सतीश सिंह
मौजूदा समय में अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए सरकारी बैंकों में आमूलचूल परिवर्तन की दरकार है। समस्या की गंभीरता को देखते हुए सरकार ने पुनर्पूंजीकरण के लिए बैंकों को 2.11 लाख करोड़ रुपये देने की योजना बनाई है। अर्थव्यवस्था में तेजी लाने, विकास दर को बढ़ाने और रोजगार सृजन में बढ़ोतरी के लिए बैंकों को मजबूत करना जरूरी है। सरकार के प्रस्तावित सुधारात्मक घोषणा को बाजार ने भी सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। सरकार के इस कदम को जीएसटी के बाद सबसे अहम सुधार माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे वित्त वर्ष 2019 में जीडीपी वृद्धि दर में बेहतरी आएगी और फंसे हुए कर्ज और अनुत्पादक परिसंपत्तियों की समस्या लगभग समाप्त हो जाएगी। बैंक बेसल तृतीय के विविध मानकों को आसानी से पूरा कर सकेंगे। साथ ही आने वाले दिनों में भी बैंक सुधारात्मक कार्यों को जारी रख सकेंगे।

प्रस्तावित पुनर्पूंजीकरण की व्यवस्था को तीन हिस्सों में बांटा गया है। कुल राशि में से 18,000 करोड़ रुपये बजट से दिए जाएंगे जबकि 58,000 करोड़ रुपये बाजार से इक्विटी के रूप में जुटाए जाएंगे और 1.35 लाख करोड़ रुपये बॉन्ड के रूप में उपलब्ध कराए जाएंगे। इस प्रक्रिया को दो सालों में पूरा किया जाएगा लेकिन अधिकांश पूंजी अगली चार तिमाहियों में बैंकों को दी जाएगी। जानकारों के मुताबिक वृहद आर्थिक स्थिति पर सरकार के इस कदम का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के अनुसार पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड से सरकारी खजाने पर 9,000 करोड़ रुपये ब्याज का बोझ पड़ेगा। जाहिर है सरकार के इस कदम से मुद्रास्फीति पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। सुब्रमण्यम के मुताबिक बॉन्ड से राजकोषीय घाटा बढ़ेगा या नहीं यह अपनाई गई लेखा विधि पर निर्भर करेगा। अंतरराष्ट्रीय लेखा मानक के तहत इस तरह के बॉन्ड से राजकोषीय घाटा नहीं बढ़ता है क्योंकि यह उसके दायरे में नहीं आता है लेकिन लेखा की भारतीय प्रणाली को अपनाने से इस बॉन्ड से राजकोषीय घाटे में बढ़ोतरी हो सकती है।

कहा जा रहा है कि सरकार इस संबंध में अंतरराष्ट्रीय लेखा मानक की पद्धति को अपना सकती है। देखा जाए तो लंबी अवधि में वृहद अर्थव्यवस्था पर इसका एक ही नकारात्मक प्रभाव, सरकारी कर्ज में इजाफे के रूप में पड़ेगा, लेकिन इससे रेटिंग एजेंसियों के रुख पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा। सरकार 1.35 लाख करोड़ रुपये के बैंक पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड की पहली किस्त दिसंबर के पहले हफ्ते जारी कर सकती है। 10 साल की अवधि के बॉन्ड में दूसरी सरकारी प्रतिभूतियों के अनुरूप तकरीबन सात फीसद ब्याज दी जा सकती है। अलग-अलग किस्तों की परिपक्वता अवधि अलग-अलग हो सकती है। बॉन्डों को जारी करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए सरकार बैंकों एवं भारतीय रिजर्व बैंक के साथ बातचीत कर रही है। फिलहाल यह तय नहीं हुआ है कि पहली किस्त में कुल कितनी राशि के बॉन्ड जारी किए जाएंगे या फिर किन बैंकों को बॉन्ड जारी किए जाएंगे। माना जा रहा है कि कमजोर बैंकों को प्रावधानों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पूंजी मिलेगी जबकि मजबूत बैंकों को उनके विकास के लिए भी पूंजी दी जाएगी।

