उदय चंद्र सिंह

वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार आई तो स्मार्ट सिटी उसकी महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक थी। सरकार ने देश भर में 100 स्मार्ट सिटी बनाने का वादा किया और फिर देखते-देखते 99 शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित करने की योजना पर काम शुरू भी हो गया, लेकिन चार साल बाद भी एक-दो शहरों को छोड़कर कहीं भी कुछ उल्लेखनीय काम नजर नहीं आ रहा है। संसद में हाल में पेश एक रिपोर्ट के मुताबिक, स्मार्ट सिटी मिशन के तहत 9,860 करोड़ रुपये की जो राशि जारी की गई थी, उसमें से सिर्फ सात फीसदी यानी 645 करोड़ रुपये ही खर्च हुए हैं। आवास व शहरी विकास मामलों के मंत्रालय की चिंता उन 20 शहरों को लेकर ज्यादा है, जिन्हें सबसे पहले स्मार्ट सिटी की सूची में शामिल किया गया था। इन शहरों को समय पर फंड भी जारी कर दिया गया था, लेकिन अब तक वहां भी परियोजनाओं की इतनी प्रगति नहीं हुई है कि संतोष जताया जा सके।
कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने इस योजना पर सवाल उठाया- यूपीए सरकार ने शहरी विकास के लिए जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन के माध्यम से एक लाख करोड़ रुपये से शहरों के आधारभूत ढांचे का विकास किया था। मोदी सरकार ने इस योजना का नाम बदलकर स्मार्ट सिटी कर दिया। लेकिन स्मार्ट सिटी योजना के तहत 99 शहरों के विकास के लिए 642 परियोजनाओं में से मात्र तीन प्रतिशत अर्थात 23 परियोजनाएं ही पूरी हुई हैं। स्मार्ट सिटी योजना पर इस बात को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं कि इसके तहत सरकार का 80 फीसदी फंड सिर्फ 2.7 फीसदी क्षेत्र के विकास पर खर्च होगा। ऐसे में जाहिर है कि बाकी इलाके की हालत जस की तस रहेगी या फिर बदतर हो जाएगी।
इसकी पोल खुद शहरी विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट खोलती है। रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2020 के बीच 59 स्मार्ट सिटी पर खर्च करने के लिए सरकार ने 1.31 लाख करोड़ रुपये का बजट रखा है। इसमें से 1.05 लाख करोड़ रुपये क्षेत्र आधारित विकास यानी एरिया बेस्ड डेवलपमेंट पर होगा।
इससे साफ है कि जिन 99 शहरों को स्मार्ट सिटी के रूप में चुना गया है वहां पूरे शहर का विकास नहीं होगा बल्कि कुछ ही इलाकों में सेंसर बेस्ड पब्लिक लाइटिंग, वाईफाई हॉटस्पॉट्स, नई सड़कों का निर्माण, पॉर्क स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने वाले जोन जैसे आईटी एवं इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स बनाए जाएंगे। इस हिसाब से देखा जाए तो स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत बनारस के घाट जापान के क्योटो जैसे खूबसूरत बेशक बनेंगे लेकिन शहर के दूसरे हिस्सों में गंदगी बनी रहेगी। इसी तरह ग्वालियर में स्मार्ट सिटी के तहत महाराजा बाड़े को स्मार्ट बनाने के लिए दो सौ करोड़ रुपये खर्च होंगे। ग्वालियर स्मार्ट सिटी के सीईओ महिप तेजस्वी बताते हैं- ऐतिहासिक धरोहरों को संरक्षित करते हुए इस इलाके में क्राफ्ट बाजार, हेरिटेज होटल और पर्यटन सूचना केंद्र बनाया जाएगा। हालांकि ग्वालियर में जिस तरह महिला पार्क की थीम पर काम हो रहा है, उसे एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जा सकता है। पार्क में महिलाओं के लिए बन रहा गपशप प्वाइंट अनूठा है। इसी तरह उज्जैन में स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत शुरू की गई उज्जैयनी एप भी खूब वाह-वाही बटोर रहा है। एप आपको बता देता है कि कचरा गाड़ी कब आने वाली है।
