अमीश।
कुछ लोगों को यह आश्चर्यजनक लग सकता है, मगर भगवान शिव को लेकर तटस्थ और निष्पक्ष रह पाना मुझे बहुत ही मुश्किल लगता है। उन्हें लेकर मैं बहुत भावुक हूं। मैं, जैसा कि कुछ लोग कह सकते हैं, भगवान शिव का परम भक्त हूं। इसलिए जब मेरे सामने यह सवाल रखा जाता है-
क्या शिव का अस्तित्व था- तो मेरा जवाब फौरी और एकदम साफ होता है: बेशक था। और भगवान शिव आज भी जीवित हैं, वे मेरे हृदय में रहते हैं और वे हर शिव उपासक के हृदय में रहते हैं। लेकिन यह भावुक, ज्यादा से ज्यादा भक्तिभाव भरा तर्क है! यह बौद्धिक नहीं है। और बुद्धिजीवियों की सभा हो या बौद्धिक लोगों को जवाब देना हो, तो मैं अपने दिमाग़्ा की वर्जिश करता हूं और एक वैकल्पिक, बौद्धिक तर्क पेश करने की कोशिश करता हूं।
शुरू में मैंने भगवान शिव के अस्तित्व के बारे में जो कहा था, वह शायद प्रेम और भक्ति की अभिव्यक्ति है! भक्ति योग का मार्ग। अब मैं बुद्धि के, ज्ञान योग के मार्ग पर चलने की कोशिश करता हूं।
यह चर्चा शुरू करने से पहले कि भगवान शिव विद्यमान हैं या नहीं, हम स्वयं धर्म के उद्देश्य पर चर्चा करते हैं। इसकी क्या भूमिका है? यह किसी न किसी रूप में लगभग सभी संस्कृतियों में विद्यमान है। इससे भी महत्वपूर्ण, यह इतनी निरंतरता से क्यों कायम रहा है? नास्तिकों का मानना है कि धर्म एक ऐसा अस्त्र है जिसे संभ्रांत लोग आम लोगों को नियंत्रित करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। मार्क्सवादी मुखरता से समर्थन करते हैं, ‘धर्म आम लोगों के लिए अफीम है।’ सच कहूं तो मुझे यह दावा विडंबना और नादानी भरा लगता है क्योंकि मार्क्सवाद स्वयं अक्सर किसी धर्म की भांति व्यवहार करता है। इसके अनुयायी अपनी राय बनाने के लिए बौद्धिक श्रम पर सिद्वांतों को तरजीह देते हैं।
आस्तिकों के धार्मिक मत का अपना सिद्धांत है। वे आपसे कहते हैं कि एक नैतिक समाज बनाने के लिए धर्म एक संगठित प्रयास है! ऐसे अध्ययन हुए हैं (मुझे कहना होगा) जो इस दावे की पुष्टि करते हैं, मसलन, आॅस्टिन विश्वविद्यालय में किया गया व्यवहार संबंधी अध्ययन। लेकिन इस तर्क के साथ भी समस्याएं हैं। मसलन, वीभत्स अपराधों को अंजाम देने के लिए एक महान धर्म इस्लाम के नैतिक ढांचे को पाकिस्तान जैसे असुरक्षा से त्रस्त देश ने तोड़-मरोड़ दिया।
और इस्लाम ही अकेला धर्म नहीं है जिसका कुछ लोगों ने नफरत और हिंसा फैलाने के लिए इस तरह ग़्ालत इस्तेमाल किया है। ऐसा हरेक धर्म में हुआ है, अगर वर्तमान में नहीं तो निश्चय ही अतीत में किसी समय, फिर चाहे वह हिंदू धर्म हो, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म, यहूदी धर्म या कोई और। इसके अनुभवसिद्ध प्रमाण हैं कि इतिहास में किसी न किसी वक्त नफरत और भेदभाव फैलाने के लिए उनका ग़्ालत इस्तेमाल किया गया है।
तो यह हमें कहां लाता है? धर्म का उद्देश्य क्या है? क्या मैं एक नजर यह देखने की राय दे सकता हूं कि प्राचीन भारतीय धर्म को किस तरह लेते थे। कठोपनिषद् दार्शनिक बुद्धि वाले एक बालक नचिकेता और मृत्युदेव यमराज के बीच संवाद के रूप में है। दिलचस्प ढंग से, यमराज धर्म के देवता भी हैं। वास्तव में, अनेक प्राचीन धर्मों में मृत्यु और धर्म साथ-साथ चलते थे। कठोपनिषद् पर वापस आते हैं, नचिकेता और यमराज के बीच संवाद इतना गूढ़ और सारगर्भित है कि इसे समझ पाने में पूरा जीवन लग सकता है। अफसोस, पाठकों को यहां बताने के लिए मुझे पूरी जिंदगी नहीं मिली है, और मैं खुद को उस संवाद के एक अंश तक सीमित रखूंगा। कहा जाता है कि संवाद के अंत की ओर पहुंचने पर यमराज से गूढ़तम ज्ञान प्राप्त करने के बाद, नचिकेता अपनी इच्छाओं और ‘मृत्यु’ से मुक्त हो गया था। उसने ईश्वर को जान लिया था, और ऐसा उन सबके साथ होगा जो ईश्वर को जानते हैं! क्योंकि यह स्व को लक्षित करता है।
