प्रदीप सिंह (प्रधान संपादक)।
पाकिस्तान में दक्षेस के देशों के गृह मंत्रियों के सम्मेलन में भाग लेकर लौटने के बाद केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा कि ‘यह पड़ोसी है कि मानता नहीं।’ उनका यह एक वाक्य का कथन भारत पाकिस्तान के सात दशकों के संबंध को बयां कर देता है। भारतीय नेताओं, प्रधानमंत्रियों की कई पीढ़ियां आर्इं और चली गर्इं। सबने अपनी सामर्थ्य भर पाकिस्तान को मनाने की कोशिश की पर कामयाबी किसी को नहीं मिली। कश्मीर घाटी में जो कुछ हो रहा है उसके लिए पाकिस्तान सीधे तौर पर जिम्मेदार है। यह बात अब दबी छिपी नहीं है। तो सवाल यह नहीं है कि घाटी में आतंकवाद और उपद्रव के लिए पाक जिम्मेदार है या नहीं। सवाल इस बात का है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार ने पिछली सरकारों के अनुभव से कोई सबक लिया या नहीं। केंद्र की हर सरकार पाकिस्तान और कश्मीर घाटी के बारे में फिर से वही ककहरा पढ़ना शुरू कर देती है। प्रधानमंत्री मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी के अनुभव से कोई सबक नहीं सीखा। पाकिस्तान से संबंध सुधारने और कश्मीर घाटी में अमन चैन की बहाली के लिए वाजपेयी जितनी दूर तक गए शायद ही कोई भारतीय प्रधानमंत्री गया हो। पर नतीजे में कोई अंतर नहीं आया।
इतिहास गवाह है कि पाकिस्तान तभी बातचीत के लिए तैयार हुआ है जब वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घिर गया हो या दूसरे संकट में हो। वह बातचीत की हर नई पहल के समय का इस्तेमाल नये हमले की योजना को अमली जामा पहनाने के लिए करता है। 1947 से अब तक वह यही करता आया है और आगे नहीं करेगा इसके कोई संकेत फिलहाल तो नहीं मिल रहे। पाकिस्तान नहीं बदलेगा यह तय मानकर भारत को अपनी नीति बनानी पड़ेगी। आज से करीब चार साल पहले हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया का एक सार्वजनिक बयान आया था कि कश्मीर में हम पाकिस्तान की लड़ाई लड़ रहे हैं। पाकिस्तान ने अगर हमसे समर्थन वापस ले लिया तो यह लड़ाई पाकिस्तान में लड़ी जाएगी। इस एक बयान से पाकिस्तान और उसकी जमीन से सक्रिय आतंकवादी संगठनों का इरादा साफ हो जाता है। पिछले दो सालों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी ओर से पाकिस्तान को मनाने (दोनों देशों के संबंध सुधारने) के लिए कई बार पहल की। भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह उन्हें भी लगा कि लचीले रुख और सदाशयता से बात आगे बढ़ सकती है। भारत के पास पाकिस्तान को समझाने के जितने विकल्प हैं उनमें से सैनिक कार्रवाई के विकल्प को फिलहाल अलग रख कर सोचना चाहिए। इसकी वजह यह है कि पाकिस्तान को भारत से युद्ध हारने में कोई शर्म नहीं है। उसे युद्ध में हार से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता चाहे वह कितनी भी निर्णायक हो। 1971 का युद्ध इसका प्रमाण है। पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए पर उसके रवैए में कोई बदलाव नहीं आया। दरअसल पाकिस्तान अपनी कामयाबी इसी बात में समझता है कि वह भारत से लड़ सकता है। जिस दिन उसे लग जाएगा कि वह भारत से लड़ने की स्थिति में नहीं है, उसके रवैए में बदलाव आ जाएगा।
