एनडीए व्यस्त, विपक्ष पस्त

विजयशंकर चतुर्वेदी

अटल-आडवाणी युग के चरम और वर्ष 2013 में मोदी-शाह के उदयकाल से पहले ही भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने चुनावी रणनीति बना ली थी कि पहले किसी एक राज्य को हिंदुत्व की प्रयोगशाला बनाया जाए और बाद में पूरे देश पर उसका संक्रामक प्रभाव पैदा किया जाए। गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश का सफल प्रयोग और अब ओडिशा पर नजरें गड़ाना उनके इसी मिशन का अगला चरण कहा जा सकता है।

इसी साल फरवरी में संपन्न ओडिशा के जिला परिषद चुनावों में भाजपा को 854 में से 297 सीटें मिलीं और वह सत्तारूढ़ बीजद के बाद दूसरे नंबर पर रही। भाजपा-बीजद का 1988 में हुआ 17 साल का गठबंधन 2009 में जब टूटा था तब से भाजपा ओडिशा में लगातार रसातल की ओर ही जा रही थी। स्थानीय निकायों में मिली यह सफलता पार्टी को इतनी बड़ी लगी कि उसने 15-16 अप्रैल को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भुवनेश्वर में कर डाली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को कमल के 74 फूलों की माला पहनाते हुए केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा, ‘ओडिशा केंद्र द्वारा अपनाई गई एनडीए की गरीब समर्थक नीतियों की प्रयोगशाला बनेगा और 2019 में केंद्र और राज्य में सरकार बनाने की रणनीति को अंतिम रूप यहीं से दिया जाएगा।’

राष्ट्रीय कार्यकारिणी के माहौल और धर्मेंद्र प्रधान के बयान से यह स्पष्ट है कि इस बैठक में गरीब समर्थक नीतियों की आड़ में हिंदुत्ववादी नीतियों का संकेत कहीं ज्यादा दिया गया। इस बार पोस्टरों में यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों के मुकाबले ज्यादा तरजीह दी गई। उनकी कट्टर हिंदुत्ववादी छवि से सभी परिचित हैं। ध्यान रहे कि पार्टी की पिछली कार्यकारिणी की बैठक से योगी आदित्यनाथ इसलिए आगबबूला होकर निकल गए थे कि उन्हें बोलने तक नहीं दिया गया था। ओडिशा के स्थानीय निकाय चुनाव मेंभाजपा को अधिकांश सीटें मयूरभंज जैसे आदिवासी बहुल जिलों में मिली हैं जहां संघ परिवार लंबे समय से धर्म परिवर्त्तन के विरुद्ध अभियान चला रहा है। वैसे भी आदिवासी बहुल ओडिशा में विकास से ज्यादा धार्मिक रुझान का ज्यादा असर पड़ता है।

दरअसल, यह सारी कवायद भाजपा के ‘मिशन 2019’ को पूरा करने की है। हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में चार राज्यों में मिली जीत के बाद भाजपा इस कदर उत्साहित है कि उसने 2019 के आम चुनाव के लिए 2017 में ही अपने सम्राट और सेनापति घोषित कर दिए हैं जबकि विपक्षी खेमे के सूरमा अभी पराजय और नाकामी के जंगलों में ही भटक रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली के प्रवासी भवन में आयोजित एनडीए की डिनर बैठक में तय किया गया कि 2019 का आम चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा जिसकी कमान पूरी तरह से अमित शाह के हाथ में होगी। 2014 की जीत के बाद एनडीए की यह दूसरी बड़ी बैठक थी। उधर, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस मान चुकी है कि नरेंद्र मोदी को हरा पाना उसके अकेले के बूते की बात नहीं है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने स्पष्ट कहा है कि कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाने के साथ-साथ विपक्षियों का राष्ट्रीय गठबंधन भी बनाना पड़ेगा। लेकिन यह गठबंधन कब और कैसे बनेगा, इसकी सुगबुगाहट भी अभी नहीं दिख रही।

यूपी की शर्मनाक हार के बाद नरेंद्र मोदी का विजय रथ रोकने के लिए न तो अखिलेश-मुलायम खुलकर सामने आ रहे हैं और न ही सुशासन बाबू नीतीश कुमार। नीतीश तो मोदी की कई नीतियों का समर्थन तक कर चुके हैं। बीजद के नवीन पटनायक ने ओडिशा से बाहर निकलने की कभी इच्छा ही नहीं जताई। मोदी का आमरण विरोध करने की प्रतिज्ञा करने के बावजूद ममता बनर्जी के तेवरों से पता ही नहीं चल पाता कि वह कांग्रेस का खुलकर साथ देंगी भी या नहीं। लालू प्रसाद यादव नीतीश को पीएम बनाने की बात तो करते हैं लेकिन बिहार में ही उनकी उनसे पटरी नहीं बैठ पा रही है। पंजाब और गोवा में पराजय का मुंह देखने के बाद अरविंद केजरीवाल में भी वो बात नहीं रह गई। ऐसे में यक्ष प्रश्न यह है कि अगर यूपीए किसी गठबंधन की कल्पना करती भी है तो उसका नेतृत्व कौन करेगा?

