अभिषेक रंजन सिंह।

गुजरात में भाजपा और कांग्रेस के बीच चुनावी मुकाबला होता रहा है। भाजपा लगातार दो दशकों से सत्ता में है। जबकि कांग्रेस इतने वर्षों सत्ता से दूर रही है। अमूमन सत्ताधारी पार्टी को गुटबाजी अधिक झेलनी पड़ती है। लेकिन गुजरात में कांग्रेस की कहानी कुछ और है। राज्य में चार बार मुख्यमंत्री रहे माधव सिंह सोलंकी के बेटे भरत सिंह सोलंकी गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। वहीं शक्ति सिंह गोहिल विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे हैं। सोलंकी और गोहिल के बीच पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई से सभी वाकिफ हैं। सोलंकी के मुकाबले गोहिल को स्वच्छ छवि का और लोकप्रिय नेता माना जाता है। सूबे में यह चर्चा आम है कि साल 2012 के चुनाव में टिकटों के वितरण में भरत सिंह सोलंकी ने काफी मनमानी की जिसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा। कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष गुलाब खान राउमा भी कमोबेश इससे इत्तेफाक रखते हैं। उनका कहना है, ‘इस बार गुजरात चुनाव में कांग्रेस के लिए काफी अच्छा मौका है। बशर्ते पार्टी के लीडरान उम्मीदवारों की काबिलियत देखकर टिकट दें। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने इस मामले में लापरवाही बरती थी। लेकिन इस बार पार्टी को सही लोगों का चयन करना चाहिए।’ सिद्धार्थ पटेल कांग्रेस में सोलंकी और गोहिल के बाद तीसरे बड़े नेता हैं। उनके समर्थक चाहते हैं कि कांग्रेस बतौर मुख्यमंत्री उनके नाम की घोषणा करे क्योंकि पाटीदार आंदोलन की पैदा हुई सहानुभूति का लाभ कांग्रेस को मिल सकता है। कांग्रेस के लिए भी पटेल चेहरा ही मुफीद है, लेकिन उसकी दुविधा है ओबीसी मतदाता। अगर कांग्रेस किसी पाटीदार को आगे लाती है तो इससे कथित तौर पर अभी-अभी जुड़े ओबीसी मतदाता नाराज हो सकते हैं। खासकर कांग्रेस में शामिल हुए अल्पेश के स्वजातीय ठाकोर। गुजरात में ठाकोर कुल ओबीसी की संख्या का करीब बीस फीसदी हैं। उत्तरी गुजरात और सौराष्ट्र में इनकी संख्या अधिक है। पाटीदार और ठाकोर के बीच छत्तीस का आंकड़ा रहा है। यही वजह है कांग्रेस गुजरात चुनाव बगैर मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किए लड़ना चाहती है। टिकटों के वितरण में कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। पाटीदार आंदोलन के बाद कांग्रेस की नजर पाटीदार मतदाताओं पर है। कांग्रेस की कोशिश होगी कि ढाई दशकों से दूर रहे पाटीदार मतदाता उसके खेमे में आएं। पाटीदारों को देने के लिए कांग्रेस के पास सिवाय टिकटों के कुछ और नहीं है। अगर कांग्रेस ठाकोर समेत दूसरी ओबीसी जातियों के मुकाबले पाटीदार समुदाय को अधिक टिकट देती है तो इससे पिछड़े समुदाय में नाराजगी स्वाभाविक है।

