हरियाणा- हुड्डा की छटपटाहट

ओपिनियन पोस्ट ब्यूरो
एक वक्त था जब भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने जो बोल दिया वह हो गया। यह वह दौर था जब हुड्डा प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। कांग्रेस पार्टी के अंदर उनकी पकड़ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता था कि तमाम आरोपों के बाद भी उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनाया गया था। कहते हैं सियासत में वक्त एक जैसा नहीं रहता। यह बात हुड्डा से बेहतर और कोई नहीं महसूस कर सकता। उन्हें इन दिनों मौजूदा भाजपा सरकार से कम, पार्टी में अपने विरोधियों से ज्यादा दिक्कत आ रही है। दिल्ली दरबार में भी उन्हें ज्यादा भाव नहीं मिल रहा है। ऐसे में अब उनके सामने करो या मरो की स्थिति है। शायद यही वजह है कि जब प्रदेश में तापमान 47 डिग्री तक पहुंच रहा है वे रथयात्रा निकाल रहे हैं। यह अलग बात है कि उनकी इस यात्रा को न तो पार्टी आलाकमान और न ही प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर का समर्थन है। फिर भी अपने दम पर उन्होंने न सिर्फ अच्छी खासी भीड़ जुटाई बल्कि प्रदेश सरकार को भी घेर रहे हैं। इसके बाद भी उनकी चिंता कम नहीं हो रही है क्योंकि असली चिंता यह है कि तमाम कवायदों के बाद भी उन्हें पार्टी आलाकमान के दरबार से ज्यादा समर्थन नहीं मिल रहा है।
हरियाणा की राजनीति पर पीएचडी कर रहे डॉ. वाईएस चौधरी के मुताबिक, ‘मुख्यमंत्री रहते हुए हुड्डा ने जो दांव चले हैं, अब वह उन पर भारी पड़ रहे हैं। रॉबर्ट वाड्रा जमीन सौदा हो या फिर एजेएल नेशनल हेराल्ड प्लॉट आवंटन मामला, दोनों ऐसे मामले थे जिन्हें तब की सरकार सुलझा सकती थी। पार्टी आलाकमान की यही सोच हुड्डा के लिए परेशानी की वजह बन रही है।’ हरियाणा की राजनीति जाट बनाम गैर जाट की ओर बढ़ चुकी है। कांग्रेस के एक गुट का नेतृत्व भूपेंद्र सिंह हुड्डा कर रहे हैं जबकि कांग्रेस में एक और मजबूत खेमा रणदीप सुरजेवाला के प्रदेश में अचानक सक्रिय होने से पैदा हो गया है। उनकी पार्टी हाईकमान पर मजबूत पकड़ है। उन्होंने हाल के महीनों में रैलियों का सिलसिला तेज किया है। किरण चौधरी और अशोक तंवर का भी अपना-अपना गुट है। अशोक तंवर गैर जाट हैं। किरण चौधरी अपनी बेटी श्रुति को दूसरी बार लोकसभा में भेजने के लिए यादव बहुल इलाकों में सक्रिय हो गई हैं। उन्होंने भी हाल ही में यादवों के गढ़ महेंद्रगढ़ जिले के दौरे तेज कर दिए हैं।

खुद को मजबूत कर रहे हुड्डा
तमाम गुटों के बाद भी प्रदेश में हुड्डा खेमा खासा मजबूत है। रथयात्रा के माध्यम से वे अपनी ताकत दिखा भी रहे हैं। इतना ही नहीं, पिछले साल दिल्ली में उन्होंने दो बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुलाकात की। एक मुलाकात संसद में हुई है जबकि दूसरी मुलाकात सेंट्रल हॉल में हुई। प्रधानमंत्री से मुलाकात करके उन्होंने कांग्रेस हाईकमान को बड़ा संकेत दे दिया है। हुड्डा पिछले करीब तीन वर्षों से विधायकों के माध्यम से हाईकमान पर इस बात के लिए दबाव बनाए हुए हैं कि हरियाणा कांग्रेस की बागडोर उन्हें सौंपी जाए। हुड्डा समर्थित विधायक कई बार खुलेआम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर और विधानसभा में विधायक दल की नेता किरण चौधरी को बदलने की मांग उठा चुके हैं। यह अलग बात है कि इस पर अभी तक विचार नहीं किया गया है।
क्या कांग्रेस में हुड्डा फिर से मजबूत होंगे? इस सवाल पर प्रदेश की राजनीति पर किताब लिख चुके पूर्व पत्रकार आरके कश्यप कहते हैं, ‘जिस तरह से कांग्रेस सिमट रही है ऐसे में दोबारा सत्ता पाने के लिए पार्टी अब कुछ भी कर सकती है। इसलिए यह तो फिलहाल नहीं कहा जा सकता कि पार्टी में हुड्डा का खेल खत्म हो गया है। गुटीय राजनीति के हिसाब से देखें तो विधायकों में हुड्डा समर्थकों का बोलबाला है। 13 विधायक उनके साथ हैं।’ प्रदेश की राजनीति की समझ रखने वालों का मानना है कि इस समर्थन में एक बड़ा पेंच यह है कि ये विधायक हुड्डा के साथ तब तक हैं जब तक उन्हें यह पता है कि कांग्रेस आलाकमान हुड्डा की अनदेखी नहीं कर सकता। वे दबाव बनाने तक तो हुड्डा का साथ दे सकते हैं लेकिन यदि उन्हें लगा कि हुड्डा उन्हें टिकट नहीं दिलवा सकते तो वे उन्हें छोड़ कर दूसरे मजबूत नेता के पक्ष में आ सकते हैं।

