सपा और बसपा के बीच गठबंधन होने के बाद ऐसा माना जाने लगा था कि अब चुनाव भाजपा बनाम सपा-बसपा होने वाला है, लेकिन प्रियंका गांधी की सक्रियता ने राज्य की सियासत में एक नया मोड़ पैदा कर दिया है. राज्य में कांग्रेस की मजबूत होती स्थिति से गठबंधन के साथ-साथ भाजपा की परेशानी भी बढऩे लगी है. अखिलेश यादव के बदले सुरों और भाजपा नेताओं की बेचैनी से माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में अब त्रिकोणीय मुकाबला होने वाला है.
लोककसभा में सबसे अधिक प्रतिनिधि भेजने वाले प्रदेश की सियासत का रंग बदलने लगा है. कमल, हाथी और साइकिल के साथ-साथ अब पंजे ने भी अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है. मायावती और अखिलेश यादव के चेहरे पर शिकन आनी शुरू हो गई है, तो मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की मुस्कुराहट भी मंद होने लगी है. कांग्रेस ने जबसे अपने तरकश से प्रियंका गांधी नामक तीर निकाला है, उत्तर प्रदेश की सियासत में खलबली मच गई है. भाजपा को अपने परंपरागत वोटों में सेंधमारी का डर सता रहा है, वहीं मायावती और अखिलेश को अपना आधार कमजोर होने की चिंता सता रही है. दलोकसभा चुनाव की तैयारी में पूरी तरह जुटीं प्रियंका ने एक नया मोड़ पैदा कर दिया है. कांग्रेस के कार्यकर्ता उत्साहित हैं, उनके अंदर जबरदस्त जोश देखा जा रहा है. सालों से निष्क्रिय पड़े कांग्रेसी नेताओं-कार्यकर्ताओं को संजीवनी मिल गई है.प्रियंका गांधी ने भाजपा और बसपा-सपा, दोनों को ही अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने को मजबूर कर दिया है. उत्तर प्रदेश में मुकाबला त्रिकोणीय होने वाला है.
दरअसल, प्रियंका गांधी को कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाए जाने के बाद राज्य की सियासत बदलती नजर आ रही है. जो लोग प्रियंका को कांग्रेस में पद दिए जाने को लेकर बयानबाजी कर रहे थे, उनके माथे पर भी शिकन आने लगी है. प्रियंका गांधी के देसी तौर-तरीके, सौम्यता से संवाद, कार्यकर्ताओं के साथ जुड़ाव और हिंदी में बातचीत लोगों को पसंद है. साथ ही सालों से मीडिया में यह बात जोर-शोर से उठती रही है कि प्रियंका गांधी में इंदिरा गांधी की छवि दिखाई देती है, इसका फायदा भी उन्हें चुनाव प्रचार के दौरान कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोडऩे में मिल रहा है. हाल में प्रियंका गांधी ने लखनऊ में एक रोड शो किया था, जिसमें काफी भीड़ जुटी. रोड शो की सफलता और पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ उनकी लगातार बैठकों के चलते सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस हो रही है. कांग्रेस को कमजोर समझने वाले अखिलेश यादव के सुर अचानक बदल गए हैं. लखनऊ में प्रियंका और राहुल गांधी के रोड शो के बाद अखिलेश यादव ने कहा कि गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल है. कांग्रेस के लिए केवल दो सीटें छोडऩे वाले अखिलेश-मायावती को अब अपने वोटों के बिखराव का डर सताने लगा है. उन्हें केवल मुस्लिम वोटों के बिखराव की चिंता नहीं है, बल्कि पिछड़ों एवं दलितों के बीच भी कांग्रेस की अच्छी पकड़ होने का डर दिखाई पड़ रहा है. उत्तर प्रदेश में करीब 20 प्रतिशत मुसलमान हैं. पिछले कुछ सालों से कांग्रेस का आधार कमजोर होने के बाद मुसलमानों के वोट सपा को मिलते रहे हैं. बसपा ने भी मुसलमानों के बीच अपनी पैठ बनाई, जिसके कारण प्रदेश में मुस्लिम वोट बसपा और सपा के बीच बंटते रहे हैं. हालांकि, कांग्रेस का मुस्लिम आधार बिल्कुल कमजोर नहीं हुआ है, उसके खाते में भी मुस्लिम वोट जाते रहे हैं, जिसका फायदा भाजपा को मिलता रहा है.
मायावती और अखिलेश यादव ने पिछड़ों एवं दलितों के साथ-साथ मुस्लिम वोटों का बिखराव रोकने के लिए गठबंधन किया है, लेकिन कांग्रेस के मजबूत होने के साथ ही दोनों ही पार्टियों को अपने वोट बैंक में सेंधमारी का खतरा मंडराता दिखाई पडऩे लगा है. पिछले कुछ सालों से कई मुस्लिम नेता कांग्रेस के साथ जुड़े हैं. बसपा का मुस्लिम चेहरा रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी पिछले साल फरवरी में कांग्रेस में शामिल हो गए. यही नहीं, पिछले डेढ़ सालों के दौरान बसपा के करीब 50 मुस्लिम नेता कांग्रेस में शामिल हुए. हालांकि, कांग्रेस अब तक उनका बहुत ज्यादा इस्तेमाल नहीं कर पाई, लेकिन सपा-बसपा की बेरुखी के चलते अकेले चुनाव लडऩे की घोषणा और प्रियंका गांधी के हाथों में पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपने के बाद कांग्रेस अब ऐसे नेताओं का भरपूर इस्तेमाल करने की तैयारी में है. दूसरी ओर भाजपा को सत्ता से हटाने की तैयारी में बैठे मुस्लिमों के पास बसपा-सपा गठबंधन के अलावा कांग्रेस के साथ जाने का विकल्प भी है, क्योंकि यह चुनाव विधानसभा के लिए नहीं, बल्कि लोकसभा के लिए है और भाजपा के विकल्प के तौर पर कांग्रेस का आधार बसपा-सपा से अधिक मजबूत है. केंद्र में भाजपा को कांग्रेस ही चुनौती दे सकती है, न कि बसपा-सपा गठबंधन. ऐसे में लोकसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम मतदाताओं के बीच एक संशय की स्थिति होगी. जैसे-जैसे कांग्रेस की स्थिति मजबूत होगी, वैसे-वैसे संशय और बढ़ता जाएगा. कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार भी संशय की इस स्थिति को बढ़ाएंगे और फिर मुस्लिम वोटों का बंटवारा होगा, जिसका फायदा भाजपा को मिलने की संभावना है.
