राजीव थपलियाल

उत्तराखंड कैबिनेट में सब ठीक नहीं चल रहा है। डबल इंजन सरकार के डिब्बे असंतुलित नजर आ रहे हैं। थोड़ी खड़खड़ाहट भी है। प्रचंड बहुमत पाने के बाद भाजपाइयों में शुरू के कुछ हल्के मतभेदों के उभरने के बाद जब त्रिवेंद्र रावत को सरकार की कमान सौंपी गई तो यही लगा कि अब पार्टी के आंतरिक संघर्ष ने विराम ले लिया है। एक तरह से स्वच्छंद माहौल में ताजपोशी कर रहे थे त्रिवेंद्र, वह भी पार्टी संगठन और आरएसएस दोनों के पूरे सहयोग के साथ। ऐसे में थोड़ा कुनमुना रहे सतपाल महाराज ने भी चुप्पी साध ली थी और भविष्य की ओर नजरें गड़ा ली थी। लेकिन हकीकत में इन पांच महीनों का पटदृश्य ऐसा नहीं है। इसी साल मार्च में बनी जिस सरकार में कम से कम आंतरिक द्वंद्व और मतभेद की कोई बड़ी गुंजाइश नहीं थी वहां अब सियासी आकाश के बादलों के छींटे ही नहीं पड़ रहे, गड़गड़हाट भी सुनाई दे रही है।

त्रिवेंद्र कैबिनेट में उन्हें भी मंत्री बनाया गया जो कांग्रेस से बगावत कर भाजपा में शामिल हुए थे। तब थोड़ी आशंका थी कि अगर विरोध के स्वर उठेंगे या अपेक्षाओं की बात होगी तो इसी धड़े से होगी। लेकिन उन मंत्रियों ने जब सार्वजनिक तौर पर यह कहना शुरू किया कि नेतृत्व का पहला दायित्व भाजपा के पुराने लोगों को ही मिलना चाहिए तो यह धारणा भी खत्म हो गई कि ये नेता कोई रुख अपनाएंगे। सतपाल महाराज ने नेतृत्व को लेकर थोड़ी इच्छा जरूर जताई थी लेकिन उसे विरोध नहीं कह सकते। इस नाते त्रिवेंद्र सरकार भले ही अपनी कमियों पर फंसती लेकिन आंतरिक विरोध, संगठन की लड़ाई, वर्चस्व की लड़ाई के लिए अभी वक्त आने में देर थी। मगर ऐसा हुआ नहीं। सरकार के एक सौ पचास दिन भी ढंग से पूरे नहीं हुए और बर्तन खनखनाने लगे।

सतपाल की नाराजगी
सतपाल महाराज ने भले ही मौन ओढ़ रखा है लेकिन वे त्रिवेंद्र की सत्ता को मन से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। उन्हें मंत्रिमंडल में लेने में मुख्यमंत्री भी थोड़ा असहज रहे। सतपाल ने जितना स्वयं कहा उससे ज्यादा उनके करीबी अपनी बातों में जताते हैं। उनकी धारणा यही रही है कि सतपाल जैसे आभामंडल वाले नेता की बजाय सत्ता त्रिवेंद्र को सौंपना अव्यवहारिक फैसला है। सतपाल ने यह जाहिर करने में कोई कमी नहीं छोड़ी कि भले ही उनके पास नेतृत्व न हो लेकिन कैबिनेट में वह नंबर दो की स्थिति में हैं। सत्ता के गलियारों में यह भी कहा जाने लगा है कि सतपाल कैबिनेट मंत्री तो हैं लेकिन कैबिनेट की मीटिंग में जाने में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं। और तो और कुछ जरूरी कैबिनेट मीटिंग को भी उन्होंने नजरअंदाज कर दिया। यह शायद यही दिखाने की कोशिश थी कि वह कैबिनेट में भले ही किसी के मातहत हैं लेकिन उनका अपना स्वतंत्र वजूद है। ऐसे में द्रोणागिरी पर्यटन मेले में वो क्षण भी आया जब पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने महसूस किया कि उन्हें जानबूझ कर अपमानित कराया गया, वह भी एक पायलट के जरिये। पायलट ने उन्हें बीच रास्ते में उतार कर हेलिकॉप्टर वापस लाने की बात कही और गायब हो गया। कैबिनेट मंत्री के प्रोटोकॉल का उल्लंघन कर अपरोक्ष रूप से उन्हें प्रताड़ित किया गया। सतपाल ने इस अपमान को झेंप कर नहीं सहा बल्कि पूरी चिट्टीबाजी कर और सत्ता के नेतृत्व पर सवाल उठाकर सत्ता के आंतरिक संघर्ष का बिगुल बजा दिया।

