विजय माथुर
राजस्थान में इन दिनों अगर भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की तैनाती को लेकर अटकलों और अफवाहों के चक्रवात में घिरी है तो कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है। वसुंधरा सरकार की उखड़ती सांसों ने कांग्रेस में कमान को लेकर प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट में उम्मीदों का बेकाबू उफान पैदा कर दिया है। कई परतों के नीचे दबी सरसराहट सतह पर आई भी तो अशोक गहलोत पर निशाना साधने की फितरत में सने अल्फाज लेकर! उनसे पूछे गए एक प्रतिष्ठित दैनिक के सवाल का लब्बोलुआब था कि ‘‘पिछले दिनों अशोक गहलोत किसे वार्निंग दे रहे थे कि, ‘युवाओं को कतार नहीं तोड़नी चाहिए’?’’ पायलट का जवाब कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना की मानिंद था कि, ‘‘कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुलजी ने दिल्ली अधिवेशन में दीवारें तोड़ने की बात कही थी, ऐसे में कतारों का तो सवाल ही नहीं उठता जब दीवारें ही नहीं होंगी तो कतार कहां से होगी?’’ विश्लेषकों का कहना है कि ‘‘काश पायलट ने मीडिया की सुर्खियों और टीवी फुटेज को भद्र राजनेता की तरह देखा समझा होता? असल में गहलोत ने छोटी लकीर को बड़ा करने के लिए बगल में बड़ी लकीर खींचने की नजीर पेश करते हुए कहा था कि, ‘युवाओं को अपनी कतार में विस्तार बनाए रखना चाहिए’।’’ विश्लेषकों का सीधा सवाल है कि, ‘आखिर सचिन पायलट कौन सी दीवारें गिराने की तरफ इशारा कर रहे हैं? बहरहाल ‘मेरा बूथ, मेरा गौरव’ पर होने वाले कांग्रेसियों के जमावड़े की एन पूर्व संध्या को पायलट की इस बयानबाजी ने ‘राजनीतिक फिजां’ को तो मटमैला कर ही दिया। बेशक चुनावी कमान और मुख्यमंत्री के सवाल पर पायलट मुगालते में नहीं हैं, लेकिन इस बात पर रक्षात्मक होते हुए आस्तीनें चढ़ाने का क्या मतलब है कि ‘‘मैं उन गिने चुने लोगों में हूं, जिसे पार्टी ने बहुत कुछ दिया है…।’’ लेकिन क्या यह कह कर पायलट भविष्य की उम्मीदों का अक्स देख रहे हैं? कहीं यह अपने और गहलोत के बीच संतुलन को नए सिरे से नापने की कोशिश तो नहीं है?
अगर पायलट टकरावों के बोझ तले आकर यह कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें निराश ही होना पड़ेगा। गहलोत अपनी बात इतने चातुर्य के साथ रखते हैं कि सामने वाला आशय और असर दोनों को समझ ले। दिल्ली में सौंपी गई जिम्मेदारी को राजस्थान की राजनीति से दूर किए जाने के भ्रम का निवारण करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैं थांसू दूर कोनी हूं…।’’ समझने के लिए यह एक लाइन ही काफी है। साफ शब्दों में कहें तो गहलोत का कहना था, ‘समझदार के लिए इशारा काफी है और ना समझे वो अनाड़ी है?’ राजस्थान में पायलट को ‘फ्रीहैंड’ देने की चर्चा के बीच गहलोत ने भले ही अपने पत्तों का खुलासा नहीं किया लेकिन इतिहास के वर्के जरूर उलट दिए कि, ‘पांच साल तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महामंत्री बनने से पहले भी दिल्ली में रहा लेकिन राजस्थान का मुख्यमंत्री बनकर लौटा। इस बात की तस्दीक तो सियासी जानकार भी करते हैं कि, ‘राजस्थान कांग्रेस में जब भी नेतृत्व की बात होती है, कार्यकर्ताओं में गहलोत को लेकर जैसा विश्वास और जोश देखा गया, वैसा पायलट के लिए कतई नहीं था। गहलोत की शख्सियत में ऐसा क्या है, जो उन्हें परंपरागत राजनेताओं से अलग करता है? सियासी रणनीतिकारों का कहना है, ‘गहलोत जड़ों से जुड़े हुए और गांव-ढाणियों में रचे-बसे लोगों की आकांक्षाओं के सबसे नुमाया चेहरा हैं। वसुंधरा राजे जब भी आक्रामक रहीं, उनके निशाने पर गहलोत ही थे। उनकी लोकप्रियता को साबित करने के लिए सोमवार तीन मई के दिन उनकी सालगिरह पर बेहिसाब उमड़ती भीड़ थी। भीड़ का जज्बाती नजरिया गहलोत से जुड़ी उम्मीदों पर मुहर तो लगा ही रहा था।’