हुड्डा के पास विकल्प क्या है
रथयात्रा उन्होंने ऐसे मौके पर शुरू की जब प्रदेश सरकार अपने चार साल पूरे कर रही है। उनके पास तीन विकल्प हैं जो प्रदेश की राजनीति में उन्हें बनाए रखने के लिए काफी कारगर साबित हो सकते हैं। पहला तो यही कि वे कांग्रेस में अपना वजूद मनवा लें जिसकी संभावना फिलहाल आधी-आधी नजर आ रही है। दूसरी संभावना यह है कि वे अलग पार्टी बना लें लेकिन इसकी संभावना फिलहाल कम है क्योंकि अभी तक जो भी कांग्रेस छोड़ कर गया वह वापस कांग्रेस में ही आया। इस बात को हुड्डा गुट बेहतर जानता है। उनके बेहद करीबी माने जाने वाले विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष कुलदीप सिंह कांग्रेस छोड़ कर अलग चुनाव लड़ कर देख चुके हैं। उनके सामने विनोद शर्मा का उदाहरण भी है। पिछले विधानसभा चुनाव में विनोद शर्मा ने कांग्रेस छोड़ अपनी पार्टी बना कर चुनाव लड़ा। नतीजा जीरो रहा। हुड्डा के सामने तीसरा रास्ता बचता है भाजपा के साथ जाने का। इसकी संभावना काफी है क्योंकि भाजपा के पास प्रदेश में मजबूत जाट नेता नहीं है। हुड्डा यह खेल कांग्रेस पर दबाव बनाने के लिए खेल सकते हैं। आरके कश्यप का यह भी मानना है कि संभावना इस बात की भी है कि हुड्डा अलग पार्टी बना कर चुनाव लड़ें और अंदरखाने से उन्हें भाजपा का समर्थन मिल जाए। इंडियन नेशनल लोकदल के साथ बसपा का गठजोड़ होने के कारण भाजपा को भी एक मजबूत साथी की जरूरत हरियाणा में पड़ सकती है। लेकिन इसमें बड़ा पेंच यह है कि भाजपा के निशाने पर कांग्रेस कम और पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ज्यादा रहे हैं। मानसेर भूमि विवाद हो या फिर वाड्रा जमीन प्रकरण, ये मामले हुड्डा और भाजपा के बीच काफी दूरी पैदा कर सकते हैं।

देखो और इंतजार करो
हुड्डा को लेकर फिलहाल देखो और इंतजार करो की स्थिति है। इसी को भांपते हुए वे खुद को हर स्थिति के लिए तैयार कर रहे हैं। हुड्डा के पास कोई वजनदार नेता नहीं है जो अब कांग्रेस आलाकमान के सामने उनकी मजबूत पैरवी कर सके। ऐसे में उनके सामने अपने समर्थकों को एकजुट रखना बड़ी चुनौती है। इससे पार वे तभी पा सकते हैं जब लगातार सक्रिय रहेंगे। मौजूदा रथयात्रा इसी क्रम में उठाया गया एक कदम भर है। देखना होगा कि प्रदेश की राजनीति आने वाले समय में किस तरफ जाती है क्योंकि सियासत का रुख ही हुड्डा का भविष्य तय करेगा। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *