जिन्दगी हाशिये पर- जिगरा देखना है तो इस ‘केलवा’ का देखिये

सत्यदेव त्रिपाठी।

उस दिन मैं अपनी बजार (ठेकमा, आजमगढ़) में भतीजे के घर बैठा था कि वह औरत आ गई, जिसकी अजूबा ख्याति आज से तीन-साढ़े तीन दशक पहले 12-15 किलोमीटर के मान में फैली हमारी पूरी देहात में गरमागरम चर्चा का विषय थी। तभी तो दसेक साल पहले गांव छोड़ देने के बावजूद उसकी करनी के चर्चे मैं भी बहुत कुछ जान सका था। लेकिन दुर्योग से कभी देखने का मौका न मिला और धीरे-धीरे उसकी करनी का अजूबापन भी रोज-रोज के नाते लोगों के बीच सामान्य हो गया… इसीलिए मेरे दिमाग से वो उतर व निकल चुकी थी। लेकिन जब वह अन्दर चली गई घर का काम करने, तब साफ-साफ बात हुई, तो याद आ गई। सभी ने कुछ न कुछ और बताया क्योंकि उसकी जिन्दगी -कम से कम बाह्य जिन्दगी- सबको मालूम थी।

यह औरत केलवा है। एक साथ इसका जीवन याद करते हुए लगा कि केलवा की समूची जिन्दगी यशपालजी के उपन्यास ‘मनुष्य के रूप’ की नायिका सोमा और बौद्धकालीन ‘दिव्या’ की नायिका दिव्या, जो राज्य के न्यायाधीश की प्रपौत्री व अनुपम कलानेत्री है, से कम उतार-चढ़ावों व विविधताओं से भरी नहीं है, किंतु सोमा व दिव्या तो सबकुछ के बावजूद हाशिए और मुख्य धारा में दोलायमान होते हुए शीर्ष पर पहुंच गर्इं, पर केलवा रह गई हाशिए पर ही- शायद जिन्दगी और उपन्यास में यही फर्क होता है। तभी लिखने का विचार भी कौंधा कि घर का काम करके केलवा भी आ गई और लगे हाथों उसकी जुबानी सब कुछ की तस्दीक भी हो गई।

मूलत: तो केलवा हरियाणा की जाट है- केला यादव। पिता उमराव यादव ने बचपन में शादी कर दी थी। पति शराबी था, जिसे छोड़कर वह सब्जी की दुकान करने लगी थी…और उन्हीं दिनों मेरे घर से सात आठ किलोमीटर उत्तर के गांव नन्दांव के निवासी वासुदेव उर्फ मुंशी यादव से उसकी रफ्त-जफ्त बढ़ी और वह बीस साल की उम्र में हरियाणा छोड़कर नन्दांव (आजमगढ़) चली आई। इसमें मुंशी का अपने ठेंठ गांव को शहर जैसा बढ़ा-चढ़ाकर बताने का झांसा भी था और केला यादव का भोलापन व दांवबाजी भी थी। लेकिन बकौल केलवा आजमगढ़ के कोर्ट में दोनों की शादी हुई। तब वह 20 साल की थी। दोनों के यादव होने से हरियाणा-उत्तर प्रदेश का भेद भी जाता रहा था। यहीं आकर वह भोजपुरी में ‘केलवा’ हो गई। मुंशी यादव पैडिल वाला रिक्शा चलाते थे और केलवा र्इंटे के भट्ठे पर काम करने लगी। शुरुआत हुई कुछ ही दूरी पर देवीप्रसाद भट्ट के भट्ठे से और अधिक समय इसी पर गुजरा। फिर मुंशी यादव भगवान को प्यारे हो गये। पर केलवा ने हार न मानी। वह समय और लोगों की रेलपेल में ठेकमा (हमारी बजार) आ गई। यहां डॉ. बारी के भट्ठे (8 किलोमीटर दूर) से लेकर देवगांव (12-15 किलोमीटर) तक कई भट्ठों पर काम किया। हरियाणा से नन्दांव भाग आने का जो जज्बा है, उसी के भरोसे इतने भट्ठों पर काम कर सकी होगी केलवा, वरना लड़की का भट्ठे पर काम करना क्या होता है, कम लोग जानते हैं। बानगी के लिए याद की जा सकती है- शिवमूर्त्ति की कहानी ‘तिरियाचरित्तर’, पर केलवा तो वहीं रहती भी थी। कैसे संभाला होगा, कितना संभला होगा, ‘जिन्दगी’ ही जानती है। कोई ‘हाशिये पर’ में इसका आकलन नहीं हो सकता।

