उमेश चतुर्वेदी

जब पूरा देश शिक्षक दिवस मना रहा था, लोग अपने गुरुओं को याद कर रहे थे, बेंगलुरु के राजराजेश्वरी इलाके में रहने वाली पत्रकार और लंकेश पत्रिका की संपादक गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई। पांच सितंबर को हुई इस हत्या ने भारतीय राजनीति और पत्रकारिता जगत को हिलाकर रख दिया। चूंकि गौरी खुलकर हिंदुत्ववादी विचारधारा का विरोध करती थीं, इसलिए उनकी हत्या के लिए तत्काल हिंदुत्ववादी विचारधारा को जिम्मेदार ठहरा दिया गया। लेकिन ये पंक्तियां लिखे जाने तक हत्या की जांच कर रही विशेष जांच टीम से छनकर जो खबरें आ रही हैं, वे तकरीबन स्वीकृत हो चुके तथ्य के खिलाफ जा रही हैं। कन्नड़ के एक जाने माने टीवी चैनल पब्लिक टीवी की रिपोर्ट इस हत्या के पीछे खूंखार नक्सली विक्रम गौड़ा की तरफ इशारा कर रही है। सूत्रों के हवाले से इस टीवी चैनल ने रिपोर्ट दी है कि इस बहुचर्चित हत्या की जांच कर रही एसटीएफ की टीम विक्रम गौड़ा और उसके पांच साथियों की तलाश कर रही है। इस जांच में नक्सल प्रभावित आंध्र और छत्तीसगढ़ की पुलिस भी सहयोग कर रही है। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक-दोनों ही राज्यों में खूंखार नक्सली विक्रम गौड़ा का दबदबा है। पुलिस को शक है कि विक्रम गौड़ा चिकमंगलुरु के जंगलों में छिपा है। पुलिस को अपने सूत्रों के जानकारी मिली है कि हत्या करने के लिए वह खुद बेंगलुरु आया था। गौरी लंकेश की हत्या में जिस तरह विक्रम गौड़ा का हाथ सामने आ रहा है, उससे सवाल यह उठता है कि दिल्ली के प्रेस क्लब में गौरी लंकेश की श्रद्धांजलि सभा में जिस तरह दिल्ली के वैचारिक रूप से वाम झुकावधारी पत्रकारों ने हिंदुत्ववादी विचारधारा और उसके जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लिया, क्या बाद में उसके लिए वे माफी मांगेंगे।
हिंदुत्ववादी विचारधारा के विरोधी वाममार्गी विचारक और एक्टिविस्ट उसे आधुनिकता विरोधी विचारधारा बताते नहीं थकते। इसलिए गौरी लंकेश की हत्या के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों को जिम्मेदार साबित करने में उन्होंने देर नहीं लगाई और सांस्कृतिक-सामाजिक जगत ने इसे स्वीकार भी कर लिया। लेकिन सवाल यह है कि विक्रम गौड़ा और उसके बहाने अगर पचपन साल की गौरी लंकेश की हत्या में नक्सलवादी ताकतों का हाथ साबित होता है, तो क्या नक्सलवाद की आधुनिकतावादी सोच संदेह के घेरे में नहीं आएगी। सॉफ्टवेयर तकनीक के केंद्र बेंगलुरु को देश के आधुनिक शहरों में सबसे आगे माना जाता है। जहां महिलाएं दिल्ली, मुंबई या चंडीगढ़ की तुलना में कहीं ज्यादा आजादी महसूस करती रही हैं। उस शहर में अगर एक आधुनिक सोच वाली महिला की हत्या कर दी जाती है तो निश्चित तौर पर बेंगलुरु को लेकर बनी अवधारणा पर भी सवाल उठेंगे।