हालांकि 2019 के आम चुनाव में अभी काफी समय बचा है लेकिन जो पार्टियां जीत के इरादों की पक्की होती हैं वे सदा चुनाव के मोड और मूड में रहती हैं। नरेंद्र मोदी ने तो यहां तक कह दिया है कि अगला चुनाव मोबाइल के माध्यम से लड़ा जाएगा। दिल्ली में एनडीए की बैठक में नरेंद्र मोदी, अमित शाह, केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह, केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के अलावा शिवसेना, टीडीपी, अकाली दल, पीडीपी, एलजेपी और उत्तर-पूर्व के घटकों समेत एनडीए के सभी 32 दल उपस्थित थे। सभी ने एक सुर में पीएम मोदी की नीतियों को सराहा और उनके नेतृत्व में 2019 का चुनावी समर फतह करने का प्रस्ताव पारित किया।

दूसरी तरफ भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को यूपी का सीएम बनाकर मिशन 2019 के लिए एक और बड़ा कार्ड खेला है। 80 लोकसभा सीटों वाले यूपी में योगी जिस तरह जनता को खुश करने वाले ताबड़तोड़ फैसले ले रहे हैं, उससे अगले दो साल में भाजपा विरोधियों के मुंह बंद हो सकते हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा जिस जातीय फॉर्मूले में फेल हो गई थी, यूपी में वह सोशल इंजीनियरिंग उसके काम आई। हिंदुत्व के साथ-साथ यहां उसने एक नया जातीय समीकरण बना लिया है जो गैर यादव ओबीसी, गैर जाटव दलित, परंपरागत अगड़ी जातियों से मिलकर बना है। यह समीकरण पूरे देश में उसके लिए रामबाण साबित हो सकता है। पार्टी ने अपने सांसदों से कहा है कि वे अपने क्षेत्र में दलितों के घर एक-एक दिन जरूर बिताएं और केंद्र सरकार ने उनके कल्याण की जो योजनाएं बनाई हैं उनसे गरीबों को अवगत कराएं। ‘दलित राजधानी’ कहे जाने वाले आगरा समेत देशभर में बड़े पैमाने पर बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती मनाकर भाजपा ने दलित हितैषी होने की छवि चमकाने की कोशिश भी तेज कर दी है।

पीएम मोदी मिशन 2019 के लिए अपनी खास शैली में भाजपा सांसदों को प्रेरित कर रहे हैं। एनडीए की बैठक से पहले उन्होंने प्रधानमंत्री आवास पर झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के अपने सांसदों के साथ नाश्ते पर चर्चा की थी और उन्हें उनके संसदीय क्षेत्र में हो रहे कार्यक्रमों के साथ-साथ सरकार के कार्यक्रमों को सोशल मीडिया के जरिये प्रचारित-प्रसारित करने का मंत्र दिया था। ध्यान रहे कि इन राज्यों में झारखंड को छोड़कर कहीं भाजपा की सरकार नहीं है।

दूसरी तरफ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अलग ही फार्मूले पर काम कर रहे हैं। उनकी नजर उन 200 लोकसभा सीटों पर है जहां 2014 में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था। इस व्यापक कार्यक्रम के प्रभारी राष्ट्रीय महाप्रबंधक अनिल जैन का कहना है, ‘इस अभियान के तहत अमित शाह स्वयं हैदराबाद, अरुण जेटली बेंगलुरु, स्मृति ईरानी उत्तर कोलकाता और कांग्रेस के गढ़ अमेठी का दौरा करेंगी। राजनाथ सिंह दक्षिण कोलकाता में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में शामिल हो सकते हैं। जबकि नितिन गडकरी निजामाबाद और धर्मेंद्र प्रधान गुना जाएंगे। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल रोहतक में डेरा डालेंगे। इसके अलावा पार्टी अपने बूथस्तरीय कार्यकर्ताओं और सदस्यों तक ‘शक्ति केंद्र सम्मेलन’ के माध्यम से पहुंचने काप्रयास कर रही है।’ भाजपा में 10 बूथों के एक समूह को शक्ति केंद्र कहा जाता है।

