बनवारी।
भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस मुक्त भारत से भी पहले मार्क्सवादियों से मुक्त भारत की ओर बढ़ती दिखाई दे रही है। मार्क्सवादी पार्टी काफी समय से तीन राज्यों में सिमटी हुई है। देश में अभी दो राज्यों में उनकी सरकारें हैं-केरल और त्रिपुरा में। पश्चिम बंगाल में 34 वर्ष के लंबे शासन के बाद छह वर्ष पूर्व ममता बनर्जी ने उनसे सत्ता छीन ली थी। लेकिन अभी भी तृणमूल कांग्रेस के बाद सबसे बड़ा जनाधार उन्हीं का है। इन तीन में से दो राज्यों में भाजपा की लोकप्रियता ने उनके सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। पिछले कई उपचुनावों में पश्चिम बंगाल में उनका जनाधार खिसकता दिखाई दिया। उनकी जगह भारतीय जनता पार्टी लगभग तीस प्रतिशत वोट लेकर मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभरती दिखाई दी। त्रिपुरा में भी हवा उल्टी दिशा में बहती दिख रही है। त्रिपुरा में मार्क्सवादी पार्टी 1993 से सत्ता में है। अभी भी उसके मुख्यमंत्री माणिक सरकार की प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आई। वे पिछले 19 वर्ष से त्रिपुरा के मुख्यमंत्री हैं। लेकिन अपनी सादगी और सहज उपलब्धता के कारण उनकी साख बहुत ऊंची है। पर उनकी पार्टी से लोगों का विश्वास टूट रहा है। अगले वर्ष त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव होने हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मार्क्सवादियों से त्रिपुरा का शासन छीनना अपनी राजनीतिक चुनौती बना लिया है।
पश्चिम बंगाल में पिछले वर्ष ही विधानसभा चुनाव हुए हैं। इन चुनावों में ममता बनर्जी को हराने के लिए मार्क्सवादी और कांग्रेस पार्टी ने मिलकर चुनाव लड़ा था। उसके बाद भी लगभग 45 प्रतिशत वोट पाकर तृणमूल कांग्रेस 211 सीट जीत गई। सीट जीतने के मामले में वाम मोर्चा कांग्रेस से भी पिछड़ गया। कांग्रेस 44 सीट जीतने में सफल रही, जबकि वाम मोर्चे को 32 सीटें ही मिलीं। उन्होंने कांग्रेस से दोगुनी सीटें लड़ी थीं। इस हार का उनके कार्यकताओं पर तो बुरा असर पड़ा ही। उनका जनाधार भी खिसकना आरंभ हो गया। लेकिन मार्क्सवादियों के जनाधार के सिकुड़ने का लाभ कांग्रेस को मिलने की बजाय भाजपा को मिलता दिखाई दे रहा है। यह कोई मामूली आश्चर्य नहीं है। क्योंकि मार्क्सवादी भाजपा को अपना सबसे बड़ा राजनीतिक शत्रु दिखाते रहे हैं। लेकिन लगता है कि भारतीय राजनीति का आधार बदल रहा है। अब तक कांग्रेस और उससे निकले सभी दल तथा साम्यवादी भारतीय जनता पार्टी को सांप्रदायिक बताकर उसे राजनीति के हाशिये पर रखने की कोशिश करते रहे। दूसरी तरफ उन्हें चुनाव जीतने के लिए मुस्लिम समुदाय को लामबंद करने में कोई अनौचित्य दिखाई नहीं देता था। भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के उभार के बाद अब हिन्दू सांप्रदायिकता की जगह मुस्लिम सांप्रदायिकता राजनीति के केंद्र में आ गई है। उसी का नुकसान कांग्रेस से लगाकर मार्क्सवादियों तक सबको उठाना पड़ रहा है।