गौरी लंकेश की हत्या के फौरन बाद सांस्कृतिक और पत्रकारीय जगत में उठे गुस्से ने मान लिया कि हिंदुत्ववादी ताकतों ने उनके लेखन के लिए गौरी लंकेश की हत्या कराई है। इस सोच को हवा देने में कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने भी बहुत मदद की। इक्कीस तोपों की सलामी के साथ उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कराकर एक तरह से सिद्धारमैया सरकार ने गौरी लंकेश ही हत्या से गुस्से में आई जमात की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश की। साथ ही उसने इस बहाने अपनी प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक पटखनी देने की कामयाब कोशिश भी की। बेशक बाद के दौर में यह साबित हो जाए कि हत्या के पीछे नक्सली ताकतों का ही हाथ है, लेकिन तब तक जनता के गुस्से का गुबार थम चुका होगा। लोगों के मन में अवधारणा बन चुकी होगी और लोग इसे भूल जाएंगे। वैसे गौरी लंकेश की हत्या के लिए हिंदुत्ववादी ताकतों को जिम्मेदार ठहराने वाली विचारधारा के लोग ऐसे प्रयासों को कुशलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाने के विशेषज्ञ रहे हैं। खबरों के हंगामे के बीच हत्या के तीसरे दिन गौरी लंकेश की बहन कविता और भाई इंद्रजीत लंकेश ने अपनी बहन को इंसाफ दिलाने की मांग करते हुए इशारा कर दिया था कि सार्वजनिक सोच की बजाय हत्यारे कोई और हैं। अब सवाल उठता है कि तमाम क्रांतिकारी लेखन के बावजूद इन दिनों गौरी लंकेश नक्सली निशाने पर क्यों थीं। इसकी वजह यह मानी जा रही है कि नक्सलियों को मुख्यधारा में लाकर वह एक तरह से नक्सलवाद का जो आपराधिक सिरा है, जो फिरौती और वसूली के जरिए मोटी कमाई करता है, उसकी कमर तोड़ रही थीं। इंद्रजीत के मुताबिक पिछले चार सालों में गौरी लंकेश श्रीमाने नागाराजू, नूर जुल्फिकार श्रीधर, कन्या कुमारी, परशुराम, शिबू, चिन्नमा, रिजवान बेगम समेत कई नक्सलियों को मुख्य धारा में ला चुकी थी। पुलिस के मुताबिक अपने अहम साथियों को जाता देख विक्रम गौड़ा गौरी लंकेश से बेहद खफा था। उनसे खूंखार रहे नक्सली आंदोलन को चुनौती मिल रही थी और इससे ही नक्सली नाराज थे।
कर्नाटक में प्रभावी समूह है लिंगायत। इसी समूह के एक परिवार में गौरी लंकेश का जन्म 29 जनवरी 1962 को हुआ था। उनके पिता पी लंकेश कन्नड़ के जाने-माने पत्रकार थे। उन्होंने 1980 में लंकेश नाम से पत्रिका निकाली और देखते ही देखते वह पत्रिका एक लाख की संख्या को पार कर गई थी। लंकेश में विज्ञापन नहीं लिए जाते थे और पाठकों के सहयोग से ही यह पत्रिका चलती थी। गौरी ने अपने पत्रकारीय कैरियर की शुरुआत बेंगलुरु में ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ से की। टाइम्स आॅफ इंडिया के वाशिंगटन संवाददाता चिदानंद राजघट्ट से विवाह के बाद वे दिल्ली आ गर्इं। फिर तलाक के बाद वे बेंगलुरु लौट गर्इं और नौ साल तक ‘संडे’ मैगजीन की संवाददाता रहीं। साल 2000 में जब उनके पिता की हृदयाघात से मृत्यु हो गई तो उन्होंने फिर बेंगलुरु लौटने का फैसला किया। उस वक्त वे दिल्ली में इनाडु के तेलुगू चैनल में कार्यरत थीं। पिता के निधन के बाद भाई इंद्रजीत के साथ गौरी ने ‘लंकेश पत्रिके’ के प्रकाशक मणि से मिलकर उसे बंद करने को कहा। लेकिन मणि ने इससे इनकार कर दिया और प्रकाशन जारी रखने पर जोर दिया। तब गौरी ने लंकेश साप्ताहिक अखबार का संपादन संभाला, जबकि इंद्रजीत व्यवस्था और कारोबार देखने लगे। लेकिन एक साल बाद ही भाई-बहन में विचारधारा को लेकर मतभेद शुरू हो गए। 