलाने से रोकने के लिए कदम उठाएं ताकि दिल्ली को एक बार फिर दमघोटू हवा की चपेट में न आना पड़े।

दिल्ली के पर्यावरण मंत्री इमरान हुसैन ने कहा कि तस्वीरें इस बात का सबूत हैं कि बिना किसी रोक के पराली को जलाना जारी है। उन्होंने चेताया कि आने वाले हफ्तों में दिल्ली गंभीर वायु प्रदूषण का शिकार हो सकती है। पिछले साल भी दिल्ली को दमघोंटू स्मॉग से जूझना पड़ा था,  तब भी पराली जलाने की घटनाएं सामने आई थीं।

इको फ्रेंडली मशीन

जिस धान की पराली जलाने से दिल्ली समेत हरियाणा, पंजाब, यूपी, राजस्थान, हिमाचल में प्रदूषण से लोग बीमार हो रहे हैं, अब वही पराली किसानों की तंगहाली दूर करने का जरिया बनेगी। इसको ठिकाने लगाने के लिए आईआईटी दिल्ली के वैज्ञानिकों ने मशीन तैयार की है। अब इसे जलाने की बजाय किसान एक किलो पराली से 45 रुपये तक की कमाई कर सकेंगे।

आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर बॉयोमेडिकल इंजीनियरिंग की प्रोफेसर नीतू सिंह की अध्यक्षता में रिसर्च स्कॉलर्स अंकुर कुमार व प्राचीर दत्ता ने यह तकनीक तैयार की है। प्रो. नीतू के मुताबिक पराली जलाने से दिल्ली गैस चैंबर बन जाती है। अन्य पड़ोसी राज्यों में भी धुंध छा जाती है, जिसका असर आम आदमी की सेहत पर पड़ता है।

टीम सदस्यों के मुताबिक, राजस्थान, हरियाणा व पंजाब सरकार और किसानों से इस तकनीक को साझा करने की तैयारी चल रही है। इससे पहले आईआईटी दिल्ली कैंपस में ग्रामोद्योग परिसर में पायलट प्रोजेक्ट लगाया गया था जो सफल रहा है। इन राज्यों में किसानों को मशीन लगाने की जानकारी के साथ बाद में पल्प से तैयार होने वाले प्रोडक्ट बनेंगे।

प्रो. नीतू के मुताबिक, इस तकनीक में सबसे पहले एक मशीन लगेगी। आठ से दस किसान मिलकर मशीन सेटअप कर सकते हैं। मशीन पराली को काटेगी और उसमें आईआईटी दिल्ली द्वारा तैयार पेटेंट केमिकल डाला जाएगा, जिससे पल्प के साथ-साथ लिगमिन तैयार होगा। इस पल्प से इको फ्रेंडली कप व प्लेट तैयार किए जाएंगे, जिसे खाओ-फेंको का नाम दिया गया है।

एक एकड़ जमीन से करीब दो टन पराली निकलती है। इससे एक टन पल्प तैयार होगा। इसका इस्तेमाल पेपर मेकिंग प्लांट वाले करते हैं जो 45 रुपये प्रति किलो बिकती है। इसलिए अब किसान घर बैठे पराली से 45 रुपये प्रति किलो की कमाई करेंगे। लिगमिन बैटरी या फेबीकॉल आदि तैयार करने में प्रयोग होगा। लिगमिन मार्केट में 70 रुपये प्रति किलो बिकता है।