एक पल के लिए इस विचार का आकलन करें। ईश्वर स्व को लक्षित करता है। प्राचीन काल में धर्म का यही उद्देश्य था। इसे हर इंसान की चेतना को उभारना और उसे अपने भीतर के देवत्व के संपर्क में लाना था। क्या यह दार्शनिक विश्वदर्शन विलक्षण रूप से भारतीय या हिंदू था? वास्तव में नहीं! यह पूरे प्राचीन विश्व में व्याप्त था। रसातल के देवता आॅसिरिस और सत्य एवं इंसाफ की देवी मात की मिस्र देश की पौराणिक कथाएं गूढ़ अर्थ से भरी हैं। प्राचीन मिस्रवासी मानते थे कि जीवन के दौरान अपनी पूरी सामर्थ्य को प्राप्त करके एक अर्थपूर्ण मृत्यु को पाने की तैयारी करना जीवन का उद्देश्य है। जब यह हासिल कर लिया जाता है, तो व्यक्ति अमर होकर देवताओं के बीच वास करता है। प्राचीन भूमध्यसागरीय तट रहस्यवादी संप्रदायों से भरा पड़ा था, जिनमें से एक को उत्कृष्ट गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस ने आरंभ किया था। पायथागोरस की सबसे बड़ी देन पायथागोरस प्रमेय (वैसे यह प्रमेय पहले ही ऋषि बौद्धयान खोज चुके थे) नहीं थी! यह दरअसल उनका रहस्यवादी संप्रदाय था। वे माइक्रोकॉस्मोस, मेसोकॉस्मोस और मैक्रोकॉस्मोस की अवधारणा में विश्वास करते थे। माइक्रोकॉस्मोस मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता था। मैक्रोकॉस्मोस संपूर्ण ब्रह्मांड और देवत्व था। मेसोकॉस्मोस समाज था, और इसका उद्देश्य माइक्रोकॉस्मोस की चेतना को उभारना और उसे मैक्रोकॉस्मोस के साथ एकीकृत करना था। साधारण शब्दों में, समाज का उद्देश्य मनुष्य को अपने देवत्व के संपर्क में लाना था। यह परिचित सा लगता है, है न?
मूल में एकता की अवधारणा है कि परमात्मा और जीवात्मा एक हैं। प्लूटो ने संक्षेप में निर्देश दिया: स्वयं को जानो। श्री अरविंद ने कहा था कि उपनिषदों की सबसे बड़ी सीख है आत्मानं विद्धि , अपने वास्तविक स्व को जानो और मुक्त हो जाओ। अगर हम इसे धर्म का वास्तविक उद्देश्य मानने पर सहमत होते हैं, तो ईश्वर का क्या उद्देश्य है? डिलन थॉमस के प्रति क्षमायाचना के साथ, क्या ईश्वर इतनी ऊंचाई पर स्थित है कि हम उस तक पहुंचने की आकांक्षा तक नहीं कर सकते? या ईश्वर एक आदर्श रूप है जो हमारे बीच रहता है और जो अपने उदाहरण से हमें शिक्षा देता है कि हम क्या बनने में सक्षम हैं। एक और डिलन था जो हैरान होता था : इंसान कितनी बार अपने सिर को घुमा सकता है और दिखावा कर सकता है कि वह नहीं देख रहा है? उत्तर- मेरे मित्र, हवा में व्याप्त है।
ईश्वर आदर्श रूप है, वह हमारे बीच विचरण करता है, कभी जीसस क्राइस्ट और ईसाई त्रिदेव के रूप में, तो कभी गौतम बुद्ध के, और कभी भगवान कृष्ण, भगवान राम, देवी दुर्गा और हां, मेरे प्रभु भगवान शिव के रूप में। और उनके कर्म इतने भव्य हैं कि वे अभी तक विद्यमान हैं। वे मेरे हृदय में रहते हैं और हरेक शिव पूजक के हृदय में रहते हैं।