चुनावी फिजां में मतदाताओं की नब्ज टटोलने के लिए किसी पार्टी प्रमुख का ‘वोट रिझाऊ’ जलसों का आयोजन तो समझ में आता है-लेकिन क्या उनके बयान सूझ-बूझ भरे नहीं होने चाहिए? पायलट के बयानों का तापमान बता रहा है कि वे राहुल गांधी के अंतरंग सखा होने की संजीवनी को लेकर अतीत से कहीं बेहतर भविष्य की उम्मीद संजोकर चल रहे हैं। सिक्के का दूसरा पहलू देखें तो गहलोत का अतीत कहीं ज्यादा चमकदार है। तीन बार प्रदेश अध्यक्ष, दो बार मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रह चुके गहलोत के लिए राजनीतिक रणनीतिकारों का कहना है कि समावेशी राजनीतिक पूंजी की बात करें तो आने वाले पंद्रह सालों में प्रभुत्वपूर्ण राजनीति लेकर उभरने के मामले में कोई दूसरा राजनेता गहलोत का मुकाबला नहीं कर सकता। अगर अनुभव आदमी को दृष्टि देता है तो निश्चित ही पिछले पंद्रह बरसों में पार्टी में कद्दावर पदों पर रहे अशोक गहलोत अब भी उतने ही कद्दावर और दृष्टि सम्पन्न राजनेता हैं और कांग्रेस को पुन: सत्ता में लाने के लिए मुट्ठी बांध चुके हैं। ऐसे में पायलट के महज औपचारिक रूप से कह देने भर से बात सिरे नहीं चढ़ती कि अशोक जी खुद भी राजस्थान से दूर जाना चाहेंगे तो मैं नहीं जाने दूंगा! कचोट तो तब पैदा होती है जब अप्रत्यक्ष फुटेज की तर्ज पर तंज कसे जाते हैं। पाली में जो हुआ, पायलट के पास इस बात का क्या जवाब है कि कांग्रेस के पूर्व सांसद बद्रीलाल जाखड़ के स्नेह सम्मेलन पर पलटवार कर उनके धड़े के नेताओं ने बूथ कार्यकर्ता सम्मेलन में ना सिर्फ दिव्या मदेरणा को बुलाया, बल्कि गहलोत विरोधी नेताओं को मंच मुहैया कराया? राजनीति में प्रतीकों को जुटाना और प्रपंच से परे रहना बड़े कौशल का काम है…पायलट कहां कर पाए यह सब? राजस्थान में निर्णायक जातिगत गणित की बात करें तो अल्पसंख्यकों और दलितों के अलावा जाट और मीणा भी कांगे्रस के परम्परागत वोट हैं, जबकि मीणा और जाटों का तो गुर्जरो से सीधा टकराव रहा है। इसी तरह राजपूत सवर्ण जातियों के अलावा गुर्जर परम्परागत रूप से भाजपा का वोट बैंक माने जाते हैं। प्रश्न है कि नकारात्मक ‘कास्ट फैक्टर’ के मद्देनजर आखिर क्यों कांग्रेस पायलट को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने की संभावनाओं को हवा देगी? कांग्रेस के सूत्रों के अनुसार भले ही फिलहाल राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर प्रदेश अध्यक्ष को लेकर केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के बीच रस्साकशी चल रही हो, लेकिन चुनावी मुकाबला आसान नहीं होगा। क्योंकि सत्ताधारी भाजपा के पास संसाधनों से लेकर चुनाव लड़ने का तंत्र कांग्रेस से फिलहाल बेहतर स्थिति में है। ऐसे में कांग्रेस नेतृत्व का मानना गलत नहीं है कि सत्ता विरोधी रुझान के बावजूद उसे सत्ता में वापसी के लिए जीतने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। सियासी जानकारों का कहना है कि क्या गहलोत को हाशिये पर रख कर यह युद्ध लड़ा जा सकेगा? जबकि रणक्षेत्र में कांग्रेस को मोदी, शाह और वसुंधरा की तीरंदाजी पर पलटवार करना होगा?
प्रसंगवश जब प्रदेश के नेता सचिन पायलट प्रतिस्पर्धात्मक कहानियां बुन रहे हैं, इस झकझोर देने वाले ‘बैक ड्राप’ का क्या मतलब है? जिसमें अंग्रेजी के युवा उपन्यासकार चेतन भगत सचिन पायलट को राहुल गांधी की तुलना में प्रधानमंत्री पद का सर्वश्रेष्ठ विकल्प बता रहे हैं। पायलट की अभिशंसा में चेतन भगत कई पक्षों का बखान करते हैं। इसकी बानगी देखिए, वे युवा हैं, उनके लहजे में स्वाभाविकता है, राजस्थान में उनका समर्थन आधार है और सोशल मीडिया और युवा मतदाताओं में चलने वाला ताजा चेहरा हैं। चेतन भगत राहुल गांधी को भी नसीहत देते नजर आते हैं कि वे चांदी के चम्मच की यूं ही अनदेखी नही कर सकते, यदि वे प्रधानमंत्री पद के लिए पायलट को पूरा समर्थन देते हैं तो उन्हें प्रतिभा का सम्मान देने वाला व्यक्ति समझा जाएगा। राहुल ही वे व्यक्ति होंगे जो जनता को सचिन देंगे, दोनों का साथ कमाल दिखाएगा…। कांग्रेस के लिए 2019 में अवसर की खोज करने वाले चेतन भगत भले ही इस सुझाव से पहले अपनी सफाई देते नजर आते हैं, लेकिन क्या राजेश पायलट का राजनीतिक वृतांत पढ़े बगैर?