इसके अलावा पिछड़ों एवं दलितों के बीच भी कांग्रेस की स्थिति पहले से मजबूत होने की प्रबल संभावना है. हालांकि, पिछड़ों में यादव वोटों में सेंध लगाना कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा. गैर-यादव पिछड़ी जातियों के थोड़े वोट कांग्रेस के पाले में जा सकत हैं, जिसका नुकसान बसपा-सपा गठबंधन को झेलना पड़ सकता है. इसी तरह गैर-जाटव दलितों के बीच भी कांग्रेस अपनी पैठ बढ़ाने की कोशिश कर रही है. कांग्रेस के दलित नेता इसके लिए भरपूर कोशिश में जुटे हैं. प्रियंका गांधी द्वारा दलित बाहुल्य गांवों के दौरों और लोगों से मिलने-जुलने की उनकी रणनीति से दलितों के कुछ वोट कांग्रेस के पक्ष में जा सकते हैं. राज्य में कांग्रेस की मजबूती से भाजपा की परेशानी भी बढ़ती दिखाई दे रही है. प्रियंका गांधी के रोड शो में जुटी भीड़ और पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ उनकी बैठकों के बाद भाजपा ने भी अपनी स्थिति मजबूत करने की रणनीति पर फिर से विचार शुरू कर दिया है. पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान प्रियंका गांधी को सौंपे जाने के बाद मोदी और योगी, दोनों की चुनौतियां बढ़ गई हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ का निर्वाचन क्षेत्र भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में है. प्रियंका गांधी के आक्रामक चुनावी अभियानों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ की सभाओं की संख्या बढ़ाए जाने की मांग उठने लगी है.
भाजपा को अपने परंपरागत और गैर-यादव पिछड़ों के साथ-साथ गैर-जाटव दलित वोटों के खिसकने का डर सता रहा है. उत्तर प्रदेश में करीब 13 प्रतिशत ब्राह्मण हैं. दशकों तक ब्राह्मण कांग्रेस को वोट करते रहे हैं, लेकिन राज्य में कांग्रेस और भाजपा की स्थिति कमजोर होने के बाद मायावती ने सतीश मिश्रा के सहयोग से एक नया समीकरण बनाया, जिसमें दलितों के साथ ब्राह्मणों को भी पार्टी में जगह दी गई. नतीजतन, सपा से परेशान ब्राह्मणों ने बसपा को वोट देना शुरू कर दिया था, लेकिन जैसे ही राज्य में भाजपा की स्थिति मजबूत हुई, ब्राह्मणों का रुझान भाजपा की ओर हो गया. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने के बाद ब्राह्मण मतदाताओं का झुकाव फिर से कांग्रेस की तरफ होने लगा है. भाजपा की कुछ नीतियों से भी उच्च जाति के लोग उससे नाराज चल रहे हैं. एससी/एसटी कानून में बदलाव के बाद उच्च जातियों ने भाजपा के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था, लेकिन दस प्रतिशत आरक्षण के कारण उनका गुस्सा कुछ शांत हो गया है. हालांकि, मोदी सरकार से नाराज उच्च जातियों को अगर कांग्रेस में संभावना दिखाई देगी, तो उनका एक हिस्सा उसे वोट देने से नहीं चूकेगा. ऐसे में भाजपा को नुकसान हो सकता है. यही नहीं, गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों के वोटों में कांग्रेस की सेंधमारी का असर भाजपा के वोट बैंक पर भी पडऩे की संभावना जताई जा रही है.
पिछले विधानसभा चुनाव के बाद आए मतदान विश्लेषणों में यह बात सामने आई थी कि भाजपा को गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों का अच्छा-खासा समर्थन मिला है. विश्लेषणों के अनुसार, भाजपा को विधानसभा चुनाव में 62 प्रतिशत परंपरागत, 57 प्रतिशत कुर्मी, 63 प्रतिशत लोध-राजपूत और 60 प्रतिशत पिछड़ी जातियों के वोट मिले. माना जाता है कि गैर-यादव पिछड़ी जातियों के पचास प्रतिशत से अधिक वोट भाजपा के खाते में गए थे. यही नहीं, दलित जातियों ने भी भाजपा को समर्थन दिया था और उनके करीब 17 प्रतिशत वोट भाजपा को मिले थे, जिनमें गैर-जाटव दलित जैसे पासी, वाल्मिकी एवं खटीक आदि जातियां शामिल थीं. अगर कांग्रेस इन वोटों में सेंधमारी करती है, तो भाजपा को भारी नुकसान झेलना पड़ सकता है. खैर, भाजपा और बसपा-सपा गठबंधन को कांग्रेस की मजबूत स्थिति से कितना नुकसान होगा, यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद पता चलेगा, लेकिन इतना तो तय है कि प्रियंका गांधी ने कांग्रेस में जान फूंक दी है और चुनाव बहुत दिलचस्प होने वाला है. उत्तर प्रदेश की सभी ८० सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है.
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