मुख्यमंत्री बनाम मंत्री
मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के तेवर से भलीभांति परिचित थे। वे जानते थे कि कई मामलों में वरिष्ठ नेताओं से काम करवा पाना उनके लिए आसान नहीं रहेगा। उन्होंने किसी भी अप्रिय स्थिति से बचने के मकसद से कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक को सरकार का प्रवक्ता नियुक्त कर सत्ता संतुलन का जतन भी किया लेकिन उनके इस प्रयास को अन्य मंत्रियों की अपेक्षा कौशिक को ज्यादा महत्व देने के रूप में देखा गया। कौशिक की बढ़त ने हरिद्वार संसदीय सीट पर नजर गड़ाए नेताओं में सियासी प्रतिद्वंद्विता पैदा कर दी। हरिद्वार के सांसद और सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक और मदन कौशिक के बीच कभी बेहतरीन तालमेल हुआ करता था। मगर पिछले लोकसभा चुनाव में दोनों के संबंध तब तल्ख हो गए जब निशंक ने कौशिक को पछाड़ते हुए बाबा रामदेव की मदद से हरिद्वार का टिकट हासिल कर लिया। इसके बाद दोनों नेताओं में हरिद्वार पर वर्चस्व की जंग छिड़ गई। इसे लेकर अकसर उनके समर्थकों में मार-पिटाई की नौबत आती रहती है। बदलते हालात में मदन कौशिक से स्पर्धा रखने वाले विधायकों ने सतपाल महाराज का दामन थाम लिया तो हरिद्वार की भाजपाई सियासत में एक नया समीकरण उभर आया।

कौशिक बनाम सतपाल
हरिद्वार की राजनीति पिछले करीब दो दशकों से मदन कौशिक के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। वे 2002 से लगातार हरिद्वार से निर्वाचित होकर विधानसभा पहुंच रहे हैं। इस दौरान वे दो बार मंत्री भी बने। अभी तक वे यहां अविजित बने हुए थे लेकिन हाल में हुए एक घटनाक्रम ने उनके एकाधिकार को प्रभावित किया है। उस घटना ने जता दिया कि सतपाल महाराज की पैठ हरिद्वार हो या संगठन में, कौशिक की बनिस्पत कहीं ज्यादा है।

दरअसल, भारी बारिश के बाद पानी निकासी की बाधा हटाने के लिए कौशिक समर्थक मेयर मनोज गर्ग के साथ नगर निगम के कर्मचारी सतपाल महाराज के आश्रम प्रेमनगर पहुंचे। अतिक्रमण हटाने के दौरान महाराज समर्थकों और कौशिक समर्थकों में विवाद इतना बढ़ गया कि दोनों पक्षों में पथराव हो गया। हमले में मेयर समेत कई लोग घायल हो गए। मेयर पर हमले से नाराज नगर निगम के कर्मचारियों ने प्रेमनगर आश्रम के मुख्यद्वार पर कूड़ा डाल दिया और हमलावरों पर कार्रवाई की मांग को लेकर हड़ताल करने की चेतावनी दी। वहीं दूसरी तरफ आश्रम के सेवकों ने पूरे विवाद के लिए मेयर और उनके समर्थकों को दोषी ठहराया और आमरण अनशन पर बैठ गए।

