बढ़ती तकरार खिसकती जमीन

प्रदीप सिंह

उम्मीदों के सैलाब पर सवार होकर आम आदमी पार्टी सत्ता में आई थी। एक नई राजनीति और नये तरीके का शासन चलाने के वायदे के साथ। कहते हैं कि अपने विरोधी से लड़ते लड़ते अक्सर आप उसके जैसे ही हो जाते हैं। आम आदमी पार्टी और उसके नेता अरविंद केजरीवाल के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। आम आदमी पार्टी भी अब बाकी राजनीतिक दलों की जमात में शामिल हो गई है। उसका एक स्थायी राजनीतिक एजेंडा है अपने अलावा सबको दोषी ठहराना। केजरीवाल और उनके साथी सतत एक पीड़ित की मुद्रा में होते हैं। इस उम्मीद में कि इसे शहादत समझा जाएगा। उनके साथ, उनकी पार्टी और सरकार के साथ जो कुछ हो रहा है उसके लिए सिर्फ और सिर्फ प्रधामंत्री नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार हैं। आप नेताओं के बयान सुनकर ऐसा लगता है कि नरेन्द्र मोदी पिछले दस महीने से केजरीवाल और उनके साथियों को परेशान करने के अलावा कोई काम ही नहीं कर रहे।

आम आदमी पार्टी पर जब भी सवाल उठता है वह अपने विरोधी खेमें में एक शिकार तलाशती है और खुद शहीदाना मुद्रा अख्तियार कर लेती है। मकसद यह होता है कि दोनों में से एक तो काम आ ही जाएगा। उसके मंत्री जितेन्द्र सिंह तोमर की फर्जी डिग्री का मुद्दा उठा तो पहले पार्टी ने मोर्चा खोल दिया कि मोदी की पुलिस हमारे मंत्री को झूठे मामले में फंसाने की कोशिश कर रही है। दिल्ली बार काउंसिल ने अपनी रिपोर्ट में फर्जी डिग्री की शिकायत को सही पाया तो कहा गया कि रिपोर्ट ही गलत है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी इसकी तस्दीक कर दी तो कहा गया कि केंद्र सरकार के दबाव में ऐसा बयान दिया जा रहा है। केजरीवाल और उनके साथी रोज प्रेस कांफ्रेंस करके मोदी को गरिया रहे थे। दिल्ली पुलिस की जांच फिर भी नहीं रुकी तो केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की डिग्री का मुद्दा उठाया और कहा कि उन्हें मंत्रिमंडल से हटाया जाय। यह भी कि दिल्ली पुलिस उनकी जांच क्यों नहीं करती। जब अदालत में मामला खुला तो पार्टी ने चुप्पी साध ली। उसके बाद से स्मृति ईरानी की डिग्री के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी ने कुछ कहा हो ऐसा सुना नहीं गया।

वही दृश्य पिछले दिनों फिर दोहाराया गया। बस पात्र बदल गए। तोमर का नाम हटाकर आप राजेन्द्र कुमार का नाम रख दीजिए और स्मृति ईरानी का नाम हटाकर अरुण जेतली का। राजेन्द्र कुमार के दफ्तर पर सीबीआई छापा पड़ा तो केजरीवाल की पहली प्रतिक्रिया थी कि मुख्यमंत्री के दफ्तर पर छापा पड़ा है। इसके लिए केजरीवाल ने प्रधानमंत्री को कायर और मनोरोगी तक कह दिया। संसद में वित्त मंत्री ने स्पष्ट किया कि मुख्यमंत्री के दफ्तर पर नहीं उनके प्रमुख सचिव के दफ्तर पर भ्रष्टाचार के मामले में छापा पड़ा है। फिर कहा गया कि मुख्यमंत्री की फाइलें पढ़ी गर्इं। उसके बाद कहा कि दिल्ली जिला क्रिकेट एसोसिएशन (डीडीसीए) की जांच से संबंधित फाइल सीबीआई ने पढ़ी क्यों कि अरुण जेतली इसमें फंस रहे हैं। कुल मिलाकर कोशिश यह थी कि राजेन्द्र कुमार के बारे में कोई कुछ न पूछे। यह न पूछे कि राजेन्द्र कुमार के खिलाफ वित्तीय अनियमितता की शिकायतें पहले से थीं तो उन्हें प्रमुख सचिव क्यों बनाया। या कि भ्रष्टाचार के आरोपी अफसर को मुख्यमंत्री बचाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं। डीडीसीए में भ्रष्टाचार है तो राजेन्द्र कुमार पाक साफ कैसे साबित हो जाते हैं। केजरीवाल इन सवालों के जवाब या तो देना नहीं चाहते या उनके पास हैं नहीं।