तीसरी ओर आरएसएस दक्षिण और पूर्वी भारत में भाजपा का आधार मजबूत करने में जुटा है। 92 वर्षों के इतिहास में आरएसएस ने पहली बार तमिलनाडु में राष्ट्रीय स्तर की बैठक की। कोयंबटूर में 19 से 21 मार्च को उसकी अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक हुई। पश्चिम बंगाल में भी अभी जिस पैमाने पर संघ ने हनुमान जयंती मनाई, उसकी मिसाल राज्य के इतिहास में नहीं मिलती। स्पष्ट है कि एक ओर जहां मिशन 2019 पूरा करने के लिए मोदी-शाह की अगुवाई में एनडीए प्राणपण से जुटा हुआ है वहीं यूपीए की तरफ से कोई हलचल नजर नहीं आ रही। बसपा सुप्रीमो मायावती ने आंबेडकर जयंती के दिन जरूर कहा कि मोदी और भाजपा को धूल में मिलाने के लिए बसपा किसी से भी हाथ मिला सकती है। लेकिन क्या यह यूपीए के ठहरे हुए राजनीतिक पानी में एक कंकड़ उछालने की सिर्फ कवायद भर है? क्योंकि सवाल यह है कि इस मुहिम में उनका साथ कौन देगा? बसपा यूपी में मुलायम सिंह को काफी पहले ही दुश्मन बना चुकी है। उसके दलित वोटों पर भाजपा डाका डाल चुकी है। जिस वंशवाद और पारिवारिक सदस्यों को राजनीति में आगे बढ़ाने का मायावती विरोध करती थीं, वह सिक्का भी उन्होंने अपने सगे भाई आनंद कुमार को बसपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष घोषित करके खोटा कर लिया है। अपने छोटे भाई को पार्टी उपाध्यक्ष बनाकर न सिर्फ उन्होंने अपना संकल्प तोड़ा बल्कि पार्टी के दिग्गजों नसीमुद्दीन सिद्दीकी, सुधींद्र भदौरिया और सतीश चंद्र मिश्र का कद भी छोटा कर दिया। आनंद और उनकी कई कंपनियों पर मायावती के शासन में अवैध तरीके से कमाई करने और भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं। इससे बसपा का शीर्ष नेतृत्व हमेशा निशाने पर बना रहेगा।

हालांकि देश का मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा है कि अगर भाजपा के बुल्डोजर से बचना है तो तमाम क्षेत्रीय दलों को एकजुट होना पड़ेगा और राष्ट्रीय स्तर पर धर्मनिरपेक्ष ताकतों का एक साझा मोर्चा बनाना पड़ेगा। नेशनल कांफ्रेंस के उमर अब्दुल्ला, एनसीपी के शरद पवार और डीपी त्रिपाठी, सपा के अखिलेश यादव, आरजेडी के लालू यादव, जेडीयू के नीतीश कुमार, टीएमसी की ममता बनर्जी आदि इसकी सख्त जरूरत बता चुके हैं। लेकिन विपक्षी दलों के स्वार्थ और आपसी अंतर्विरोध इतने हैं कि इनका एक छतरी के नीचे आना असंभव सा लगता है। सवाल यह भी है कि क्या कांग्रेस राहुल गांधी को छोड़कर राष्ट्रीय स्तर पर इनमें से किसी का नेतृत्व स्वीकार करेगी? एनसीपी के शरद पवार का तो यही मानना है कि महागठबंठन को नेतृत्व आज भी कांग्रेस ही दे सकती है।

2019 के आम चुनाव में भाजपा का विजय रथ रोकने और अपनी जमीन बचाने की फिराक में मायावती को अब कट्टर प्रतिद्वंद्वी सपा से हाथ मिलाने और राष्ट्रीय स्तर पर किसी महागठबंधन में शामिल होने से भी कोई गुरेज नहीं है लेकिन मुलायम सिंह ने साफ कह दिया है कि सपा अकेले ही भाजपा का मुकाबला करने में समर्थ है, महागठबंधन की कोई जरूरत नहीं है। जबकि माकपा नेता सीताराम येचुरी मानते हैं कि जो धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र चाहते हैं उन्हें साथ आना ही होगा वरना आधुनिक भारत के निर्माण का सपना कभी पूरा नहीं होगा।

भाजपा 26 मई, 2017 को केंद्र में अपनी सरकार के तीन साल पूरा होने पर देशव्यापी जश्न मनाने की योजना बना रही है। उसके लिए यह नरेंद्र मोदी को गरीबों का मसीहा साबित करने और 2019 का एजेंडा तय करने का माकूल अवसर होगा। आज की तारीख में पूरा विपक्ष पस्त है जबकि भाजपा मिशन 2019 की तैयारियों में व्यस्त है।

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