राजीव थपलियाल

ऋषिकेश से गंगोत्री-यमुनोत्री जाते हुए टिहरी बांध की झील और उसके आसपास के हरे-भरे गांवों का खूबसूरत नजारा नयनों को सुकून देने वाला है। इस नजारे को देख कर शहरों से आने वाले पर्यटकों के दिल में एक हूक जरूर उठती होगी कि काश उनके पास भी इस इलाके में एक अदद घर होता! बाहरी लोग भले ही इस इलाके के लोगों की किस्मत पर रश्क करते हों मगर सच यह है कि यहां के बाशिंदे खुद को कालापानी का सजायाफ्ता मानते हैं। टिहरी और उत्तरकाशी जिले में पड़ने वाले इस क्षेत्र के लोग लगभग कैदी बनकर रह गए हैं। उनकी मुक्ति का मामूली उपाय एक पुल है। वर्ष 2006 से अब तक यह पुल नहीं बन सका जो यहां के जनजीवन को आसान बना सके। झील के ऊपर बनने वाले डोबरा-चांठी पुल के लिए टेंडर पर टेंडर का दौर चलता रहा लेकिन निर्माण पूरी होने की आस अभी दूर-दूर तक नहीं दिखती।

देश के लिए वरदान, प्रतापनगर के लिए अभिशाप

बिजली परियोजना के लिए भागीरथी नदी और भिलंगना नदी के संगम पर टिहरी में टिहरी बांध तैयार किया गया। इस बांध की झील ने जब कई वर्ग किलोमीटर का विस्तार लिया तो नदी के दूसरे किनारे के लोगों (जो डूब क्षेत्र में आने से बच गए) को देश के शेष भूभाग से अलग-थलग भी कर दिया। इसकी जद में टिहरी जिले के प्रतापनगर और भिलंगना विधानसभा क्षेत्रों के साथ ही उत्तरकाशी जिले के गंगोत्री विधानसभा क्षेत्र के एक हजार से अधिक गांवों के लाखों लोग आ गए। देश को उजियारा करने वाले टिहरी बांध ने इस क्षेत्र के लोगों के सामाजिक जनजीवन में अंधियारा कर दिया। झील की वजह से कई-कई गांवों की दूरी तो अपने जिला मुख्यालयों से 200 किलोमीटर तक बढ़ गई। जिसने पहाड़ का जीवन देखा हो उसे घुमावदार उतार-चढ़ाव वाली इस दूरी को पार करने में होने वाले शारीरिक कष्ट के साथ मानसिक और आर्थिक परेशानी का अंदाजा हो सकता है।

डोबरा-चांठी पुल बनाओ संघर्ष समिति के मुख्य संयोजक राजेश्वर प्रसाद पैन्यूली ने बांध बनाने वाले नीति निर्धारकों की सोच पर सवाल उठाया कि एक विस्तृत भूभाग को डूबाने की कल्पना करते वक्त यह क्यों नहीं सोचा गया कि जो लोग इस इलाके में शेष रहेंगे वे अपनी जरूरतें देश के बाकी भूभाग से किस प्रकार पूरी करेंगे। बांध के निर्माताओं ने लाखों लोगों को पूरे देश से ही काट दिया। उन्होंने हैरानी जताते कहा, ‘यह बांध कोई एक-दो साल में नहीं बना बल्कि इसे पूरा होने में चार दशक लगे। इतनी लंबी अवधि के दौरान भी किसी के जेहन में भविष्य की इस परेशानी का ख्याल नहीं आया।’ हालांकि उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी और तब प्रतापनगर के विधायक रहे फूलचंद बिष्ट का आभार माना जिन्होंने वर्ष 2006 में इस झील के आर-पार आवागमन के लिए डोबरा-चांठी पुल की स्वीकृति दी थी। गंगोत्री से दो बार विधायक रहे विजयपाल सजवाण ने भी स्वीकार किया कि बांध बनने के दौरान ही यदि इस इलाके को जोड़ने वाला पुल बन गया होता तो आज यह दिक्कत नहीं झेलनी पड़ती। उन्होेंने भी इस पुल के लिए मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक सबसे मुलाकातें की। पुल पर जो भी प्रगति हुई उसमें उनके योगदान को नाकारा नहीं जा सकता। वे एनडी तिवारी सरकार के समय भी विधायक थे।

