प्रदीप सिंह।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही राजनीतिक दलों में कहीं मेल मिलाप तो कहीं टूट फूट की प्रक्रिया शुरू हो गई है। अब मामला जनता की अदालत में है। पार्टियों, नेताओं के दावे प्रति दावे को मतदाता परखेगा और अपना फैसला सुनाएगा। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के नाते उत्तर प्रदेश पर सबकी निगाहें हैं। पर पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर के चुनाव नतीजों की अहमियत कम नहीं होगी। तीन राष्ट्रीय पार्टियां और आधा दर्जन से ज्यादा क्षेत्रीय दल मैदान में हैं। उत्तर प्रदेश इसलिए भी चर्चा में है कि वहां सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी-परिवार में तुम्हीं से मुहब्बत तुम्हीं से लड़ाई का खेल यह खबर लिखे जाने तक जारी था। ताजा खबर यह है कि मुलायम सिंह यादव (उनका पद लिखना मुश्किल है, क्योंकि उनके मुताबिक वही पार्टी अध्यक्ष हैं और बेटा उन्हें हटा चुका है) ने पार्टी विभाजन का ठीकरा अखिलेश यादव और राम गोपाल यादव के सिर फोड़ दिया है। उन्होंने कहा है, ‘मैं समाजवादी पार्टी हूं।’ पंजाब में आम आदमी पार्टी ने राज्य में दो पार्टी की व्यवस्था तोड़कर संघर्ष को तिकोना बना दिया है। यही हालत गोवा और मणिपुर में भी है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव यों तो हर बार ही अहम होता है पर इस बार इसकी अहमियत कई कारणों से बढ़ गई है। एक नोटबंदी के बाद यह पहला बड़ा चुनाव है। लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी को मिला अपार समर्थन कितना बचा है और कितना खर्च हो गया इसका इम्तिहान है। यह चुनाव राहुल गांधी के अध्यक्ष पद के बीच खड़ा है। नतीजे तय करेंगे कि वे विजयी योद्धा की तरह पार्टी अध्यक्ष बनेंगे या हारे हुए खिलाड़ी की तरह। बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती के लिए यह चुनाव राजनीतिक जीवन मरण का प्रश्न है। एक और हार उनके नेतृत्व और पार्टी के अस्तित्व के लिए खतरा बन सकती है। समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह अपने पुत्र और चचेरे भाई के हाथों लहूलुहान हैं। पार्टी बेटा ले गया और उनके पास पुरानी यादें और कुछ पुराने नेता बचे हैं। अब उनके पास न तो क्षमता है और न ही समय। अखिलेश यादव को चुनाव में अपने विरोधियों के ही नहीं पिता के सवालों का भी जवाब देना पड़ेगा। जवाब तो उनसे राहुल गांधी और कांग्रेस के साथ गठबंधन ( जिसकी पूरी संभावना है) के मुद्दे पर भी मांगा जाएगा। समाजवादी पार्टी पहली बार कांग्रेस से गठबंधन करके चुनाव लड़ सकती है।

पंजाब में चुनाव सबसे दिलचस्प हो गया है। आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाद पंजाब पहुंची है तो साथ में अरविंद केजरीवाल के भी जाने (मुख्यमंत्री का दावेदार बनने) की चर्चा है। पार्टी का एक नेता सूबे के मतदाताओं से कह रहा है कि यह समझकर वोट दीजिए कि केजरीवाल ही मुख्यमंत्री होंगे। दूसरे कह रहे हैं कि केजरीवाल दिल्ली से भागेंगे नहीं। हिंदी फिल्म का गाना है होठों में ऐसी बात मैं दबा के चली आई, खुल जाए वही बात तो दुहाई है दुहाई। मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के मसले में आम आदमी पार्टी की यही हालत है। भाजपा से निकल कर आम आदमी पार्टी का दरवाजा खटखटाने के बाद नवजोत सिंह सिद्धू पंजाब में अब कांग्रेस की नैया पार लगाएंगे। कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के अघोषित उम्मीदवार कैप्टन अमरिंदर सिंह राज्य की जनता से आखिरी मौका मांग रहे हैं। सत्तारूढ़ अकाली दल दस साल के शासन की अलोकप्रियता के बोझ को उतारने की कोशिश कर रहा है। अकाली-भाजपा और कांग्रेस के लिए केजरीवाल साझा दुश्मन हैं। दोनों नहीं चाहते कि वह जीतें। हालांकि दोनों के कारण अलग अलग हैं।

उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा के बीच अंतर करना इतना मुश्किल कभी नहीं रहा है। आधे कांग्रेसी नेता भाजपा का झंडा थामे खड़े हैं तो कांग्रेस में भी चुनाव तक भाजपाइयों की संख्या कम नहीं होगी। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का दौर तो काफी पहले खत्म हो गया था। अब नेता के प्रति वफादारी का चलन भी अंतिम सांस ले रहा है। मुख्यमंत्री हरीश रावत भाजपा और अपनी पार्टी दोनों से एक साथ लड़ रहे हैं। भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्रियों का मेला है। पार्टी विज्ञापन दे सकती है- मुख्यमंत्री ही मुख्यमंत्री मिल तो लें। इन पूर्व मुख्यमंत्रियों से लोग मिलें न मिलें भाजपा के राष्ट्रीय नेता इनसे मिलने से कतरा रहे हैं। देखना यह है कि मतदाता किससे किनारा करता है।

गोवा है तो एक छोटा सा राज्य लेकिन कांग्रेस और भाजपा के लिए प्रतिष्ठा की लड़ाई है। पांच साल तक भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी के बाद राज्य की महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी ने गठबंधन तोड़कर अलग चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। राज्य में भाजपा के सबसे लोकप्रिय नेता मनोहर पर्रिकर पर अब देश की रक्षा का भार है। उनकी अनुपस्थिति का पार्टी पर कितना असर हुआ है या दिल्ली रहकर वे गोवा में कितने प्रभावी हैं यह चुनाव नतीजे बताएंगे। गोवा में संघ के प्रमुख सुभाष वेलिंकर ने अपनी पार्टी बना ली है। उनका एकमात्र उद्देश्य भाजपा को हराना है। अरविंद केजरीवाल की पार्टी भी मैदान में है। वह किसे हराएगी यह भी तय होना है।

मणिपुर वैसे तो पूर्वोत्तर के उन राज्यों में है जहां राजनीतिक स्थिरता लम्बे समय से है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री ईबोबी सिंह पंद्रह साल से मुख्यमंत्री हैं। इस बार उनकी कुर्सी के लिए तीन खतरे हैं। पहला खतरा नगा उग्रवादी संगठन एनएससीएन है। जिसे लगता है कि ईबोबी सिंह के रहते ग्रेटर नगालैंड का उनका सपना पूरा नहीं होगा। राज्य में पिछले कुछ महीने से चल रही अशांति का यह सबसे बड़ा कारण है। उनके लिए दूसरा खतरा भाजपा बन रही है। अरुणाचल और असम के बाद पार्टी की नजर मणिपुर पर है। स्थानीय निकाय के चुनावों में उसे खासी सफलता मिली है। ईबोबी सिंह और कांग्रेस के लिए तीसरा खतरा ईरोम शर्मिला हैं। उन्होंने अपना बरसों पुराना अनशन तोड़कर राजनीतिक दल बना लिया और चुनाव मैदान में उतर रही हैं।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे उन सूबों की राजनीति ही तय नहीं करेंगे। इसका असर देश की राजनीति पर भी पड़ेगा। ये नतीजे जुलाई में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव को भी प्रभावित करेंगे। इनका विश्लेषण नोटबंदी के समर्थन या विरोध के रूप में भी किया जाएगा। चुनाव नतीजे यह भी तय करेंगे कि अरविंद केजरीवाल की दिल्ली के बाहर कोई अपील है या नहीं। यह भी कि राहुल गांधी के बारे में मतदाताओं की राय बदली है या नहीं। उत्तर प्रदेश के नतीजे प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का भी इम्तहान होंगे।