कश्मीर घाटी में पाकिस्तान की हरकतों और वहां कि स्थिति पर दस अगस्त को राज्यसभा में करीब नौ घंटे की चर्चा हुई। ज्यादातर राजनीतिक दलों के नेताओं ने वही रटी रटाई बातें कहीं। समाजवादी पार्टी के राम गोपाल यादव और केंद्रीय मंत्री जीतेन्द्र सिंह ने कुछ नई बात कही। राम गोपाल यादव ने कहा कि भारत सरकार जम्मू-कश्मीर को दूसरे सभी राज्यों से ज्यादा प्रति व्यक्ति केंद्रीय मदद देती है पर क्या नतीजा निकला। इस मसले पर वे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की बात का एक तरह से समर्थन कर रहे थे। उमर ने कहा था कि कश्मीर की समस्या विकास के अभाव की समस्या नहीं है। यह राजनीतिक समस्या है। पर राम गोपाल यादव ने एक और बात कही। उन्होंने कहा कि ‘जब तक पाकिस्तान को दुरुस्त नहीं किया जाएगा, कुछ नहीं होगा। जहर जिस रास्ते से आता है उसे बंद नहीं करेंगे तो नहीं रुकेगा।’ बात तो ठीक है लेकिन अपनी तरफ के जहर का क्या किया जाय। लश्कर का जो आतंकवादी सुरक्षा बलों ने जिंदा पकड़ा है उस बहादुर अली ने अपने इकबालिया बयान में पाक सेना की भूमिका के अलावा यह भी कहा आसिया आंद्राबी के भाषण के वीडियो दिखाकर उनका दिमाग बदला गया। उन्हीं आसिया आंद्राबी और सैयद अली शाह गिलानी जैसे हुर्रियत कांफ्रेन्स के तत्वों को कुछ लोग कश्मीर का स्टेकहोल्डर बताकर इनसे बातचीत की वकालत कर रहे हैं। सवाल है कि हुर्रियत चाहती क्या है। वह कश्मीरियों के समर्थन का दावा करती है पर चुनाव नहीं लड़ती। उसकी चुनाव बायकॉट की अपील कोई सुनता नहीं फिर भी वह स्टेक होल्डर है। हुर्रियत के नेता आजादी की बात करते हैं। उनकी आजादी का मतलब सेल्फ रूल नहीं है। वह दरअसल भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को नहीं मानते। वे चाहते हैं कि राज्य में सरकार शरियत के मुताबिक चले। फिर भी ऐसे तत्वों से बातचीत की वकालत होती है।
ऐसे ही लोगों की ओर इशारा करते हुए केंद्रीय मंत्री जीतेन्द्र सिंह ने कहा कि ‘कश्मीर के संदर्भ में एक समस्या बौद्धिक आतंकवाद भी है।’ कांग्रेस पार्टी के डा. कर्ण सिंह ने कहा कि ‘कश्मीर को केवल भारत का अंदरूनी मामला बताकर पाकिस्तान से बातचीत को टालना नहीं चाहिए। क्योंकि मूल कश्मीर का आधा हिस्सा तो हमारे पास है ही नहीं। उसे भारत का अंदरूनी मामला बताकर क्या हम यह स्वीकार कर रहे हैं उसे हिस्से को हमने छोड़ दिया।’ उन्होंने कहा कि ‘जब पाकिस्तान कश्मीर में रुचि ले रहा है तो हम गिलगिट, बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में रुचि क्यों नहीं ले रहे?’
