सत्यदेव त्रिपाठी।

दादा हमारी गाड़ी साफ करने का काम करता है। सही-सही याद नहीं, पर बीस साल से कम तो नहीं हुआ होगा। यह भी याद नहीं कि उसे क्यों, कैसे और कब ‘दादा’ नाम मिल गया। पर यह सम्बोधन ऐसा बैठ गया है जुबान पर और यूं पैठ गया है मन में कि नाम की दरकार ही न रही। यूं भी वह पहले से ही कम सुनता था, अब तो एकदम ही बहरा हो गया है। सो, बुलाने का सवाल ही पैदा नहीं होता, तो नाम का करेंगे भी क्या! न सुनने का आलम तो यह कि गेट पर खड़ा हो, तो हॉर्न बजाना बेकार, गाड़ी से उतरकर उसे हटाना पड़ता है।
सो, हमारी वह सुनता नहीं, पर हम तो उसकी सुनते हैं और वह गुजराती मराठी दोनों ही इतनी सहजता से बोलता है कि हम आज तक संधान न कर पाये थे कि वह है कहां का? बस, पक्का पता है, तो यह कि चाहे आंधी-तूफान हो, या बाढ़-वर्षा, मुम्बई बन्द हो, चाहे भारत…, वह सुबह 7 बजे के आस-पास हाजिर हो जाएगा, तो ऐसे बहरे और हरदम हाजिर का नाम व घर-बार क्या पूछना! यह सब जानने की जरूरत तो इस लिखने को भी न थी, पर लिखते हुए ‘सब कुछ जान लेने’ के टोटके के तहत उसके कान के पास चिल्ला-चिल्ला के पूछ ही लिया, तो पता लगा कि महाडा के पास मानगांव का रहने वाला वह सावला लक्ष्मण माने है। 1934 की पैदाइश है और पचासों साल से जुहू स्कीम के इसी गुजराती इलाके में गाड़ी धोने के मुख्य काम के साथ घर में साफ-सफाई करते हुए इतनी साफ गुजराती सीख गया है। चलके 15-20 मिनट की दूरी पर इन्दिरा नगर में पत्नी के साथ रहता है। बेटी की शादी कर चुका है। वह मुम्बई के ही गोरेगांव इलाके में रहती है और टाइपिस्ट की नौकरी करती है। बेटे से दुखी है दादा, क्योंकि गांव के पास ही दस हजार की नौकरी करते हुए वह सारे पैसे दारू में उड़ा देता है।
दुबला-पतला तो दादा पहले से ही था, दांतों ने कब साथ छोड़कर पोपला बना दिया, यह जानने-देखने की किसे पड़ी है! आधी बांह की कमीज व हॉफ पैंट पर एक प्लास्टिक की चप्पल… उसका सनातन परिधान है, जिसके सिवा कुछ और की दरकार होने ही नहीं देता मुम्बई का परिवेश। अपने प्रति नितांत बेपरवाह दादा को कन्धे पर स्थायी रूप से पड़े रहने वाले कपड़े के एक टुकड़े की इतनी परवाह रहती है कि गाड़ी के साथ ही आसपास भी कुछ दिखा, तो फटका मार दे। ऐसे लोगों के सर्विस-फंड-पेंशन की व्यवस्था तो हमारे समाज में है नहीं। लेकिन उसके कहे बिना ही बढ़ाते-बढ़ाते 500 रुपये प्रतिमाह की तनख़्वाह इतनी कम है कि काफी उम्र व अति क्षीणकाय दादा को देखकर पिछले दिनों हमें अपनी सहृदयता दिखाने में ज्यादा सोचना न पड़ा। हमने कहा- दादा, अब तुम आराम करो। गाड़ी हम किसी और से धुला लेंगे, पर तुम अपनी पगार (तनख़्वाह) आकर ले जाया करो।
