मकसद बहुत पाक था, योजना ठोस थी और संसाधनों की कोई कमी नहीं थी, लेकिन हीलाहवाली और लापरवाह रवैये के चलते सरकार लक्ष्य साधने से चूक गई. यही वजह है कि पांच साल में केवल चार गोकुल ग्राम ही बन सके. कौन है इस नाकामी का जिम्मेदार?

गोकुल ग्राममान लीजिए, भाजपा के नेतृत्व वाली मौजूदा केंद्र सरकार गायों के संरक्षण के लिए कोई योजना बनाती है और गोकुल ग्राम बनाने का लक्ष्य तय करती है, तो कायदे से पांच साल में कितने गोकुल ग्राम बन जाने चाहिए थे? 20, 50, 100, 200. लेकिन, पांच साल में सरकार ने केवल चार गोकुल ग्राम बनाए. अब यह गोकुल ग्राम है क्या, इसकी जानकारी आगे साझा करेंगे. फिलहाल, थोड़ा फ्लैशबैक में जाकर इस ऐतिहासिक भाषण को याद कीजिए. 2 अप्रैल 2014 को जब नरेंद्र मोदी ने बिहार में दिए अपने चुनावी भाषण में पिंक रिवॉल्यूशन (गुलाबी क्रांति) का मुद्दा उठाया था और उस बहाने लालू प्रसाद यादव को कठघरे में खड़ा किया था, तब देश को लगा था कि अब भारत की गायों के भी अच्छे दिन आ जाएंगे. लोगों को यह भी यकीन हो चला था कि जो भारत बीफ एक्सपोर्ट में दुनिया के नंबर वन देशों में गिना जाता है, वहां अब बीफ एक्सपोर्ट में कमी आएगी. यह अलग बात है कि मोदी जी के सत्ता में आने के बाद से भारत बीफ एक्सपोर्ट के क्षेत्र में लगातार आगे बढ़ता चला गया.

बहरहाल, तकरीबन पांच साल पहले की बात याद रखते हुए, आज की स्थिति पर चर्चा करते हैं. मौजूदा केंद्र सरकार की ऐसी कौन सी योजना है, जिसके बारे में आप सुधी पाठक नहीं जानते? शायद ही ऐसी कोई योजना हो, जिसका नाम आपने नहीं सुना होगा. जाहिर है, जब एक-एक योजना के प्रचार पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही हो, तो आपको मजबूरन नाम तो सुनना ही पड़ेगा. जैसे जनधन, उज्जवला, स्वच्छ भारत, स्किल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, मुद्रा लोन. ये ऐसे नाम हैं, जिनसे आज भारत का तकरीबन हर शख्स परिचित है. लेकिन, इस स्टोरी में हम एक ऐसी योजना पर चर्चा करेंगे, जिसका नाम सुनकर आपको गूगल की मदद लेनी होगी, यह जानने के लिए कि आखिर यह योजना लांच कब हुई, क्यों हुई, किसने की और आपको यह भी आश्चर्य होगा कि आखिर इसके विज्ञापन क्यों नहीं दिखते. इस योजना का नाम है, राष्ट्रीय गोकुल मिशन. जुलाई 2014 में इसे कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने लांच किया था.

5 साल, 835 करोड़ रुपये, 4 गोकुल ग्राम

khulasa-2यह योजना देसी गायों के संरक्षण, उनकी नस्लों के विकास, दुग्ध उत्पादन बढ़ाने एवं पशु उत्पाद की बिक्री समेत कई लक्ष्य हासिल करने के लिए शुरू की गई थी. 26 नवंबर 2018 को सूचना अधिकार कानून के तहत कृषि मंत्रालय के अधीन पशुपालन विभाग ने जो सूचना उपलब्ध कराई है, उसके मुताबिक, मंत्रालय की तरफ से इस मिशन के लिए पिछले पांच सालों में तकरीबन 835 करोड़ रुपये जारी किए जा चुके हैं. वित्तीय वर्ष 2014-15 में 159.4 करोड़, 2015-16 में 81.77 करोड़, 2016-17 में 104.5 करोड़, 2017-18 में 190 करोड़ और 2018-19 में 301.5 करोड़ रुपये जारी हुए हैं. अब सवाल यह है कि तकरीबन 8३५ करोड़ की इस मोटी रकम से काम क्या हुआ? क्या देश में कोई ठोस गो नीति बन सकी, जिससे मोदी जी का सपना (पिंक रिवॉल्यूशन के खिलाफ) पूरा हो सके? इसका भी जवाब इसी दस्तावेज में है. सूचना अधिकार कानून के तहत जानकारी दी गई कि आज की तारीख (26 नवंबर 2018) तक पूरे देश में केवल चार गोकुल ग्राम बनाए जा सके, जो वाराणसी, मथुरा, पटियाला और थतवाडे (पुणे) में स्थित हैं. यह मिशन जब लांच किया गया था, तब 13 राज्यों में पीपीपी मॉडल के तहत 20 गोकुल ग्राम बनाने की बात कही गई थी और इसके लिए 197.67 करोड़ रुपये का बजट भी रखा गया था, जिनमें से 68 करोड़ रुपये जारी भी कर दिए गए थे, लेकिन 26 नवंबर 2018 तक केवल उपरोक्त चार स्थानों पर ही चार गोकुल ग्रामों का निर्माण हो पाया.