शरीर से काफी सबल होने के कारण केलवा कठिन काम भी कर लेती थी। और जोर आजमाइश के फेर में बजार में रामलाल विश्वकर्मा की दुकान पर घन (कड़ा लोहा मोड़ने के लिए पीटने हेतु बना लोहे का बहुत वजनी टांगानुमा साधन) क्या चला दिया कि वही चलाने का काम करते-करते बजार से नजदीक ही अहिरौली गांव में उन्हीं के घर रहने लगी। केलवा की प्रगतिशीलता काबिलेगौर है कि बाल-विवाह की रूढ़ि में बंधने, फिर उसे तोड़ने के बाद प्रेम-विवाह की आधुनिकता और फिर सहजीवन की उत्तर आधुनिकता! रामलाल के साथ 15 साल गुजरात भी रही। उसे टूटी-फूटी गुजराती भी आती है। अब फिर उसी अहिरौली वाले घर में रहते हुए केलवा आजकल आयोजनों में जो लोग खाना बनाने (कैटरिंग) का ठेका लेते हैं, उस समूह में काम करती है। दो खास समूहों के नाम भी बताये- भूषण जायसवाल और गिरि बाबा के। लेकिन यह तो शादी-ब्याहों का मौसमी काम है। इसके अलावा तो मरनी-करनी की कभी-कभार वाली आकाशी वृत्ति ही है। सो, बाकी समय में घरों में खाना बनाने और चौका-बर्तन करने का काम करती है। यही करते तो दिखी भतीजे के घर। इसके अलावा केलवा ने मिट्ठू चौकीदार के लिए यहां से वहां गांजा पहुंचाने के काम की बात खुद ही बतायी।
गरज ये कि केलवा के काम तुलसी के राम के नाम की तरह ‘अनेक-अनूपा’ रहे हैं, जो सब के सब जाने-बताये नहीं जा सकते। जब आई थी, तो सलवार-समीज पहने सायकल चलाते हुए देखी गई। तथाकथित शरीफ घरों में शादी के बाद सलवार-समीज पहनना आज भी मना है और उस जमाने में उस ठेंठ गंवई इलाके में स्त्री का सायकल चलाना रातों-रात सरनाम और बदनाम हो जाने के लिए काफी था। यह उसका पहला अजूबा था। इसके साथ वह सभी से -यानी मर्दों से भी- खुलकर बात करती थी। और मैं उसकी हरियाणवी की लट्ठ्मारी की कल्पना कर सकता हूं, जिसमें भोजपुरी के अनजान शब्दों की उसकी समझ और उच्चारण से जो-जो अ(न)र्थ निकले होंगे, निकाले गये होंगे, उनमें नमक-मिर्च लगाकर जो जो लतीफे गढ़े गये होंगे कि उनसे केलवा उस इलाके में छिनाल से लेकर वीरबहूटी तक की छवियों की स्वामिनी बन गई होगी, जिसके लवछेवर (निशानात) आज भी लक्ष्य किये जा सकते हैं। फिर तो भट्ठे पर काम करते हुए ट्रैक्टर भी चलाया। आज भी सायकल से चलती है, पर मोटर सायकल चलाने का दावा करती है। सबको ‘ठेंगे’ पर रखती है। खुलकर जीती है। बेखटक बोलती है। जीवन में आये दोनों मर्दों से एक-एक बच्चे हैं, जिन्हें लेकर मुंह उठाकर जीती है। मुंशी यादव से हुआ बेटा बड़ा है। बजार में बिजली उपकरणों को ठीक करने का काम करता है। रामलाल से हुई लडकी ने भी मां के नक्शेकदम पर प्रेम-विवाह कर लिया है, पर कुछ करने-रहने का ठिकाना बनाना अभी बाकी है।

लेकिन गौरतलब है कि ऐसी हरफनमौला, इतनी परम्पराभंजक, जिन्दादिल, मेहनती और करतबी स्त्री टाट-टट्टी से घिरे-ढंके घर में गुजारा कर रही है। कमाई की हालत ‘रोज कुआं खोदो, रोज पानी पीयो’ वाली है। हरियाणा में जमीन थी, दादा ने बेच दी। होती, तो भी वहां कहां जाती और क्या पाती! नन्दांव में मुंशी का दो बिस्वा (1/17 एकड़’) खेत है, जिसके मिलने का भी भरोसा इस उत्तर प्रदेश के हालात में कम ही है। रामलाल का होना भी ‘लकड़ी का सहारा’ भर ही है। लेकिन सबसे बड़ी चीज है केलवा का अफाट जिगरा, जिसके बल वह खम ठोंक कर रही है और आगे भी रहने का दम भरती है- ‘और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है’।

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