सुनते ही दादा ऐसा बिफरा कि जिस दादा ने कभी आंख उठाकर बात न की थी, हाथ उठा-उठा कर चिड़चिड़ाते हुए न जाने किस अज्ञात सत्ता से गुजराती-मराठी-हिन्दी मिश्रित अपनी खिचड़ी भाषा में पता नहीं क्या-क्या उलाहना देते हुए गेट से बाहर निकल गया। पता नहीं, कहां मर्माहत हुआ- अपनी अशक्तता को सह न सका, बीसों साल के काम के अधिकार को छोड़ न सका! हां, उसे यह जरूर लगा कि बिना काम किये, पैसे देने की बात कहकर हमने सरे आम उसकी बेइज्जती कर दी है। जिस तरह दादा गया, हमें लगा, अब हरगिज न आएगा, लेकिन दूसरी सुबह एक अकड़ जैसे विश्वास के साथ दादा गाड़ी धोते पाया गया- गोया हमें बता देना चाहता हो कि गाड़ी भले तुम्हारी है, पर धोने के लिए यह मेरे सिवा और किसी की नहीं हो सकती। लेकिन उसके सु-भाव को समझते हुए भी हमने एक युवक को बुला दिया, पर दादा ने जाने क्या कहकर उसे भगा दिया। बड़ी हिम्मत-हिकमत व अनुनय-विनय से ही हम आखिर दादा को मना सके।
लेकिन वह आता अब भी रोज है। कम्पाउंड में पड़े खर-पतवार उठा लेता है, बाल्टी का कचरा फेंक आता है। इसके लिए अब उसकी घनघनाती घंटी पर रोज दरवाजा खोलने का हमारा काम बढ़ गया है, वरना बाहर के नल से ही गाड़ी धोकर चला जाता था। आते-जाते आज भी धुली गाड़ी को अपने कन्धे के फटके से पोंछता है। कभी-कभी उस युवक को इस-उस तरह साफ करने की हिदायतें देते भी सुना जाता है।
गरज ये कि हमारी सुबहों का प्रहरी है दादा। जोश मलीहाबादी के लिए भले ‘रसूल न भी जो आते, तो सुबह काफी थी’, पर मुझ जल्दी उठने वाले के लिए दादा के बिना सुबह पूरी नहीं होती। और दादा की सुबह को चाय-नाश्ता देकर कुछ आबाद कर देती है हमारी अन्नपूर्णा उषा (खाना बनाने वाली कहना उसका अपमान है) और उस दौरान इस बधिर दादा से भी उषा की कभी न पूरी होने वाली अनकूत बातों के बाद एक ही रहस्योद्घाटन होता है- ‘ददवा पागल है’।
लेकिन उषा न हो, तो यह पागल ददवा हमारे हाथ की चाय नहीं पीता, इतना आदर करता है। ऐसे में कल्पनाजी (पत्नी) ने एक-दो बार देने की कोशिश की, तो लिया ही नहीं, चला गया। उसूल का पक्का ऐसा कि बगल वालों का कचरा फेंकना इसलिए छोड़ दिया कि उन्होंने कभी अपना प्लास्टिक का थैला न देकर हमारे थैले में ही ले जाने को कह दिया।
हमारे पालतू बीजो (लैब्रे) तो सारी दुनिया के मित्र हैं, पर चीकू (देसी) घर के आसपास आने-जाने वाले हर आदमी को दुश्मन मानती है और खदेड़ती रहती है- किसी को घास नहीं डालती, लेकिन सुबह घूमते हुए सड़क पर भी दादा को दूर कहीं देख लेती है, तो दौड़कर प्यार किये बिना नहीं मानती और दादा इससे कभी गुजराती में चुमकारते हुए- चल चल, अवे थइ गयू, जा घरे…, तो कभी मराठी में लाड़ लड़ाते हुए- अत्ता झाला…चल जा घरी…’ कहकर प्रेम से विदा करता है।
दादा ने इतने दिनों में पगार कभी मांगी नहीं, हिसाब कभी किया नहीं। कभी पैसे मांगे भी, तो कर्ज की तरह, पत्नी ने दिया अगवढ (एडवांस) की तरह और हिसाब रखा पूरा कि कुछ न रह जाए उसका अपने पास। कभी 15 दिन के लिए कहके छुट्टी ली, तो दस दिन में आ गया। हारी-बीमारी लगी, तो किसी न किसी तरह संदेश जरूर भेजा। वापस आने पर दवा के पैसे देने की गरज से ‘कितने लगे’ पूछा, तो जवाब न दिया। हिसाब में अन्दाज से जोड़ के दे दिया, तो उसे पता न चला। न उसने आज तक कोई शिकायत की, न हमने कभी सवाल किए।
आज के युग में बिना काम किये तनख़्वाह क्या, पद के सारे जायज-नाजायज फायदे उठा लेने वाले मुख्य धारा के महनीय लोगों के समक्ष हाशिए पर पड़े इस अदने-से दादा को रोज सुबह मन ही मन सलाम किये बिना रह नहीं पाता।