2005 में मतभेद इतना बढ़ गया कि जब गौरी ने पत्रिका में नक्सलवादियों द्वारा पुलिस पर हमला करने को लेकर रिपोर्ट छापनी चाही तो पत्रिका की छपाई और प्रकाशन का अधिकार रखने वाले उनके भाई ने नक्सल समर्थन का आरोप लगाकर वह रिपोर्ट वापस ले ली। इसी साल 14 फरवरी को उन्होंने गौरी पर दफ्तर से कंप्यूटर, प्रिंटर और स्कैनर चुराने का आरोप लगाया और पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। इसके जवाब में गौरी ने भी इंद्रजीत की बंदूक दिखाकर धमकी देने की शिकायत की। विवाद इतना बढ़ा कि इंद्रजीत ने बहन को नक्सलवादी बताया तो गौरी ने उन पर सामाजिकता विरोधी होने का आरोप लगाया। गौरी का कहना था कि उनका भाई सामाजिक सक्रियता का विरोध करता है। इसके बाद भाई से अलग होकर गौरी ने अपना कन्नड़ साप्ताहिक अखबार ‘गौरी लंकेश पत्रिके’ का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्र में खुद वे संघ परिवार पर जबर्दस्त हमला बोलती थीं। कई बार तो वे संघ परिवार के खिलाफ अतिरेक से भर जाती थीं। केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के खिलाफ जारी हमले को लेकर भी उन्होंने उत्तेजक कार्टून छापे। वे फेसबुक और सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहती थीं। इसलिए जब उनकी हत्या हुई तो एक खास वर्ग की तरफ से उनकी हत्या को नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम एम कलबुर्गी की हत्या की अगली कड़ी बताने की पुरजोर कोशिश हुई।
चूंकि गौरी लंकेश दुस्साहस की हद तक निडर थीं, इसलिए उनकी आवाज को चुप कराने की कोशिशें भी हुईं। उन्हें सात गोलियां मारने वाला शख्स पहला नहीं था, जिसने उनकी आवाज रोकने की कोशिश की। कर्नाटक से भारतीय जनता पार्टी के सांसद प्रह्लाद जोशी ने उनके खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा किया था, जिसमें निचली अदालत से गौरी को छह महीने की सजा सुनाई गई थी। इसके साथ ही अदालत ने उन्हें बड़ी अदालत में अपील करने के लिए मोहलत देते हुए जमानत भी दे दी थी। उनकी हत्या के बाद इस मुकदमे को भी जमकर प्रचारित किया गया और हत्या से उसकी कड़ी जोड़ने की कोशिश की गई। हालांकि इस सवाल का जवाब अनुत्तरित ही रहा कि अदालत से सजा दिलाने में कामयाब रहा राजनेता आखिर हत्या क्यों कराएगा। पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या की जितनी भी निंदा की जाय कम ही होगी। लेकिन जिस तरह से सोशल मीडिया पर एकतरफा ढंग से फैसला सुनाया जा रहा है, उसे भी उचित नहीं माना जा सकता। प्रगतिवाद की पैरोकारी में कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार पर सवाल नहीं उठे। इस घटना ने दो साल पहले उत्तर प्रदेश के बरेली में हुई पत्रकार जगेंद्र की हत्या और बिहार के सीवान में राजदेव रंजन की हुई हत्या की याद दिला दी। जिसमें स्थानीय सरकारों पर सवाल नहीं उठाया गया। गौरी लंकेश की हत्या के लिए निशाने पर कर्नाटक की राज्य सरकार नहीं रही जबकि संविधान के मुताबिक कानून और व्यवस्था का मसला राज्यों का है और निश्चित तौर पर ये हत्याएं राज्य सरकार की विफलताएं भी हैं। गौरी लंकेश की हत्या की निंदा करते हुए इस नजरिए से भी सोचने की जरूरत है।