डीडीसीए और अरुण जेतली के खिलाफ अभियान चलाने में उनकी मदद भाजपा सांसद कीर्ति आजाद ने अपने पुराने आरोप दोहराकर कर दी। आजाद कई साल से ऐसे आरोप लगा रहे हैं। उनकी शिकायत पर यूपीए के कार्यकाल में जांच हुई लेकिन अरुण जेतली के खिलाफ कुछ नहीं निकला। फिर केजरीवाल की सरकार ने भी इसकी जांच कराई जिसकी रिपोर्ट पिछले महीने यानी नवम्बर में आई। इसमें भी जेतली का कहीं नाम नहीं है। लेकिन केजरीवाल और उनके साथियों का आरोपों का सिलसिला जारी रहा। नतीजतन अरुण जेतली ने केजरीवाल, आशुतोष, संजय सिंह, आशीष खेतान, दीपक वाजपेयी और राघव चड्ढ़ा के खिलाफ आपराधिक मानहानि का केस पटियाला हाउस कोर्ट और दस करोड़ के हर्जाने का केस दिल्ली हाईकोर्ट में दायर कर दिया। अब अदालत तय करेगी कि केजरीवाल और उनके साथियों के आरोप में कितनी सच्चाई है। इस बीच कीर्ति आजाद को भाजपा ने पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलम्बित कर दिया।

केजरीवाल की केंद्र सरकार से रोज नई रार ठानने की राजनीति के कारण केजरीवाल सरकार का ध्यान सरकार के काम काज से हटता जा रहा है। वे जिस मुद्दे पर फंसने लगते हैं उससे निकलने के लिए दूसरा मुद्दा उछाल देते हैं। लोकपाल के मुद्दे पर आलोचना शुरू हुई तो प्रदूषण कम करने के लिए सम-विषम नम्बर की गाड़ियों का मुद्दा उछाल दिया, इसे लागू करने वाली सम्बद्ध एजेंसियों से कोई सलाह मशविरा किए बगैर। आम आदमी पार्टी का सबसे कट्टर समर्थक वर्ग आॅटोरिक्शा चालकों का था। लेकिन दस महीने में ही उनका सरकार से मोहभंग होने लगा है। कोढ़ में खाज यह कि आॅटोरिक्शा के परमिट बांटने में घोटाला सामने आया है। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की राजनीति की सबसे बड़ी विफलता यह है कि लोगों की नजर में वह भी बाकी राजनीतिक दलों की ही तरह है, उनसे अलग नहीं।

केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की सरकार के पास अभी चार साल हैं। वे बिगड़ी हुई बात को बना सकते हैं। उन पर भरोसा जताने वालों की आज भी कमी नहीं है। सबसे रार ठान कर केजरीवाल और उनके साथी खबरों की सुर्खियों में तो बने रह सकते हैं पर अपने मतदाताओं की अपेक्षा पर खरे नहीं उतर सकते। लेकिन सवाल है कि क्या वे ऐसा करना चाहते हैं। सुधार का पहला कदम है गलती को स्वीकार करना। उसके लक्षण अभी तो दिखाई नहीं दे रहे।

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