पश्चिम बंगाल में अब तक ममता बनर्जी का जनसमर्थन मजबूत दिखाई दे रहा है। लेकिन यह जनसमर्थन अगले विधानसभा चुनाव तक इतना ही बना रहेगा, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। ममता बनर्जी का जनाधार कोई वैचारिक नहीं है। पिछले लगभग 50 वर्ष से पश्चिम बंगाल की राजनीति स्थानीय राजनीतिक माफिया के भरोसे चल रही है। यह सिलसिला सिद्धार्थ शंकर राय के शासन में आरंभ हुआ था। वह नक्सलवादी आतंक का जमाना था। नक्सलवादियों की हिंसा का मुकाबला सामान्य राजनीतिक तरीकों से नहीं किया जा सकता था। उनसे निपटने के लिए सिद्धार्थ शंकर राय ने अपराधी तत्वों को राजनीति में प्रवेश दिलाया। धीरे-धीरे एक राजनीतिक माफिया का उदय होता गया। सिद्धार्थ शंकर राय के बाद मार्क्सवादियों को सत्ता मिली। उनके लिए भी नक्सलवादी उतनी ही बड़ी राजनीतिक चुनौती थे। मार्क्सवादियों ने उनके ही नहीं, कांग्रेस के जनाधार को भी नष्ट करने के लिए इस राजनीतिक माफिया का विस्तार पूरे प्रदेश में कर दिया। मार्क्सवादियों को हिंसा से वैसे भी कभी परहेज नहीं रहा। भारत में जितनी राजनीतिक हिंसा पश्चिम बंगाल और केरल में होती रही है, उतनी कहीं नहीं हुई। इस हिंसा पर कोई उंगली नहीं उठती, क्योंकि हमारा बौद्धिक जगत वामपंथियों के ही प्रभाव में रहा है।
इस राजनीतिक माफिया के सहारे मार्क्सवादियों ने पश्चिम बंगाल पर 34 वर्ष शासन किया। 23 वर्ष ज्योति बसु मुख्यमंत्री रहे और 11 वर्ष बुद्धदेव भट्टाचार्य। ज्योति बसु की नागर छवि के नीचे मार्क्सवादियों के सब पाप ढके रहे। लेकिन ज्योति बसु की विदाई के बाद मार्क्सवादियों में आपसी प्रतिस्पर्धा बढ़ी। उनके आशय में फलाफूला राजनीतिक माफिया भी विभाजित होने लगा। इसी दौर में ममता बनर्जी का राजनीतिक उभार हुआ। अपनी सादगी भरी जीवनशैली और झक से भरे हुए लड़ाकू तेवरों के कारण वे जल्दी ही पश्चिम बंगाल के लोगों की निगाह में चढ़ गर्इं। उन्होंने कांग्रेस छोड़ी और तृणमूल कांग्रेस बनाई। लेकिन 2011 का विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए उन्होंने फिर कांग्रेस से गठजोड़ किया और मार्क्सवादियों के लंबे शासन का अंत करते हुए सत्ता में पहुंच गर्इं। ममता बनर्जी ने अपनी लोकप्रियता को तृणमूल कांग्रेस के जनाधार में बदलने के लिए पाला बदलने वाले राजनीतिक माफिया का सहारा लिया। धीरे-धीरे मार्क्सवादियों का पाला-पोसा अधिकांश माफिया तंत्र ममता बनर्जी की शरणागत हो गया। आज वही उनकी शक्ति का आधार बना हुआ है। पिछले छह वर्ष में विपक्ष के राजनीतिक हाशिये पर खिसकते चले जाने का कारण तृणमूल की शक्ति का आधार यही राजनीतिक माफिया है। इस माफिया के तृणमूल की तरफ चले जाने के बाद अब मार्क्सवादियों के पास केवल अपना वैचारिक जनाधार ही रह गया है, जो कि अधिक नहीं है। पिछले विधानसभा चुनावों में उन्हें केवल 25 प्रतिशत वोट मिले थे।
पश्चिम बंगाल की राजनीति का एक और बहुत महत्वपूर्ण पहलू है। पश्चिम बंगाल में 25 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। पश्चिम बंगाल के कई सीमावर्ती जिलों में राजनीति पर उनका काफी दबदबा है। पश्चिम बंगाल के मुसलमानों में अब तक कांग्रेस की पैठ रही है। अपने लंबे शासनकाल में मार्क्सवादी इस वोट बैंक में कुछ सेंध लगाने में सफल हुए थे। लेकिन वे मुसलमानों को पूरी तरह कांग्रेस से नहीं तोड़ पाए। पिछले चुनावों में ममता बनर्जी ने मुस्लिम समर्थन प्राप्त करने के लिए राजनीति की सभी मर्यादाएं ताक पर रख दी थीं। वे मुस्लिम बहुल इलाकों में अपना चुनावी भाषण भी कुरान की आयतों से शुरू करती थीं। एक दिन बाद