दिलचस्प तथ्य यह है कि खुद राष्ट्रीय गोकुल मिशन के दस्तावेज बताते हैं कि 2012-13 में देश भर में देसी नस्ल के 45 मिलियन (4.5 करोड़) दुधारू पशु हैं, जो 59 मिलियन टन दूध देते हैं. हालांकि, जुलाई 2018 तक यह आंकड़ा 90 मिलियन यानी 9 करोड़ है. जाहिर है, इसमें गाय और भैंस, दोनों की गणना शामिल होगी. गोकुल ग्राम स्थापना की एक अनिवार्य शर्त यह है कि 60 प्रतिशत गायें दुधारू और 40 प्रतिशत गायें बिना दूध देने वाली, बीमार और बूढ़ी होनी चाहिए. यहां समझने वाली बात है कि चार गोकुल ग्रामों में ऐसी कितनी गायों को आश्रय दिया गया होगा? वैसे इस मिशन में यह भी प्रावधान है कि गोपालन संघ को सरकारी सहायता दी जाएगी. यानी गोशाला चलाने वाली संस्थाओं को भी सरकारी पैसा दिए जाने की बात इस मिशन में है. लेकिन, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाई जा रही गोशालाओं की हालत क्या है, वहां बीमार और बूढ़ी गायों की कैसी देखभाल होती है, इसका नमूना जयपुर की गोशाला में मरती गायों की खबर के जरिये देखने को मिल जाता है.

इस आरटीआई में यह भी पूछा गया था कि अब तक देश भर में कितने कामधेनु ब्रीडिंग सेंटर (प्रजनक केंद्र) स्थापित हुए? जवाब में पशुपालन विभाग का कहना है कि राष्ट्रीय गोकुल मिशन के तहत अभी तक केवल एक कामधेनु ब्रीडिंग सेंटर आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले में बनाया गया है और मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में अभी एक सेंटर का काम जारी है. दरअसल, ये कामधेनु ब्रीडिंग सेंटर देसी नस्ल की गायों के प्रजनन व विकास के कार्य करने के लिए बनाए जा रहे हैं. प्रत्येक सेंटर पर 1,000 गायें रखी जाएंगी. इसके अलावा देश के 10 अन्य स्थानों पर आईवीएफ लैबोरेट्रीज बनाई गई हैं.

9 करोड़ पशु, 1.3 करोड़ को हेल्थ कार्ड

31 जुलाई 2018 तक राष्ट्रीय गोकुल मिशन की प्रगति रिपोर्ट बताती है कि देश भर के 90 मिलियन यानी 9 करोड़ दुधारू पशुओं में से केवल 1.31 करोड़ पशुओं को हेल्थ कार्ड (नकुल स्वास्थ्य पत्र) दिए जा चुके हैं. सभी 9 करोड़ दुधारू पशुओं को 2020-2021 तक हेल्थ कार्ड देने का लक्ष्य रखा गया है. लेकिन, जब चार सालों में केवल 13-14 प्रतिशत पशुओं को हेल्थ कार्ड दिए जा सके, तो क्या सौ प्रतिशत लक्ष्य 2021 तक पूरा हो सकता है? इसके अलावा सभी पशुओं का रजिस्ट्रेशन करके एक नेशनल डेटाबेस भी बनाए जाने की बात इस मिशन में है. 90 करोड़ दुधारू समेत सभी पशुओं का रजिस्ट्रेशन कराए जाने की योजना है. लेकिन, जुलाई 2018 तक केवल 1,26,47,471 (1.26 करोड़) पशुओं का ही रजिस्ट्रेशन हो सका है. क्या सभी पशुओं का रजिस्ट्रेशन 2021 तक संभव हो पाएगा, यह एक बड़ा सवाल है, जिसका जवाब हर गो भक्त को, गो रक्षक को सरकार से पूछना चाहिए. गाय निश्चित तौर पर भारतीय समाज और भारतीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है. लेकिन, पशुधन को लेकर कोई भी सरकार अब तक ठोस नीति नहीं बना सकी. अलबत्ता, गाय को राजनीति का केंद्र बनाकर देश का माहौल जरूर संवेदनशील बनाया जाता रहा है. केंद्रीय नेतृत्व के बयानों/विचारों को आधार बनाकर एक तबका खुद को गोरक्षक करार देकर इस तरह पेश करता रहा है, जिससे समाज में दूरी और नफरत का माहौल बनता है. असल गोरक्षक तो वहीं होता, जो सरकार से उपरोक्त योजनाओं का हिसाब मांगता. सरकार से पूछता कि जो गाय करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी का जरिया बन सकती थी, उसे आखिर क्यों नफरत भरी राजनीति का माध्यम बना दिया गया?