न्यायिक इतिहास में पहली बार उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों ने देश के मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली और शीर्ष अदालत की कार्यप्रणाली को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के प्रेस कांफ्रेंस करने और चीफ जस्टिस पर लगाए गए आरोपों में कितनी सच्चाई है, इन्हीं तमाम मुद्दों पर अभिषेक रंजन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस बी. सुदर्शन रेड्डी से बातचीत की।

क्या चार वरिष्ठ जजों का प्रेस कांफ्रेंस करना सुप्रीम कोर्ट की परंपरा के अनुकूल है?
भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है जब सुप्रीम कोर्ट के सिटिंग जज ने प्रेस कांफ्रेंस कर सर्वोच्च अदालत के वर्किंग सिस्टम और चीफ जस्टिस पर सवाल उठाए हों। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। यह सही है कि अदालतों में जजों के बीच कई प्रकार के मतभेद रहते हैं। लेकिन उन मतांतरों को सार्वजनिक रूप से जाहिर नहीं करना चाहिए। मेरा मानना है कि सभी समस्याएं और मतभेद संवाद के जरिये हल हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के सीनियर जजों के प्रेस कांफ्रेंस करने से मैं हैरान हूं।

क्या इस मुद्दे पर भारत के प्रधान न्यायाधीश को भी सार्वजनिक रूप से अपना पक्ष रखना चाहिए?
यह तो माननीय चीफ जस्टिस को तय करना है कि इस मामले में उन्हें सार्वजनिक रूप से प्रत्युत्तर देना चाहिए कि नहीं। लेकिन मेरी राय में उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। इससे दोनों तरफ से तनाव और मतभेद बढ़ेंगे। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट की गरिमा प्रभावित होगी। होना यह चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के जिन चार वरिष्ठ जजों ने अपनी समस्याएं पत्रकारों को बतार्इं और जिस पत्र का उन्होंने जिक्र किया, उसके आलोक में वे अपनी बात मुख्य न्यायाधीश के समक्ष रखें। यही एक बेहतर माध्यम है और सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली भी।

इस प्रेस कांफ्रेंस से देश की न्यायिक व्यवस्था खासकर सुप्रीम कोर्ट पर क्या असर पड़ेगा?
मुझे नहीं लगता कि इससे सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा कम होगी। यह सही है कि ऐसा पहली बार हुआ है। देश की जनता का भरोसा आज भी न्यायपालिका पर है, लेकिन भविष्य में ऐसा न हो तो बेहतर है। अगर ऐसा होने लगे तो कल हाईकोर्ट और जिला अदालतों के जज भी अपनी समस्याओं को लेकर प्रेस कांफ्रेंस करने लगेंगे। न्यायिक मूल्यों का पालन करना न सिर्फ आम नागरिक बल्कि न्यायाधीशों का भी कर्तव्य है। जिन बातों को लेकर माननीय न्यायाधीशों ने प्रेस वार्ता की उन बातों को लेकर पुन: देश के मुख्य न्यायाधीश से बातचीत करनी चाहिए।

जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर के मुताबिक लोकतंत्र खतरे में है, क्या आप मानते हैं कि उनकी चिंता स्वाभाविक है?
हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका लोकतंत्र की मजबूत इकाइयां हैं। लोकतंत्र में जितनी अहमियत संसद की है उतनी ही न्यायपालिका की। यह सही है कि आने वाले कुछ वर्षों में उच्च न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। कई बार लोग कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के कामकाज में दखल देती है तो कई बार सरकार की तरफ से ऐसी बातें कही जाती हैं, लेकिन इन सब में महत्वपूर्ण यह है कि अगर सरकार कहीं गलत है और उसे मार्गदर्शन की जरूरत है तो सुप्रीम कोर्ट का यह दायित्व है कि वह इस मामले में सुझाव व निर्देश दे।

इस मुद्दे पर दो तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। एक पक्ष का मानना है कि प्रेस कांफ्रेंस करने वाले जजों के खिलाफ महाभियोग चलाया जाना चाहिए जबकि दूसरे पक्ष का मानना है कि मुख्य न्यायाधीश को इस्तीफा दे देना चाहिए। आपकी क्या राय है?
ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए और जो ऐसा कहते या सोचते हैं वे उच्चतम न्यायालय की साख और गरिमा के प्रति गंभीर नहीं हैं। न तो प्रेस कांफ्रेंस करने वाले जजों के खिलाफ कोई कार्रवाई होनी चाहिए और न ही माननीय प्रधान न्यायाधीश को त्यागपत्र देना चाहिए। ऐसी बातें तो भूलकर भी नहीं सोचनी चाहिए। होना यह चाहिए कि जिन वरिष्ठ जजों ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली और चीफ जस्टिस की कार्यशैली पर असंतोष जाहिर किया। उन्हें आपसी संवाद करना चाहिए। यह सुप्रीम कोर्ट और उनके जजों का मामला है, जिसमें किसी तीसरे पक्ष का हस्तक्षेप उचित नहीं है।