बावजूद इसके, सवाल उठता है कि इतनी बड़ी राशि खर्च करके शहर के कुछ इलाकों को ही स्मार्ट बना कर आखिर सरकार क्या साबित करना चाहती है? स्मार्ट सिटी की रैंकिंग में दूसरे नंबर पर पुणे है। यहां के लिए 2,870 करोड़ रुपये आवंटित हैं। इसमें से 76 फीसदी यानी 2,196 करोड़ रुपये 3.6 किलोमीटर के विकास पर खर्च होगा। यह इलाका औंध-बनेर-बलेवाड़ी का है। इसी तरह जबलपुर, विशाखापट्नम और इंदौर जैसे शहरों में 90 फीसदी फंड का इस्तेमाल तीन फीसदी से भी कम इलाके को विकसित करने पर खर्च होगा।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश की 31 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। यह 2001 की जनगणना के मुकाबले तीन फीसदी से कुछ ज्यादा है। इस हिसाब से देखा जाए तो देश की करीब 37.7 करोड़ आबादी शहरों में रहती है। इतनी बड़ी आबादी के लिए शहरों में रहने का इंतजाम करना सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में स्मार्ट सिटी के नाम पर आवंटित फंड में से 80 फीसदी का इस्तेमाल सिर्फ 2.7 फीसदी क्षेत्र के विकास पर करना वहां के लोगों के साथ नाइंसाफी है।
शहरों में बसनेवालों में एक बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जो बेहतर शिक्षा, रोजगार और सुविधाओं के लिए शहरी इलाकों में बसना चाहते हैं। ऐसे लोगों में अधिकतर बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं । हालांकि स्मार्ट सिटी को लेकर इंफोसिस के सह-संस्थापक एन आर नारायणमूर्ति की मानें तो भारत अभी स्मार्ट शहरों से बहुत दूर है।
इसके पीछे उनकी अपनी अलग दलील है। नारायणमूर्ति कहते हैं- ‘मेरी खुद की कंपनी में हमने मैसूर, भुवनेश्वर, तिरुवनंतपुरम में सेंटर स्थापित किए। यह ग्रामीण क्षेत्र नहीं है, टियर-दो शहर हैं। लेकिन कोई भी वहां नहीं जाना चाहता। हर किसी को मुंबई, पुणे, बेंगलुरु, हैदराबाद और नोएडा जाना है। यही हकीकत है।’ नारायणमूर्ति के मुताबिक, कंपनियों को इन समस्याओं को इसलिए झेलना पड़ता है क्योंकि बच्चों की शिक्षा, जीवनसाथी के लिए नौकरी और अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं अहम कारण हैं। इस लिहाज से भारत स्मार्ट शहरों से बहुत दूर है।
हालांकि, शहरी विकास सचिव दुर्गाशंकर मिश्र स्मार्ट सिटी के बारे में व्याप्त भ्रांतियों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं – ‘स्मार्ट शहर को सूचना और संचार तकनीक से लैस शहर के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक स्मार्ट शहर में तकनीक की मदद से सामान्य जनजीवन को सुविधायुक्त बनाना इसका मुख्य मकसद है।’ दुर्गाशंकर मिश्र ने स्मार्ट शहरों को भारत के भविष्य के लिए ‘लाइट हाउस’ बताते हुए कहा कि यह अभियान सिर्फ 100 शहरों तक सीमित नहीं रहेगा। इसे आगे बढ़ाते हुए देश के 500 शहरों तक ले जाया जाएगा।
बावजूद इसके, सरकार की असली चिंता स्मार्ट सिटी परियोजना में चल रही सुस्ती को लेकर है। भोपाल में स्मार्ट सिटी के मुख्य कार्यपालक अधिकारियों के पहले शिखर सम्मेलन में भी इस पर चर्चा हुई। सरकार की चिंता लेकर इस सम्मेलन में खुद केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास राज्य मंत्री हरदीप पुरी पहुंचे थे, लेकिन उन्हें अफसरों से कोई ठोस जवाब नहीं मिल सका।
मोदी सरकार के चार चाल पूरे होने के मौके पर कांग्रेस ने जिस तरह से इस परियोजना की सुस्ती पर सरकार पर सवाल खड़े किए, उसे लेकर भी प्रधानमंत्री बौखलाए हुए हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय अब सभी स्मार्ट सिटी के सीईओ की एक बैठक प्रधानमंत्री के साथ कराने की तैयारी में है। पीएमओ के अफसरों का कहना है कि प्रधानमंत्री इन सीईओ से सीधे बात करके न सिर्फ उनके शहरों में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट की प्रोग्रेस का पता लगाएंगे, बल्कि उनसे यह भी जानेंगे कि धीमी रफ्तार की क्या वजह है? 