उमेश चतुर्वेदी

छह जनवरी, 12 मार्च और 17 अगस्त की तारीखें महज कैलेंडर का एक हिस्सा भर हैं या कुछ और, क्या इनमें तुलना की जा सकती है? भारतीय राजनीति के इतिहास में इन तारीखों का अपना खास महत्व है। इन तारीखों को ही राजनीति की दुनिया की कुछ शख्सियतों ने धूल फांकनी शुरू की। उस दौरान उड़ी धूल ने उनके स्वास्थ्य को चाहे जितना भी प्रभावित किया हो, उन धूल के कणों ने उस शख्सियत के राजनीतिक कद को ऊंचा बनाने में बड़ी भूमिका निभाई।

17 अगस्त को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा में पैदल शामिल होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हर कदम में मीनमेख निकालने वाले चिर आलोचक तक चुप हैं। दिल्ली की तपती धूप और चिपचिपी गर्मी के बीच भाजपा मुख्यालय से स्मृति स्थल तक की पैदल यात्रा से प्रधानमंत्री मोदी के कद को मिली ऊंचाई से राजनीति के कई दिग्गजों को परेशानी हो सकती है। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक अच्युतानंद मिश्र ने अपनी लंबी पत्रकारीय पारी में कई शव यात्राएं देखी हैं। उन्होंने तमाम बड़ी राजनीतिक शख्सियतों को नजदीक से देखा है। उनका मानना है कि अटल बिहारी वाजपेयी की अंतिम यात्रा में विनम्र पैदल यात्री के तौर पर शामिल होकर नरेंद्र मोदी ने स्टेट्समैन की छवि हासिल कर ली है। सिर्फ एक यात्रा ने उनके राजनीतिक कद को इतना बड़ा बना दिया जिसका सानी मौजूदा राजनीतिक संदर्भ में अभी तो नजर नहीं आ रहा है।

आतंकी खतरों के दौर में राजनेताओं पर जिस तरह खतरे बढ़े हैं उसमें सुरक्षा एजेंसियां सुरक्षा को लेकर कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहतीं। भारत जैसा देश जो अपने दो-दो प्रधानमंत्रियों को सिर्फ सुरक्षा चूक की वजह से गंवा चुका हो, वहां सुरक्षा एजेंसियां बेहद चौकस रहती हैं। इसलिए वे प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सूई की नोक के बराबर भी चूक की गुंजाइश नहीं रखतीं। ऐसे माहौल में भीड़ के बीच प्रधानमंत्री का पैदल यात्रा करना सामान्य घटना नहीं मानी जा सकती। देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल में प्रधानमंत्री के इस कदम में भी राजनीति देखी जा सकती है। चूंकि प्रधानमंत्री राजनीतिज्ञ पहले हैं, लिहाजा उनकी सोच पर राजनीति हावी रही तो इसमें हैरत किस बात की। लेकिन मात्र इतनी वजह से अटल जी के प्रति उनकी श्रद्धा से इनकार नहीं किया जा सकता। आज प्रधानमंत्री पद पर अगर नरेंद्र मोदी हैं तो इसके पीछे अटल जी का बड़ा योगदान है। उन्होंने अगर पहले नरेंद्र मोदी को वर्ष 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री नहीं बनाया होता तो शायद वे गुजरात में विकास की वह कहानी नहीं रच पाते जो उन्होंने रचा और उसके आधार पर अपनी देशव्यापी साख हासिल की और सबसे बड़े लोकतांत्रिक पद पर पहुंचने में सफल रहे।

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने अटल बिहारी वाजपेयी की जिंदगी पर किताब लिखी है, हार ‘नहीं मानूंगा : एक अटल जीवन गाथा’। इस किताब के मुताबिक वर्ष 2000 में भारतीय जनता पार्टी ने गुटबाजी के आरोप के चलते नरेंद्र मोदी को गुजरात से बाहर कर दिया था। तब नरेंद्र मोदी अमेरिका चले गए थे और वक्त काट रहे थे। इसी दौरान संयुक्तराष्ट्र संघ के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने अमेरिका गए तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक गुजराती अप्रवासी की पहल पर नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। इस मुलाकात में उन्होंने मोदी को दिल्ली लौटने का फरमान सुना दिया। दिल्ली लौटते ही उन्हें भारतीय जनता पार्टी का महासचिव बना दिया गया। किताब के मुताबिक, दिसंबर 2011 में संसद पर हुए हमले में घायल आज तक न्यूज चैनल के कैमरा मैन का जब निधन हुआ तो उसके अंतिम संस्कार में शामिल होने गए नरेंद्र मोदी को श्मशान में ही प्रधानमंत्री कार्यालय से बुलावा आया। उसी दिन वे वाजपेयी से मिले और उनकी किस्मत बदल गई। अगले दिन वे गुजरात के मुख्यमंत्री बना दिए गए।

राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि मोदी ने अटल जी की आखिरी यात्रा में पैदल शामिल होकर दरअसल अपनी श्रद्धा ही जताई। लेकिन इस यात्रा का महत्व इसलिए भी बढ़ गया कि उन्होंने अपनी यात्रा की जानकारी सुरक्षा एजेंसियों को नहीं दी। मौजूदा माहौल में प्रधानमंत्री की यात्राओं से शायद ही कोई होगा जो दो-चार नहीं हुआ होगा। प्रधानमंत्री के काफिले के गुजरने से पहले ही सड़कों को सुरक्षा एजेंसियां सील कर देती हैं। सड़कों के किनारे काम करते या खड़े लोगों को भी रोक दिया जाता है। अटल जी की आखिरी यात्रा में प्रधानमंत्री के पैदल शामिल होने की जानकारी अगर सुरक्षा एजेंसियों को पहले होती तो सड़क किनारे खड़े लोगों को सुरक्षाकर्मी शायद ही खड़े होने देते। अटल जी के प्रति श्रद्धा से भरे लोग फूल लेकर खड़े थे और उनके पार्थिव शरीर के पास आते ही उस पर पुष्प वर्षा करते रहे। उन पुष्पों की पंखुड़ियां शव वाहन के ठीक पीछे पैदल चल रहे प्रधानमंत्री पर भी गिर रही थीं। लेकिन प्रधानमंत्री निश्चल, मौन, कंधे पर पड़े गमछे से पसीना पोंछते गुजरते रहे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके संसदीय क्षेत्र वाराणसी के लोगों ने भी मोदी को इतने नजदीक से नहीं देखा है। अगर उन्होंने देखा भी है तो कार में। लेकिन पहली बार प्रधानमंत्री को दिल्ली के लोग अपने नजदीक इस तरह से देख रहे थे। उस यात्रा में शामिल दिल्ली के एक निवासी का कहना था कि प्रधानमंत्री की अटल जी के प्रति कितनी श्रद्धा है, उनकी पैदल यात्रा ने जाहिर कर दिया। उन्होंने सुरक्षा की भी परवाह नहीं की और लगातार पैदल चलते रहे।

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में तैनात रहे दिल्ली पुलिस के सेवानिवृत्त सब इंस्पेक्टर कपूर सिंह का मानना है कि प्रधानमंत्री की ऐसी यात्राओं से सुरक्षा में तैनात कर्मचारियों की परेशानी और चुनौती बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री की पैदल यात्रा के दौरान उनकी सुरक्षा में तैनात एसपीजी जवानों के हाव-भाव उनकी चुनौती और परेशानी को साफ जाहिर कर रहे थे। उनका मानना है कि यह कम बड़ी बात नहीं है कि प्रधानमंत्री ने श्रद्धा के आगे अपनी सुरक्षा को ताक पर रख दिया और लगातार आगे बढ़ते रहे। ऐसा माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री ने अपनी पैदल यात्रा को गोपनीय रखा और कुछ ही सर्वोच्च लोगों से उन्होंने पहले इसकी चर्चा की होगी। अटल जी की आखिरी यात्रा में शामिल लोगों ने जब पैदल चलते प्रधानमंत्री को देखा तो उन्हें भी सुखद हैरत हुई। लोग यह कहते सुने गए कि आज बाप की आखिरी यात्रा में बेटा तक इतनी मेहनत नहीं करता लेकिन प्रधानमंत्री ने सारा तामझाम छोड़ कर पैदल यात्रा करके अटल जी के प्रति अपना आदर और प्रेम जाहिर किया है।

अतीत में भी कई राजनीतिकों ने यात्राएं की हैं और उनके जरिये उन्होंने नई राजनीतिक ऊंचाइयां हासिल की हैं। महात्मा गांधी को ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध के प्रतीक पुरुष के रूप दांडी यात्रा ने स्थापित किया था जो 12 मार्च, 1930 को शुरू होकर उसी साल छह अप्रैल को खत्म हुई थी। जब जनता पार्टी सरकार का पतन हो गया और केंद्र में एक बार फिर इंदिरा गांधी की सरकार आ गई तो राजनीतिक लक्ष्य साधने के उद्देश्य से जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने 6 जनवरी, 1983 को कन्याकुमारी से दिल्ली तक की लगभग 4,260 किलोमीटर की पदयात्रा शुरू की थी जो 25 जून, 1983 को राजघाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि स्थल पर खत्म हुई थी। अपनी इस यात्रा के जरिये उन्होंने देशभर के लोगों से संवाद स्थापित किया और उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं को समझा। बेशक चंद्रशेखर तब पूर्व सत्ताधारी दल के अध्यक्ष थे लेकिन उनकी राष्ट्रव्यापी राजनीतिज्ञ की छवि इस यात्रा के बाद ही बनी। अविभाजित आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को साल 2004 में सत्ता में लाने में 2003 में शुरू हुई वाईएस राजशेखर रेड्डी की प्रजा प्रस्थान यात्रा ने बड़ी भूमिका निभाई थी। 60 दिनों तक चली इस पदयात्रा में उन्होंने तत्कालीन आंध्र प्रदेश के 11 जिलों की यात्रा की थी। इसी यात्रा के दौरान उनकी छवि राज्यव्यापी बनी और इस दौरान उठाए गए मुद्दों से अगले साल हुए चुनाव में 1995 से सत्ता पर काबिज चंद्रबाबू नायडू की हार हुई।

इन संदर्भों में देखें तो नरेंद्र मोदी की यात्रा बहुत छोटी है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री हैं और खतरनाक आतंकी संगठनों के निशाने पर होने के चलते उनको बाकी नेताओं जैसी सुरक्षा छूट नहीं है। हालांकि उनके विरोधी उनकी इस यात्रा को श्रद्धा की बजाय राजनीतिक दांव मानते हैं। हिंदी की लेखिका उमा कहती हैं कि इस यात्रा के जरिये उन्होंने अपना मकसद ही साधने की कोशिश की है। वैसे भी सोशल मीडिया पर इस यात्रा को लेकर प्रधानमंत्री पर सवाल उठाने वालों और व्यंग्य करने वालों की कमी नहीं है। उनका मानना है कि भाजपा का जनाधार खिसक रहा है। प्रधानमंत्री ने पैदल यात्रा के जरिये कुछ महीनों बाद होने जा रहे तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों और उसके कुछ महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अपने जनाधार को थामने के लिए सहानुभूति कार्ड खेलने की कोशिश की है। 