बलूचिस्तान मामला- अगंभीर विदेश नीति की बानगी है यह बयान

विदेश नीति एक गंभीर मसला है। इसमें थोड़ी भी अगंभीरता दुनिया भर में हमारी छवि खराब कर सकती है। जब हम बलूचिस्तान जैसे संवेदनशील मुद्दे पर बात करते हैं तो हमें बेहद संजीदगी से अपनी बात रखनी चाहिए। बलूचिस्तान का संबंध भारत के साथ बहुत पुराना और गहरा है। बलूचिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें हम सीमांत गांधी के नाम से भी जानते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका रही है। इस लिहाज से भी यह मसला संवेदनशील है। पाकिस्तान के बंटवारे के बाद भी हमने उसके महत्व को कम करके कभी नहीं आंका। बलूचिस्तान के लोगों के दिल में भारत के लिए बहुत कद्र है। इसलिए जब हम पाकिस्तान या उससे जुड़े मसलों का जिक्र करें तो इन तमाम बातों को ध्यान में रखने की जरूरत है।

आजादी के बाद विदेश नीति में बलूचिस्तान को लेकर भारत ने हमेशा संजीदगी बरती है। बलूचिस्तान अपना संघर्ष कर रहा है। हर देश की अपनी संप्रभुता होती है। हमें उसकी संप्रुभता का ख्याल रखना चाहिए। कोई देश अगर कश्मीर पर हस्तक्षेप भी कर रहा है तो हमें अपनी गंभीरता नहीं छोड़नी चाहिए। सवाल यह भी है कि विदेश नीति में कोई बात हमें प्रतिक्रिया स्वरूप बोलनी चाहिए क्या? क्या जैसे को तैसा की नीति हमारी विदेश नीति का हिस्सा हो सकती है? यह गंभीर विदेश नीति नहीं है। गंभीरता यह है कि हम बलूचिस्तान के लोगों की कद्र करते हुए अपनी पुरानी विदेश नीति पर चलें। प्रतिक्रियावादी विदेश नीति की वजह से हम अगंभीर लगने लगेंगे।

मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल नहीं उठा रहा हूं। मैं इस मसले पर दिए गए बयान पर सवाल उठा रहा हूं। हाल ही में हमने यह कहा कि पाकिस्तान लगातार कश्मीर पर हमले कर रहा है। हम भी इसका जवाब देंगे। गुलाम कश्मीर और बलूचिस्तान पर एक पोजिशन लेंगे। यह हमारी विदेश नीति के इतिहास का हिस्सा नहीं है। हमारे मन में शुरू से यह रहा है कि बलूचिस्तान को स्वतंत्रता मिले। यह भी समझने की जरूरत है कि केंद्र में आज एक पार्टी है तो कल दूसरी होगी। पार्टियां बदल सकती हैं मगर विदेश नीति पार्टी के अनुसार नहीं चलती। कल को कांग्रेस केंद्र में आती है तो वह अपनी स्थापित विदेश नीति पर ही चलेगी। ऐसे में वैश्विक स्तर पर हम पर उंगलियां उठ सकती हैं कि हमारी नीति में स्थायित्व नहीं है। तब हम बुरी स्थिति में होंगे। हमें बुद्ध का वह कथन याद रखना होगा कि आग से आग नहीं बुझती, आग बुझाने के लिए पानी की जरूरत पड़ती है। हमें जनता का भरोसा जीतना चाहिए न कि ध्रुवीकरण करना चाहिए। चाहे वह जनता पाकिस्तान की हो, बलूचिस्तान या भारत की हो। कश्मीर के मुद्दे को वहां की मूलभूत समस्याओं को हल करके ही सुलझाया जा सकता है।

जो कश्मीर हमारे पास है वह हमारा और जो पाकिस्तान के पास है वह पाकिस्तान का हिस्सा है। अब आप कश्मीर के पिछले कुछ चुनाव पर नजर डालिए तो देखेंगे कि लोगों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ने की लालसा बढ़ी है। वहां चुनावों में 70 फीसदी तक वोटिंग हुई है। इस बार तो दो विपरीत राजनीतिक ताकतों पीडीएफ और भाजपा ने मिलकर वहां सरकार बनाई है। विदेश नीति से जुड़ा कोई स्टैंड लेने से पहले सभी पार्टियों से बात करनी चाहिए। एक बेहतर जनतांत्रिक प्रक्रिया का तरीका यही होता है। इससे वैश्विक स्तर पर हमारी गंभीर छवि बनती। इस मसले पर तो केंद्र ने अपनी सहयोगी पार्टियों से भी राय नहीं ली। यह रवैया भी भारत की छवि से मेल नहीं खाता।

आज स्थिति यह बन गई है कि किसी भी पड़ोसी देश से हमारे संबंध ठीक नहीं हैं। हम दिनोंदिन अपने पड़ोसी देशों का भरोसा खोते जा रहे हैं। आपको यह सोचना होगा कि सऊदी अरब में हमारे देश के करीब साठ लाख लोग रहते हैं। वहां का सामाजिक ताना बाना देखिए। इन कदमों से वहां असर पड़ सकता है। दरअसल, सच तो यह है कि यह सारे फैसले और बयान महज ध्रुवीकरण की प्रक्रिया का हिस्सा हैं और आने वाले चुनाव की तैयारी। सरकार के इस कदम से बलूचिस्तान के लोगों के लिए भी दिक्कत खड़ी होगी। हमारी सहानुभूति उनके साथ है, यह उनके लिए बड़ी ताकत है। लेकिन अगर सहानुभूति को राजनीति के साथ लेकर आएंगे तो यह उन्हें कमजोर ही करेगी।

(लेखक जेएनयू में इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर हैं। संध्या द्विवेदी से बातचीत पर आधारित)

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