इस हाई प्रोफाइल मामले को कांग्रेस ने भी खूब भुनाया। मामला भाजपा हाईकमान तक पहुंचा तो प्रदेश अध्यक्ष को मामले को सुलझाने के लिए महाराज के आश्रम भेजा गया। करीब साढ़े तीन घंटे तक चली बैठक के बाद मामला अनुशासन समिति को सौंप दिया गया। इस बैठक में जहां सांसद रमेश पोखरियाल निशंक के साथ चार विधायक स्वामी यतीश्वरानंद, संजय गुप्ता, आदेश चैहान और सुरेश राठौर शामिल हुए, वहीं मदन कौशिक ने आश्रम पहुंचना उचित नहीं समझा। बैठक के बाद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अजय भट्ट और सतपाल महराज ने प्रेमनगर आश्रम के मुख्यद्वार पर आमरण अनशन पर बैठे संस्था के सेवकों को जूस पिलाकर अनशन खत्म कराया। भट्ट ने इस पूरे विवाद को एक दुर्घटना करार दिया। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक गुरु सतपाल महाराज का कद बहुत बड़ा है। यदि संत समाज इस प्रकरण से आहत है तो वे व्यक्तिगत तौर पर भी उनसे माफी मांगते हैं। हालांकि सतपाल महाराज ने साफ कहा, ‘उनकी संस्था ने कोई कब्जा नहीं किया है, उन्हें भूमि सिंचाई विभाग ने आवंटित की है। पूर्व सीएम हरीश रावत इस संबंध में जांच करा चुके हैं। यदि मेयर उनकी संस्था से संपर्क करते तो वे खुद ही दीवार तोड़ने से भी पीछे नहीं हटते।’

इस पूरे प्रकरण में महाराज के समर्थन में संगठन, सांसद व चार विधायकों के खुलकर खड़े हो जाने से मदन कौशिक अब क्षेत्र की राजनीति में अलग-थलग पड़ते दिखाई दे रहे हैं। महाराज ने हरिद्वार में जलभराव की समस्या का निदान पर्यटन विभाग के पैसे से कराने का ऐलान कर एक तरह से नगर विकास मंत्री को सीधी चुनौती दी है। इतना ही नहीं अभी तक अपने आश्रम तक ही सीमित रहने वाले महाराज अब पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय की सीमाएं लांघ हरिद्वार की समस्याओं का निरीक्षण कर अधिकारियों को उनके निदान के आदेश दे रहे हैं। हरिद्वार की राजनीति में उनकी बढ़ती सक्रियता व उनकी छत्रछाया में कौशिक विरोधियों का एकजुट होना इस बात का संकेत है कि अब यहां का राजनीतिक परिदृश्य बदलने जा रहा है।

हरक बनाम सरकार
दो मंत्रियों की आपसी लड़ाई के बाद वन एवं पर्यावरण मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत ने भी अपनी उपेक्षा के मुद्दे पर मुख्यमंत्री को तेवर दिखा डाले। पहले सतपाल महाराज ने कैबिनेट बैठकों की उपेक्षा की तो हरक सिंह रावत ने भी इसी रास्ते को पकड़ा। रावत ने पार्टी संगठन और कैबिनेट की बैठकों में जाने से परहेज किया तो सवाल उठना लाजिमी था। हरक ने मुख्यमंत्री पर सीधे तो निशाना नहीं साधा लेकिन उन्होंने इशारों में साफ जताया कि कई महत्वपूर्ण विभागों का मंत्री होने के बावजूद सरकार में उन्हें तरजीह नहीं मिल रही। बार-बार कहने के बावजूद अधिकारी उनका कहा नहीं मान रहे। वरिष्ठ पत्रकार वेद विलास उनियाल कहते हैं कि हरक रावत कद्दावर और दबंग नेता हैं। उनकी कई महत्वपूर्ण फाइलें मुख्यमंत्री सचिवालय में अटकी हैं तो नाराजगी स्वाभाविक है।