पाकिस्तान को समझाना है तो भारत को हर उस मुद्दे को उठाना चाहिए जिससे उसे परेशानी हो। इस सूची में अफगानिस्तान भी आता है। हाल ही में अमेरिका ने कहा है कि भारत अफगानिस्तान को और सैनिक साज-सामान दे। इससे पाकिस्तान तिलमिलाया हुआ है। पाकिस्तानी अखबार द नेशन के मुताबिक पाकिस्तान ने ओबामा प्रशासन को चेतावनी दी है कि पाक पर भारत को तरजीह देने से आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक अभियान को धक्का लगेगा। पाकिस्तान ओबामा सरकार के उप प्रवक्ता मार्क टोनर के इस बयान से भी खफा है जिसमें कहा गया है वह अपने पड़ोसी देश (भारत) में सक्रिय आतंकवादियों के खिलाफ भी कार्रवाई करे। भारत को चाहिए कि पाकिस्तान के खिलाफ ऐसे मसलों पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और बढ़ाए। क्योंकि पाकिस्तान सिर्फ ताकत की भाषा समझता है। कश्मीर में उसका दखल आने वाले समय में बढ़ने ही वाला है कम नहीं होने वाला।
संसद में हुई चर्चा का जवाब देते हुए गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संसद के 1994 के सर्वसम्मत प्रस्ताव का जिक्र किया, जिसमें गया है कि कश्मीर का अधूरा एजेंडा यही है कि पाकिस्तान अपने कब्जे वाले कश्मीर के हिस्से को लौटाए। उन्होंने कहा कि अब पाकिस्तान से उसके कब्जे वाले हिस्से को लौटाने के मुद्दे पर ही बात होगी। दूसरी बात उन्होंने यह कही कि सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होगा। तीसरी बात यह कही कि सरकार कश्मीर के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों और उदारवादी तत्वों से बात के लिए तैयार है। जो बात उन्होंने नहीं कही वह यह कि घाटी में सक्रिय कट्टर अलगावादियों से कोई बात नहीं होगी।
संसद में इतनी लम्बी बहस के बाद भी बहुत से सवाल अनुत्तरित रह गए हैं। प्रधानमंत्री कह रे हैं कि जिन हाथों में लैपटॉप और किताबें होनी चाहिए उनमें पत्थर थमा दिए गए हैं। सवाल है कि जिन लोगों ने यह काम किया है सरकार उनके खिलाफ क्या कर रही है। इसकी जानकारी देशवासियों को दी जानी चाहिए। हाफिज सईद के बयान और खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट से साबित हो गया है कि घाटी में हाल में जो प्रदर्शन हुए उसमें बच्चों और युवकों के पीछे लश्कर के लोग हथगोला लेकर खड़े थे। वही इस पूरे आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। ये आतंकवादी वायरलेस सेट के जरिए पाकिस्तान में अपने आकाओं के लगातार सम्पर्क में हैं। यह सब जानते हुए हमारी सुरक्षा एजेंसियां इन्हें रोकने/ पकड़ने में कामयाब क्यों नहीं हुर्इं। बार बार यह कहा जाता है कि थोड़े से लोग हैं जो पाकिस्तान और लश्कर-ए-तैयबा के बहकावे में आकर इस आंदोलन में शामिल हैं। राज्य सरकार या सत्तारूढ़ राजनीतिक दल पीडीपी और भाजपा इन तत्वों को अलग थलग करने के लिए क्या कर रहे हैं। पाकिस्तान का प्रचार तंत्र घाटी में जितना सक्रिय है उसके मुकाबले भारत बहुत पीछे है।
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि कश्मीर और पाकिस्तान नीति के मोर्चे पर कुछ ऐसा होगा जो इससे पहले नहीं हुआ। हम कब तक संसद में प्रस्ताव पास करके अपने को बहलाते रहेंगे। प्रधानमंत्री ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी के इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत के सिद्धांत पर चलने का इरादा जताया है। कश्मीर से जुड़े और उसे समझने वाले सभी लोग कहते हैं कि घाटी में वाजपेयी के लिए बहुत सम्मान है। उनकी बात पर लोगों ने यकीन किया था। सवाल है कि इस सबके बावजूद हुआ क्या। करगिल के बाद भी वाजपेयी पाकिस्तान गए। उसके तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ का लिखित आश्वासन भी ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया। कश्मीर की समस्या के हल और पाकिस्तान को समझाने के लिए जिस मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है वह हमारे नेताओं ने दिखाई नहीं। नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद थी लेकिन वे भी अभी तक पुरानी लीक पर ही चल रहे हैं।