गुलाम चिश्ती।
इन दिनों मणिपुर विधानसभा चुनाव का प्रचार अभियान उफान पर है। राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर है। बावजूद इसके पिछले कुछ दिनों से शर्मिला ईरोम के खिलाफ भाजपा नेताओं की टिप्पणी तल्ख हो गई है। भाजपा की मणिपुर इकाई के केंद्रीय प्रभारी प्रह्लाद सिंह पटेल का कहना है कि शर्मिला भले ही राज्य के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं, परंतु वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को जीत दिलाने के लिए कार्य कर रही हैं।
याद रहे कि शर्मिला ने पिछले दिनों मीडिया के सामने खुलासा किया था कि भाजपा पैसे देकर उन्हें अपनी पार्टी की ओर मोड़ना चाहती थी, परंतु मैं इसके लिए तैयार नहीं हुई। शर्मिला के इस आरोप में कितना दम है, वही जानती हैं, परंतु उनके इस बयान से भाजपा की छवि कहीं न कहीं धूमिल जरूर हुई है। दूसरी ओर भाजपा में इस आरोप के बाद इतना नैतिक साहस भी नहीं दिखा कि वह शर्मिला के आरोप को झुठलाने की भी कोशिश करती।
मणिपुर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष के. भवानंद सिंह भी स्वीकार करते हैं कि जब शर्मिला ने अनशन की जगह राजनीति के माध्यम से अफ्सपा के खिलाफ अपनी लड़ाई की घोषणा की तो भाजपा ने उनसे पार्टी में आने का आग्रह किया था, परंतु उन्होंने उनकी एक न सुनी और किसी भी पार्टी में जाने से इंकार कर दिया। अब जब शर्मिला के बयान को एक पखवाड़े से अधिक हो गए तो अब भाजपा उनके खिलाफ राजनीतिक हमले कर रही है।
आमतौर पर देखा जा रहा कि मणिपुर की जनता शर्मिला को एक राजनेत्री के रूप में स्वीकार करने को तैयार नही हैं। सर्वप्रथम उन्होंने ऐलान किया था कि वह राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा में अपने 30 उम्मीदवार को उतारेंगी ताकि ये उम्मीदवार चुनाव जीतकर अफ्सपा के खिलाफ सदन और सदन के बाहर दोनों जगहों पर आवाज बुलंद कर सकें, परंतु जिस उम्मीद से वह राजनीति में आईं, उनके परिणाम ज्यादा अनुकूल नहीं हैं, उस पर फिलहाल ग्रहण लगता दिख रहा है। कारण कि उन्हें चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार भी नहीं मिले, उनका यह बदलाव राज्यवासी क्या, घरवालों को भी पसंद नहीं आया। ऐसे में बहुत ही कम संख्या में उम्मीदवार उनकी पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ रहे हैं।
पैसे के अभाव में वह तडक़- भड़क के साथ चुनाव प्रचार नहीं कर रही हैं। वह साइकिल पर सवार होकर अपने समर्थकों को लेकर प्रचार अभियान चला रही हैं। ऐसे में उन्हें एक भी सीट मिलेगी, इसकी संभावना कम है। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसे में भाजपा शर्मिला के खिलाफ इतनी मुखर क्यों है। वह उन्हें कांग्रेस के एजेंट के रूप में क्यों पेश कर रही है, जबकि वह खुद मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं।
बताते चलें कि भाजपा सर्वप्रथम उन्हें पार्टी में शामिल कर एक बड़े चेहरे के रूप में पेश करना चाहती थी, परंतु शर्मिला ने भाजपा में जाने या उसका समर्थन करने से इंकार कर पार्टी के इस अभियान को विफल कर दिया। इसके बाद नार्थइस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (नेडा) के संयोजक डॉ. हिमंत विश्वशर्मा ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर की बाक्सर मैरीकॉम को चुनाव प्रचार में लगाकर इस पूरी लड़ाई को शर्मिला बनाम मैरीकॉम बनाने की कोशिश की, परंतु पार्टी को इसमें भी सफलता नहीं मिली। कारण कि राज्यवासी किसी आंदोलनकारी या खिलाड़ी को राजनीतिक विकल्प के रूप में लाने को तैयार नहीं हैं। ऐसा प्रयोग सदैव विफल रहता है और मणिपुर भी उस सोच से बाहर नहीं है।
इसी बीच शर्मिला ने भाजपा के बारे में जो खुलासे किए, उसे भाजपा पचा नहीं पा रही है। साथ ही जहां एक ओर भाजपा, एनपीएफ और अन्य छोटी पार्टियां नए जिले के गठन का विरोध कर रही हैं, वहीं शर्मिला ने इसका समर्थन किया है। कारण कि कुकी और अन्य गैर नगा जनजातियों के राजनीतिक अस्तित्व के लिए नए जिले का गठन आवश्यक था। पहले भाजपा समझती थी कि शर्मिला कांग्रेस के लिए वोटकटवा साबित होंगी, परंतु अब वह भाजपा के लिए वोट कटवा बन रही हैं। ऐसे में भाजपा की ओर से उनके खिलाफ बयानबाजी करना स्वाभाविक है।
साथ ही यह भाजपा के मनोविज्ञान को दर्शाता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भले ही शर्मिला इस चुनाव में कोई बड़ा फैक्टर नहीं है, परंतु उन्होंने राज्य में राजनीति के जो नए फलसफे को गढ़ने का प्रयास किया, वह सराहनीय है। उन्होंने किसी भी तरह की सुरक्षा लेकर जता दिया कि वह मणिपुर की बेटी हैं जहां सभी राज्यवासी उनके अभिभावक हैं। ऐसे में उन्हें किसी से क्या खतरा हो सकता है।