मेहसाणा जिला कांग्रेस के अध्यक्ष कीर्ति सिंह झाला भी ऐसी आशंकाएं जाहिर करते हैं। लेकिन उनका मानना है, ‘इस बार भाजपा के खिलाफ कई ऐसे फैक्टर हैं जिससे कांग्रेस को फायदा मिलेगा। पाटीदार, ओबीसी, दलित और आदिवासी भाजपा से खफा हैं और वे कांग्रेस की तरफ देख रहे हैं। जबकि जीएसटी से तो गुजरात का पूरा कारोबारी समुदाय केंद्र सरकार से नाराज है।’ यह पूछे जाने पर कि जब कांग्रेस के लिए माहौल इतना बेहतर है तो मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने में देरी क्यों? इस पर उन्होंने कहा, ‘माधव सिंह सोलंकी गुजरात में चार बार मुख्यमंत्री रहे। चुनाव से पहले कभी भी उनके चेहरे को आगे नहीं किया गया। वर्ष 1985 के ऐतिहासिक चुनाव में जिसमें कांग्रेस को 182 सीटों में 149 सीटें मिली थीं उस वक्त भी बतौर मुख्यमंत्री किसी नाम की घोषणा नहीं की गई थी।’ झाला की बातों से मेहसाणा जिले के विसनगर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक ऋषिकेश पटेल इत्तेफाक नहीं रखते। कांग्रेस पर जातीय विभाजन का आरोप लगाते हुए वह कहते हैं, ‘सुनने में तो काफी अच्छा लगता है कि माधव सिंह सोलंकी ने गुजरात चुनाव में 149 सीटें लाकर एक नया रिकॉर्ड बनाया। लेकिन इसकी बड़ी कीमत गुजरात के पाटीदारों और खुद कांग्रेस को चुकानी पड़ी। माधव सिंह सोलंकी ने चुनावी फायदे के लिए खाम (क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) थ्योरी के सहारे दो तिहाई से भी अधिक सीटें जीतीं। लेकिन गुजरात में यह उनकी आखिरी जीत साबित हुई। साल 1985 के आरक्षण विरोधी आंदोलन में सौ से ज्यादा पाटीदार नौजवान मारे गए। उस जातीय दंगे को टीस अभी भी पाटीदार समुदाय महसूस कर रहा है। हार्दिक के जरिए कांग्रेस गुजरात में जातीय उन्माद का वही तीन दशक पुराना किस्सा दोहराना चाहती है जो संभव नहीं है।’ हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश से भाजपा को कितनी चुनौती है? इस बाबत उनका कहना था, ‘2012 के चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री केशु भाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी (जीपीपी) ने राज्य की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। उस वक्त दिल्ली में बैठे राजनीतिक विश्लेषकों और पत्रकारों का कहना था कि केशुभाई की पार्टी भाजपा के वोटों में सेंध लगाएगी और इसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिलेगा। लेकिन नतीजे आए इसके ठीक उलट और केशु भाई की पार्टी को महज दो सीटें मिलीं। एक वह खुद जीते और दूसरा नलिन कोटडिया। क्या हार्दिक पाटीदार समाज के बीच केशु भाई से भी बड़ा नाम है? हार्दिक ने पाटीदार समाज की भावनाओं का सौदा कांग्रेस के साथ किया है और इस चुनाव के बाद हार्दिक समेत अल्पेश और जिग्नेश का कोई नामलेवा नहीं बचेगा।’

पाटीदारों के आरक्षण के सवाल पर पटेल कहते हैं, ‘मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में किसी प्रकार की छेड़छाड़ संभव नहीं है। कांग्रेस पाटीदारों को लुभाने के लिए कह रही है कि वह ईबीसी के आधार पर पाटीदारों को आरक्षण देगी। लेकिन ईबीसी को लेकर किसी भी राज्य में संवैधानिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। संविधान में कहीं भी ईबीसी का जिक्र नहीं है। पाटीदार समाज में आज भी साठ फीसदी लोग गांवों में रहते हैं और खेती करते हैं। यह बिरादरी पूरी तरह संपन्न है ऐसा भी नहीं है। उत्तरी गुजरात और सौराष्ट्र विशेषकर मेहसाणा जिले में पाटीदारों के पास तीस-चालीस साल पहले जितनी जमीनें थी उतनी अब नहीं हैं। शुरुआत में हार्दिक पटेल पाटीदारों को ओबीसी में शामिल करने की मांग पर अड़े थे। जबकि वह जानते थे कि बगैर संवैधानिक संशोधन के राज्य सरकार आरक्षण नहीं दे सकती। सब कुछ जानते हुए उसने बेवजह आरक्षण आंदोलन को हवा दी, ताकि इसका फायदा परोक्ष रूप से कांग्रेस को मिले। गुजरात की जनता और खुद पाटीदार समाज के बीच हार्दिक का असली चेहरा सामने आ चुका है। अठारह दिसंबर यानी जिस दिन गुजरात चुनाव के परिणाम आएंगे उसके बाद हार्दिक की तिकड़ी का सूरज अस्त हो जाएगा।’