सरकार 1990 के दशक के मध्य में जारी किए गए बैंक पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड की तरह ही बॉन्ड जारी करना चाहती है। ये जीरो कूपन बॉन्ड नहीं होंगे। तब 20,000 करोड़ रुपये के पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड जारी किए गए थे। 1990 के दशक के मध्य में जारी किए गए बॉन्ड को बैंकों को परिपक्व होने तक अपने पास रखना था और 2007 के बाद ही द्वितीयक या शेयर बाजार में उनके कारोबार की अनुमति दी गई। नये पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड भी शुरूआत में इसी तरह के हो सकते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि सरकार खुद ये बॉन्ड जारी करेगी और इनके बदले बैंक के शेयरों को रखने के लिए होल्डिंग कंपनी नहीं बनाई जाएगी।

बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए सरकार ने केंद्रीय बैंक से विशेष लाभांश मांगा है। इस मुद्दे पर सरकार की रिजर्व बैंक के साथ बातचीत चल रही है। अगर बातचीत सफल होती है तो यह लाभांश 30 जून, 2018 को खत्म होने वाले केंद्रीय बैंक के वित्त वर्ष 2017-18 का हिस्सा होगा। रिजर्व बैंक ने वित्त वर्ष 2016-17 के लिए 30,659 करोड़ रुपये का अधिशेष सरकार को स्थानांतरित किया था जबकि वित्त वर्ष 2015-16 में यह राशि 65,876 करोड़ रुपये थी। वित्त वर्ष 2017-18 के बजट में सरकार ने रिजर्व बैंक और दूसरे राष्ट्रीयकृत बैंकों से 74,901 करोड़ रुपये लाभांश के तौर पर मिलने का अनुमान लगाया है। आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष गर्ग के मुताबिक, इस लाभांश में रिजर्व बैंक की हिस्सेदारी 58,000 करोड़ रुपये हो सकती है। उनके अनुसार रिजर्व बैंक के पास पिछले वित्त वर्ष की अपेक्षा इस बार प्रावधान के लिए करीब 14,000 करोड़ रुपये ज्यादा हैं। माना जा रहा है कि इसमें से कुछ राशि सरकार ले सकती है लेकिन यह राशि विशेष लाभांश से अलग होगी।

पुनर्पूंजीकरण की प्रक्रिया में किस बैंक को कितनी पूंजी मिलेगी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस बैंक ने फंसी परिसंपत्तियों (एनपीए) की समस्या से निपटने के लिए क्या कदम उठाए हैं। इस क्रम में दिवालिया कानून के तहत भेजे गए मामलों की क्या स्थिति है और दिवालिया कानून के प्रावधान कितने कारगर साबित हो रहे हैं पर भी विचार किया जाएगा। पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड की कुल राशि को दो हिस्सों में बांटा जाएगा जिसमें एक हिस्सा प्रावधान के लिए होगा और दूसरा हिस्सा विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए। वित्तीय सेवा विभाग के सचिव राजीव कुमार ने साफ तौर पर कहा है कि पुनर्पूंजीकरण की प्रक्रिया बिना शर्त नहीं होगी। इस योजना का लाभ लेने के लिए बैंकों को अपने प्रदर्शन सुधारने होंगे। बैंकों को पहले अपने फंसे कर्ज का कुछ हिस्सा बट्टे खाते में डालकर अपने बहीखाते को साफ-सुथरा करना होगा।

