पुराने किले में एक सरकारी दिखने वाले दफ्तर के भीतर बैठे अमरेंद्रनाथ जी रिटायर भले ही 2007 में हो गए हों, लेकिन उनकी चुस्ती किसी मौजूदा कर्मठ कर्मचारी से कम नहीं दिखती। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पूर्व डायरेक्टर अमरेंद्रनाथ को देखने के बाद एक सवाल तो जरूर उठता है कि आखिर राखीगढ़ी में चल रही खुदाई में उनके अनुभव का लाभ क्यों नहीं लिया गया? जब उनसे यह सवाल पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं तो आज भी लगातार काम करता हूं, रिपोर्ट लिखता हूं, पढ़ता हूं, कुछ कुछ काम करता ही रहता हूं। अब यह तो विभाग ही जाने कि हमारे अनुभव का लाभ किस मजबूरी से नहीं उठाया! हम तो आज भी काम के लिए तैयार हैं। फिर राखीगढ़ी तो मेरी प्रिय साइट है।

‘हिंदू संस्कृति को छिपाने की पूरी कोशिश लगातार की गई है। हिंदू देवी देवताओं से जुड़ी बातों को काल्पनिक करार देने को आधुनिकता माना जाता है। वेदों के अस्तित्व पर सवाल उठाना ज्ञान का सूचक बना दिया गया है। आप प्रमाण को कैसे झुठला सकते हैं। पुरातत्वविद सबकुछ प्रमाण के साथ कहता है। मैंने भी वही कहा था।’ अमरेंद्रनाथ जी की ये बातें कहीं न कहीं उनकी रिपोर्ट की अनदेखी करने की व्यथा भी कहती हैं। इस समय मिले कई प्रमाणों का जिक्र करने पर वह कहते हैं कि ज्यादातर बातें तो पहले ही कही जा चुकी हैं। हालांकि वह इस बात से खुश हैं कि लंबे समय बाद एक बार फिर राखीगढ़ी में मिले प्रमाणों को लेकर चर्चा गरम है। वह कहते हैं कि विशेषज्ञ बदलने से प्रमाण नहीं बदलते। जो सच है वह साबित होकर रहेगा।

राखीगढ़ी निसंदेह हड़प्पा सभ्यता की खोज में मील का पत्थर है। यह बात मैंने करीब पंद्रह साल पहले ही कह दी थी। राष्ट्रीय संग्रहालय में एक महिला का कंकाल रखा है, जो इस सभ्यता और संस्कृति के बारे में बहुत कुछ कहता है। उस औरत ने शंख की चूड़ियां पहनी हैं, मनकों की माला पहनी है। 21 पॉट्स उसके पास से मिले हैं। इससे अंदाजा लगता है कि उस युग में औरतों को सम्मानजनक दर्जा मिला था। कहीं न कहीं कंकाल के साथ मिले पॉट्स की संख्या लोगों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति भी बताते हैं। दफनाने की जगह भी बिल्कुल वैसी है जैसी शतपथ ब्राह्मण नाम के ग्रंथ में मिली है। जैसे उसमें कहा गया है कि दफनाने की जगह के करीब नदी होनी चाहिए, मिट्टी पीली हो, नमक होना चाहिए। इस ग्रंथ में दफनाने की जगह का वर्णन जैसा किया गया है यह बिल्कुल वैसा ही है वातावरण हमें राखीगढ़ी कंकालों के आसपास मिला है। लेकिन हम यह कहने में झिझकते रहते हैं कि हमारा वैदिक साहित्य सत्य था, प्रमाणित था। साहित्य को झुठलाने की वजह पूछने पर अमरेंद्रनाथ केवल मुस्कराते हैं और बस इतना कहते हैं कि यह सियासत है। वह बताते हैं कि हमने उसी वक्त काफी कुछ खोज लिया था। रवि खरीफ की फसल होने के प्रमाण भी मिले थे। सिंचाई के चैनल होने के प्रमाण सामने आए थे। यानी खेती की स्थिति काफी बेहतर थी।

अमरेंद्रनाथ जी से जब यह पूछा गया कि आखिर सरस्वती नदी की सच्चाई क्या है? अगर यह नदी है तो साबित कीजिए। तो उन्होंने कहा, ‘हम साबित कर चुके हैं। सरस्वती नदी के प्रमाण तो वहां स्पष्ट मिले हैं। पूरब से पश्चिम तक नदियों का जो क्रम ऋग्वेद में भी दिया गया है- वह यहां मिलता है। इसमें यमुना और सतलुज के बीच सरस्वती नदी होने के प्रमाण मिलते हैं। द्रषदवती नदी जिसके प्रमाण यहां मिले हैं यह सरस्वती नदी की ही एक धारा थी। सैटेलाइट इमेज में तो यह कब का साबित हो चुका है। अजीब बात यह है कि सात नदियों के क्रम में हम सबके वजूद को स्वीकार करते हैं लेकिन सरस्वती क्योंकि लुप्त हो चुकी थी, उसे हम मानने से इनकार करते हैं।

दूसरी बात राखीगढ़ी उस सवाल का भी जवाब है जिसमें कहा जाता है कि आर्य बाहर से आए थे। आर्य दरअसल बाहरी नहीं थे बल्कि कुलीन वर्ग के लोगों को आर्य कहा जाता था। जैसे आर्य पुत्र, हे आर्य संबोधन आपने भी रामायण, महाभारत में सुने होंगे। खेती, संस्कृति, गांव सबकुछ हमें मिला है। फिर आर्य बाहरी कैसे थे?