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात की हर चुनावी रैली में जीएसटी को लेकर प्रधानमंत्री पर हमला करने से नहीं चूकते। उन्हें लगता है कि जीएसटी को मुद्दा बनाने से पार्टी को फायदा होगा। जीएसटी को लेकर कांग्रेस की उम्मीदों में उस वक्त पंख लग गए जब सूरत के कारोबारियों ने जीएसटी के खिलाफ कई रैलियां कीं। कारोबारियों का यह विरोध अहमदाबाद समेत कई शहरों में देखा गया। इस संवाददाता ने पाया कि जीएसटी को लेकर गुजरात में अलग-अलग स्वर सुनाई दे रहे हैं। बड़े कारोबारियों के मुताबिक जीएसटी लागू होने से फायदा है नुकसान नहीं। सूरत में हीरे के बड़े कारोबारियों में शुमार बाबू भाई बघानिया के मुताबिक, ‘जीएसटी से पहले तमाम तरह के टैक्स देने पड़ते थे। उसकी जगह अब एक जगह टैक्स देना पड़ता है। इसका विरोध वैसे छोटे व्यापारी कर रहे हैं जिन्होंने कभी कोई टैक्स नहीं दिया। लेकिन आज नहीं तो कल उन्हें जीएसटी के तहत ही कारोबार करना होगा।’ चुनाव के मद्देनजर जीएसटी को लेकर पक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर हमलावर हैं। वहीं इसे लेकर छोटे-बड़े कारोबारियों की अलग-अलग राय है। लेकिन क्या जीएसटी से वाकई गुजरात के कारोबारियों को आर्थिक नुकसान पहुंचा है? इस बारे में गुजरात चैंबर आॅफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के महासचिव धर्मंेद्र भाई जोशी बताते हैं, ‘जीएसटी से कारोबार जगत को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है। कुछ क्षेत्रों में इसका तात्कालिक असर देखा गया लेकिन साल के आखिर तक वहां भी स्थिति ठीक हो जाएगी। जीएसटी के विरोध में वैसे छोटे व्यापारी झंडा बुलंद किए हैं जिन्होंने कभी कोई टैक्स नहीं दिया। जीएसटी विरोधी सूरत में कारोबारियों की हुई रैलियों की मिसाल देते हैं। सूरत और अहमदाबाद में हीरे का बड़ा कारोबार है। सूरत में हीरे तराशने का ज्यादातर काम कैश में होता है। यहां छोटी फैक्ट्रियों की कुल संख्या हजारों में है। लेकिन इन्होंने कभी कोई टैक्स नहीं दिया और कारोबार करते रहे। बड़े कारोबारियों को जीएसटी से इसलिए कोई शिकायत नहीं है कि इससे पहले वे दर्जन भर टैक्स देते रहे हैं। जीएसटी को लेकर जागरूकता से अधिक भ्रम फैलाया गया है। इसकी समीक्षा और करों में सहूलियत देने के लिए जीएसटी काउंसिल का गठन किया गया है जो समय-समय पर अपनी राय सरकार को देती है। इस महीने की बीस तारीख को जीएसटी काउंसिल की बैठक है। बहुत संभव है कि इसमें कई वस्तुओं पर जीएसटी में राहत दी जाए।’

जीतू भाई गोहावा गुजरात फिशरमैन एसोसिएशन के उपाध्यक्ष हैं। फिशिंग कारोबार का जीएसटी के दायरे में आना उनके लिए चिंता की बात है। जीतू भाई कहते है, ‘पहले सिर्फ ट्रेडर्स पर टैक्स था हमें कोई आपत्ति नहीं थी। लेकिन हमेशा से टैक्स फ्री रहे मच्छीमारों पर जीएसटी लागू करना सही नहीं है। ऐसे मच्छीमार जो खुद मछलियां पकड़ते हैं और उसे आढ़त में बेचते हैं। ऐसे लोगों को जीएसटी से बाहर करना चाहिए। गिर सोमनाथ जिले का वेरावट पोर्ट भारत का सबसे बड़ा फिशिंग हब है। यहां फिश प्रोसेसिंग के 117 प्लांट हैं। देश के अलावा दुनिया के कई देशों को यहां से मछिलयों का निर्यात होता है। सिर्फ वेरावल फिश प्रोसेसिंग फैक्ट्रियों में पचास हजार से अधिक मजदूर काम करते हैं। जीएसटी लागू होने के बाद कारोबार में कमी आई है। अगर सरकार मच्छीमारों को जीएसटी से मुक्त नहीं करेगी तो उसे गुजरात के खाडवा जाति का विरोध झेलना पड़ेगा।’

गौरतलब है कि गुजरात में खाडवा ओबीसी में शामिल एक जाति है। गुजरात में इनकी संख्या करीब बाइस लाख है। सौराष्ट्र व दक्षिण गुजरात के पोरबंदर, बेरावल, जाफराबाद, वलसाड और भरूच जिलों में खाडवा जाति की संख्या अधिक है। खाडवा जाति मुख्य रूप से मछली पकड़ने और उसके कारोबार का काम करती है। गुजरात में अब तक वह भाजपा के साथ रही है। इसकी वजह राज्य सरकार की ओर से मिलने वाली सुविधाएं हैं। लेकिन जीएसटी की वजह से इनमें नाराजगी है। अगर समय रहते मछुवारों की नाराजगी दूर नहीं हुई तो भाजपा को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।