अदूरदर्शिता भुगत रहे लोग
नेता जो भी सफाई दें पर क्षेत्रीय जनता अपनी बेबसी के लिए जनप्रतिनिधियों को ही दोषी मानती है। इसी क्षेत्र से संबंध रखने वाले प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता प्रदीप भट्ट ने भी माना कि तत्कालीन जनप्रतिनिधि यदि क्षेत्रीय समझ में दूरदर्शी होते तो इस बांध में पानी भरे जाने से पहले ही झील के आरपार आवागमन के लिए पुल बना लिए गए होते। गंगोत्री और प्रतापनगर के विधायक यदि सचेत रहते तो जनता को कालापानी की सजा नहीं भुगतनी पड़ती। यह बांध के योजनाकारों की नाकामी भी है कि देश की एक महत्वपूर्ण परियोजना में इतनी बड़ी खामी छोड़ दी गई।

इस कथित कालापानी के गांव लिखवार के निवासी नवीन पैन्यूली का कहना है, ‘बांध के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के पुनर्वास के बारे में तो सोचा गया लेकिन शेष भूभाग के लोगों का भविष्य क्या होगा इस पर विचार नहीं किया गया। डूब प्रभावितों को देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश जैसी जगहों पर बसाने की जगह सरकार ने दी पर इस झील के प्रभाव के बाहर के लोगों को कालापानी जैसी सजा दे दी। बांध बनने से पूर्व तक जो गांव जिला मुख्यालय से या मुख्य बाजारों से दस-बीस किलोमीटर दूर हुआ करते थे आज वे दस-बीस गुना दूर हो गए हैं। पहाड़ों में स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं। ऐसे में मरीज को जिला अस्पताल पहुंचाते-पहुंचाते कोई अनहोनी हो जाए तो आश्चर्य नहीं। सड़क हादसों में घायल लोगों ने कई बार इसी कारण दम तोड़ा कि अस्पताल बहुत दूर हो गए। झील पार करने का सुगम साधन नहीं होने से समय और पैसे दोनों की बरबादी होती है। सरकार ने झील के आर-पार जाने के लिए नाव जरूर लगा दी है लेकिन यह स्थायी व्यवस्था नहीं है। इन नावों से पूरा इलाका सहूलियत नहीं पा सकता है। काश! बांध बनने से पहले क्षेत्रीय जनता की दिक्कतों के बारे में कल्पना कर ली गई होती तो आज लोगों को पुल बनाने की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन नहीं करने होते।’

ग्यारह साल, ढेरों सवाल
यह भी कम हास्यास्पद नहीं है कि विश्व का बेहतरीन सिविल इंजीनियरिंग कॉलेज आईआईटी रुड़की जिस प्रदेश में हो वहां एक भी इंजीनियर ऐसा नहीं जो डोबरा-चांठी पुल को बना सके। जिस राज्य में देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा (आईएएस) का प्रशिक्षण केंद्र एटीएस मसूरी हो वहां एक भी कुशल प्रशासक ऐसा नहीं जो इस पुल को पूरा करवा सके। मई 2018 में इस पुल की निर्माण प्रक्रिया को शुरू हुए 12 साल पूरे हो जाएंगे। मगर उपलब्धि के तौर पर यहां पुल के कुछ पिलर और लटकती केबल्स के सिवा कुछ नजर नहीं आता। टिहरी बांध बनने के बाद जिला मुख्यालय नई टिहरी की प्रतापनगर से दूरी कम करने के लिए मई 2006 में डोबरा और चांठी को जोड़ने वाला पुल बनाने का फैसला लिया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री एनडी तिवारी की सरकार में इसकी स्वीकृति मिली और सर्वे का काम शुरू हुआ। 440 मीटर लंबे स्पान वाले इस पुल की लागत तब 89 करोड़ 20 लाख रुपये आंकी गई। इस लागत का 50 फीसदी हिस्सा राज्य सरकार और 50 फीसदी हिस्सा टिहरी बांध परियोजना (टीएचडीसी) को वहन करना तय किया गया। निर्माण का जिम्मा लोक निर्माण विभाग को दिया गया। योजना के मुताबिक इस पुल को एक जनवरी, 2008 को पूरा हो जाना था। बाद में यह तारीख 31 अक्टूबर, 2010 तक बढ़ा दी गई और अनुमानित लागत बढ़कर 129 करोड़ 43 लाख रुपये हो गई। पुल निर्माण का काम मैसर्स वीके गुप्ता एंड एसोसिएट, चंडीगढ़ को सौंपा गया था।