मुहर्रम मनाए जाने का हवाला देते हुए ममता बनर्जी ने श्रीदुर्गा की मूर्तियों के विसर्जन पर उत्तरान्ह चार बजे के बाद पाबंदी लगा दी, जिसे पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करके निरस्त करना पड़ा था। पश्चिम बंगाल में होने वाले सांप्रदायिक दंगों में ममता प्रशासन सदा मुसलमानों का पक्ष लेता रहा है। इससे समाज में सांप्रदायिक धु्रवीकरण बढ़ता गया। इस ध्रुवीकरण के कारण अब स्वयं मुसलमानों को लगने लगा है कि ममता बनर्जी अपनी सांप्रदायिक राजनीति के द्वारा उनको असुरक्षित करती चली जा रही हैं। बहुत से मुसलमान अब यह मानने लगे हैं कि उनकी सुरक्षा ममता शासन की बजाय भाजपा शासन में अधिक होगी।
ममता बनर्जी की मुस्लिम परस्ती से पश्चिम बंगाल में जो सांप्रदायिक धुव्रीकरण हो रहा है, उसे भांपकर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पूरी ताकत अगले वर्ष होने वाले जिला और ग्राम पंचायत चुनावों की तैयारी के लिए झोंक दी है। पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहले से ही अपने विस्तार में लगा हुआ है। असम में 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के बावजूद पिछले चुनाव में भाजपा को जो सफलता मिली, उसका काफी श्रेय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चुपचाप होते रहे विस्तार को जाता है। पश्चिम बंगाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बढ़ती शक्ति का अनुमान पिछले दिनों राम नवमी पर निकली शोभा यात्राओं से लगाया जा सकता है, जिनमें लोगों की आशातीत भागीदारी देखने को मिली थी। हनुमान जयंती के समय फिर वही दृश्य था। लेकिन भाजपा की तरफ बढ़ रहे इस आकर्षण का नुकसान पहले मार्क्सवादियों और कांग्रेस को होने वाला है। पश्चिम बंगाल में यह धारणा बन रही है कि मुस्लिम परस्ती के मामले में मार्क्सवादी, कांग्रेस और तृणमूल सब एक ही हैं। तृणमूल अपने राजनीतिक माफिया के बल पर अभी अपना जनाधार टिकाए हुए है। शुरुआत में भाजपा विपक्ष के जनाधार को ही समेटने की आशा कर सकती है। लेकिन जैसे-जैसे उसकी शक्ति बढ़ेगी, ममता बनर्जी का जनाधार भी खिसकना शुरू हो जाएगा। क्योंकि पश्चिम बंगाल के बहुसंख्यकों को यह अहसास होता जा रहा है कि उनके साथ न्याय तभी होगा जब भाजपा पश्चिम बंगाल की सत्ता में आएगी। भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल इसलिए भी एक राजनीतिक चुनौती है कि नौ करोड़ आबादी वाले इस राज्य में लोकसभा की 42 सीटें हैं। इनमें पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिली थीं।
त्रिपुरा में पिछले 24 साल से मार्क्सवादियों का शासन है। पिछले 19 वर्ष से त्रिपुरा की मार्क्सवादी सरकार की कमान माणिक सरकार के हाथ में है। उनकी व्यक्तिगत साख अभी भी बनी हुई है। लेकिन उनके लंबे शासन ने लोगों पर उनकी पार्टी की पकड़ ढीली कर दी है। मार्क्सवादियों की हिंसा और आतंक की राजनीति पर निर्भरता ने उन्हें लोगों से दूर कर दिया है। पिछले विधानसभा चुनाव में वामपंथियों को 48 प्रतिशत वोट मिले थे और उन्होंने 49 सीट जीती थीं। कांग्रेस साढ़े छत्तीस प्रतिशत वोट लेकर केवल दस सीटें जीत पाई थी। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की जो स्थिति है, उसका प्रभाव राज्य की राजनीति पर भी पड़ रहा है। कांग्रेस मार्क्सवादियों को चुनौती देने की स्थिति में नहीं रह गई है। पिछले चुनावों में भाजपा को यहां न खास वोट मिले थे न कोई सीट। लेकिन देश के बाकी हिस्सों में जिस तरह उसकी जीत का डंका बज रहा है, त्रिपुरा में भी वह चुनौती देने की स्थिति में आ गई है। भाजपा ने जिस तरह पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में सफलतापूर्वक अपनी सरकारें बना ली हैं, उसका त्रिपुरा पर असर पड़ना स्वाभाविक है। अब त्रिपुरा में यह घोषित करने वाले विश्लेषकों की कमी नहीं है कि अगली सरकार भाजपा की बनने जा रही है। अगर त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम में भाजपा सरकार बना पाती है तो सारा पूर्वोत्तर उनके प्रभाव में चला जाएगा। यह भारतीय जनता पार्टी की असाधारण विजय होगी। क्योंकि इन सीमांत प्रदेशों में कल तक कोई भाजपा शासन की कल्पना भी नहीं कर सकता था।
अगर भारतीय जनता पार्टी पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादियों का जनाधार और त्रिपुरा में मार्क्सवादियों की सरकार लेने में सफल हो जाती है तो इसका असर केरल पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। केरल की स्थिति और राज्यों से अलग है, क्योंकि यहां की जनसंख्या में हिन्दुओं का अनुपात आधे से थोड़ा ही अधिक है। केरल में लगभग 55 प्रतिशत आबादी ही हिन्दू है, 26 प्रतिशत मुस्लिम हैं और 18 प्रतिशत ईसाई। भाजपा अल्पसंख्यकों के एक वर्ग को अपनी तरफ किए बिना सत्ता में नहीं पहुंच सकती। लेकिन राज्य में उसके अब तक बाधित रहे राजनीतिक विस्तार को अब शायद नहीं रोका जा सकता। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे मुश्किल से 10 प्रतिशत वोट मिले थे। लेकिन पिछले दिनों उसके जनाधार में तेजी से वृद्धि हुई है। यहां भी भाजपा के बढ़ने का सबसे अधिक नुकसान मार्क्सवादियों को ही होने वाला है। भाजपा सत्ता तक न भी पहुंचे, पर मार्क्सवादियों के लिए सत्ता तक पहुंचने के रास्ते तो बंद कर ही सकती है। भारतीय राजनीति में मार्क्सवादियों को निष्प्रभावी करने के गहरे परिणाम होंगे। हमारे यहां की राजनीति पर उनका भले सीमांतक प्रभाव रहा हो, बौद्धिक प्रतिष्ठान में उनके अनुयायियों की संख्या आज भी बहुत अधिक है। बौद्धिक जगत में घर किए बैठे इस वामपंथी प्रभाव के कारण ही नक्सल पंथ की जड़ें सिंचती रही हैं। दुर्भाग्य से यह वामपंथी प्रभाव ऐसी निषेधात्मक प्रवृत्तियां पैदा करता रहा है, जो देश और समाज दोनों के लिए घातक है।
दरअसल भाजपा की उत्तर प्रदेश और दिल्ली की विजय ने पूरे विपक्ष को भौचक कर दिया है। इसका प्रभाव मुलायम सिंह और अरविंद केजरीवाल पर ही नहीं दिखाई दे रहा, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी पर भी दिखाई दे रहा है। अब तक आए दिन भाजपा पर हिन्दू सांप्रदायिकता फैलाने के जिस तरह आरोप लगाए जाते थे, उन पर कुछ विराम लगता दिख रहा है। अब केवल सेक्युलर ताकतों को एकजुट करने की ही बात की जा रही रही है। ममता बनर्जी की पिछले दिनों राजनीतिक भाषा अरविंद केजरीवाल से मिलती-जुलती हो चली थी। अब वे अधिक संयत होकर बोल रही हैं। उनकी सत्ता को अभी कोई तात्कालिक खतरा नहीं है। लेकिन मार्क्सवादी और कांग्रेस को अगले वर्ष ही अग्नि परीक्षा देनी है। लगता है पहले मार्क्सवादी जाएंगे, फिर कांग्रेस।