सवाल यह भी उठ रहा है कि सरकार के इस कदम से निजी बैंकों और गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों (एनबीएफसी) पर क्या असर पड़ेगा। माना जा रहा है कि इस सरकारी मदद के बाद भी शीर्ष तीन सरकारी बैंकों के अलावा शेष बैंक केवल 6 से 8 प्रतिशत आरओई (इक्विटी पर प्रतिफल) हासिल कर सकेंगे। वे कर्ज वृद्घि में बहुत तेजी नहीं ला पाएंगे। कर्ज के मामले में पहले की तरह बड़े सरकारी बैंक बड़े एवं मझोले आकार के कॉरपोरेट कर्ज पर ही ध्यान केंद्रित करेंगे। हालांकि इस क्षेत्र में गलाकाट प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ शुद्घ ब्याज मार्जिन बहुत ही कम है। साथ ही इस क्षेत्र को दिए जा रहे कर्ज के फंसने की प्रबल संभावना है जबकि असुरक्षित खुदरा कर्ज, सूक्ष्म वित्त, सस्ते आवास, सूक्ष्म और छोटे मझोले उद्यम आदि क्षेत्रों में निजी क्षेत्र का ध्यान बना रहेगा। इस कारण उनके क्रेडिट विकास की अपार संभावनाएं बनी रहेंगी और उनके कर्ज के फंसने की भी संभावना कम रहेगी। वर्तमान परिवेश में सरकारी बैंकों को भी चाहिए कि वे निजी क्षेत्र की तरह ऊर्जा, बुनियादी क्षेत्र और बड़ी परियोजनाओं को कर्ज देने की बजाय खुदरा कर्ज बाजार पर ध्यान केंद्रित करें।

सरकारी बैंकों में फंसे हुए कर्ज की समस्या दिन-प्रतिदिन गहराती ही जा रही है। चालू वित्त वर्ष के सितंबर तिमाही में 38 सूचीबद्ध बैंकों के समग्र फंसे हुए कर्ज में 1.32% की बढ़ोतरी हुई जो राशि में 8.40 खरब रुपये है। इसमें सरकारी बैंकों का हिस्सा 7.34 खरब रुपये है। सरकार अभी भी सरकारी बैंकों में अपनी हिस्सेदारी को कम नहीं करना चाहती है क्योंकि ऐसा करने से उसके लिए सामाजिक सरोकारों को पूरा करना संभव नहीं हो सकेगा। बहरहाल, सरकार के ताजा कदम से अर्थव्यवस्था में मजबूती, कीमतों में स्थिरता, रोजगार सृजन में तेजी, विकास दर आदि में इजाफा हो सकता है। साथ ही इससे बैंक पूंजी पर्याप्तता अनुपात, बेसल तृतीय के विविध मानकों और जोखिम के मानकों को पूरा करने में समर्थ हो सकेंगे। सच कहा जाए तो आज बैंकों में आमूलचूल सुधार लाने की जरूरत है। सबसे महत्वपूर्ण सुधार मानव संसाधन और संचालन सुधार से संबंधित हैं। क्या सरकारी बैंकों में प्रदर्शन को बेहतर करने के लिए विशिष्ट कौशल वाले पेशवरों को लाना चाहिए? क्या निर्णय प्रक्रिया में बाहरी हस्तक्षेप को खत्म करने की जरूरत है? बैंकों के बोर्ड या वरिष्ठ प्रबंधन को क्या और ज्यादा स्वायत्तता दी जानी चाहिए आदि ऐसे सवाल हैं जिनके ठोस जवाब सरकार को ही खोजने होंगे। सरकारी बैंकों को बार-बार पूंजी उपलब्ध कराना समस्या का समाधान नहीं है। सरकार बैंकिंग क्षेत्र में प्रभावशाली सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है लेकिन इस दिशा में निजीकरण को रामबाण नहीं माना जा सकता है। आज कमोबेश निजी क्षेत्र के सभी बैंक फंसे हुए कर्ज से परेशान हैं। सुधारों के जरिये सरकारी बैंकों के प्रदर्शन को निश्चित रूप से बेहतर किया जा सकता है।