लूट-खसोट और लापरवाही
डोबरा-चांठी पुल बनाओ संघर्ष समिति के मुख्य संयोजक राजेश्वर पैन्यूली का कहना है, ‘करीब साढ़े ग्यारह साल में पुल तो नहीं बना लेकिन यह पुल नेताओ-अफसरों-ठेकेदारों के लिए सरकारी पैसे की लूट का जरिया जरूर बन गया। सबसे पहले पुल के डिजाइन के नाम पर ही खूब खेल किया गया। पुल निर्माण का काम मिलने पर पीडब्ल्यूडी ने इसका डिजाइन आईआईटी रुड़की से तैयार कराया। 2007 में बीजेपी के सत्ता में आते ही पुल के डिजाइन में फॉल्ट निकला और काम रोक दिया गया। मालूम हुआ कि पुल के पिलर के नीचे ठोस सतह है ही नहीं। तब तक आईआईटी रुड़की की भूगर्भीय सर्वे रिपोर्ट के आधार पर ठेकेदार ने दोनों मेन एंकर, दोनों एबटमेंट व दोनों टावर बना दिए। पुल बनते देख लोगों का उम्मीद जग गई थी कि निर्धारित वक्त में कार्य पूरा हो जाएगा। इसके बाद आईआईटी खड़गपुर ने डिजाइन तैयार किया। कंसल्टेंसी पर ही लगभग तीन करोड़ रुपये खर्च कर दिए गए। इसी बीच सरकारी पैसे को अपनी जेब में डालने के रास्ते अख्तियार करने की नीयत वालों की नजर इस पुल पर लग गई। पुल के डिजाइन पर विशेष जानकारी लेने के नाम पर तत्कालीन अधिशासी शशांक भट्ट स्विटजरलैंड की सैर कर आए। इसका डिजाइन फिर भी तैयार नहीं हो सका। इसके बाद डिजाइन के लिए विदेशी सेवाएं भी ली गई लेकिन नतीजा सिफर रहा। ठेकेदार कंपनी ने पुल की आड़ लेकर वहां अवैध रूप से क्रेशर भी शुरू कर दिया। आश्चर्यजनक था कि पुल के नाम पर करोड़ों रुपये का भुगतान हो रहा था लेकिन निर्माण बंद था।’

सरकारी पैसे को किस तरह से लुटाया जाता है इसका सबूत यह है कि 10 वर्षों में पुल तो नहीं बन सका लेकिन इसके डिजाइन की स्टडी, रिडिजाइनिंग, सर्वे और टावरों को खड़े करने में ही करीब 145 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हो गए। राजेश्वर पैन्यूली के मुताबिक, दस वर्षों में ठेकेदार को करोड़ों रुपये का भुगतान करने के बाद नई कंपनी पीएंडआर इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड को निर्माण कार्य सौंपा गया। बाद में पता चला कि यह कंपनी दिल्ली के कॉमनवेल्थ गेम्स में ब्लैक लिस्टेड हो चुकी हैै। अब यह पता चला कि इस पुल के डिजाइन एवं ड्राइंग में कमी है। निर्माण में आ रही तकनीकी दिक्कतों को देखते हुए अब ग्लोबल टेंडरिंग के जरिये एक कोरियाई कंसल्टेंसी कंपनी का चयन किया गया है। अब इसकी अनुमानित लागत 350 करोड़ रुपये से अधिक हो जाएगी।

सियासी हथियार बना पुल
नवीन पैन्यूली का कहना है कि पुल का निर्माण हो या न हो करोड़ों के वारे न्यारे हो चुके हैं और चुनावों में नेताओं के मैनिफेस्टो में यह पुल अमर हो चुका है। पुल चुनावों में नेताओं की नैया पार लगाता है तो अधिकारियों के लिए सोने की खान बना है। निर्माण के नाम पर कभी सर्वे तो कभी रिडिजाइनिंग तो कभी ठेकेदार का भुगतान तो कभी टेस्टिंग में पैसा पानी की तरह बहाया जाता रहा लेकिन आज तक पुल के दो टावर ही खड़े हो पाए हैं। नेताओं को इस पुल की सुध चुनाव के दौरान ही आती है। चुनावी दौर आते ही सभी नेताओं को डोबरा-चांठी की याद आने लगती है। सभी अपनी-अपनी तरह से पुल निर्माण का वादा करने पहुंचते हैं।

कांग्रेस प्रवक्ता प्रदीप भट्ट ने कहा, ‘मुख्यमंत्री रहते रमेश पोखरियाल वादा कर गए थे कि जल्द ही पुल बन जाएगा लेकिन वे आज तक यहां वापस नहीं लौटे। इसी तरह तत्कालीन सीएम विजय बहुगुणा ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपने पुत्र साकेत के लिए वोट मांगते वक्त कहा कि छह माह में पुल बन जाएगा और वे इसी पुल से यहां पहुंचेंगे। लेकिन वे अब सड़क की बजायी हेलीकॉप्टर से यहां आते हैं।’